अग्नि पुराण - एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 135 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 135 Chapter !

एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय संग्रामविजय-विद्या ! सङ्ग्रामविजयविद्या !

अग्नि पुराण - एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 135 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 135 Chapter !

ईश्वर उवाच
सङ्ग्रामविजयां विद्यां पदमालां वदाम्यहं ।१३५.००१
ओं ह्रीं चामुण्डे श्मशानवासिनि खट्वाङ्गकपालहस्ते
टिप्पणी
खड्गकपालहस्ते इति झ महप्रेतसमारूढे महाविमानसमाकुले कालरात्रि महागणपरिवृते महामुखे बहुभुजे घण्टाडमरुकिङ्कणीअट्टाट्टहासे किलि किलि ओं हूं फट्दंष्ट्राघोरान्धकारिणि नादशब्दबहुले गजचर्मप्रावृतशरीरे मांसदिग्धे लेलिहानोग्रजिह्वे महाराक्षसि रौद्रदंष्ट्राकराले भौमाट्टाट्टहासे स्फुरद्विद्युत्प्रभे चल चल ओं चकोरनेत्रे चिलि चिलि ओं ललज्जिह्वे ओं भीं भ्रुकुटीमुखि हुङ्कारभयत्रासनिकपालमालावेष्टितज

ईश्वर उवाच 
संग्रामविजयं विद्यां पदमलं वदाम्यहं |
ॐ ह्रीं चामुण्डे श्मशानवासिनी खत्वांगकपालहस्ते |
महाप्रेतसामारूढे महाविमानसमाकुले कालरात्रि महागणपरिवृते महामुखे बहुभुजे घंटादामरुकिणकनिअताहासे किलि किलि ओङ हुं फटदा श्रीराघोरान्धकारिणी नादशब्दबाहुले गजकर्मप्रावर्तशरीरे मंसादिग्धे लेलिहानोग्राजिह्वे महाराक्षसी रौद्रदस्त्रकाराले भौमतातः ठाहासे स्फुरद्विद्युतप्रभे काल काल ॐ काकोरनेत्रे सिलि सिलि ॐ लालज्जिहवे ॐ भीं भृकुटिमुखी हुंकाराभयत्रासनिकापालमलावेष्टितजतामुकुटशंखधारी नि अट्ठाहासे किलि किलि ॐ ह्रुं दंत्रघोरान्धकारिणी सर्वविघ्नविनाशिनी इदं कर्म साधय 2 ॐ शिघ्रं कुरु 2 ॐ फातोङ अङ कुशेना शमय प्रवेशाय ॐ रंग रंग कम्पाय 2 ॐ कालाय ॐ रुधिरामंसमाद्यप्रिये हाना 2 ॐ कुठ 2 ॐ चिन्द ॐ मारय ॐ अनुक्रमय ॐ वज्रश्रीरामपतय ॐ निशान ओक्यागतन्दुष्टमदुष्टं वा घृतमघीतम वा आवेशाय ॐ नृत्य ॐ वन्द ॐ कोत्राक्षी ऊर्ध्वकेशी उलूकवदने कराणकिनि ओं कारकम् अलाधारिणी दहा ॐ पच 2 ॐ गृहण ॐ मंडलमध्ये प्रवेशाय ॐ किं विल्म्बासि ब्रह्मसत्येन विष्णुसत्येन रुद्रसत्येन ऋषिसत्येन आवेशाय ॐ किलि किलि ॐ खिलि खिलि विलि विलि ऊँ विकृतरूपधारिणी कृष्णभुजंगवेष्ठितशरीरे सर्वग्रहवेषानि प्रलंबौष्ठिनी भूभंगलाग्नानासिके विकटमुखी कपिलजाते ब्राह्मीभंज ॐ ज्वालामुखी  खना ॐ पतया ॐ रक्ताक्षी घुरणाय भूमिं पतया ॐ शिरो गृहण चक्षुर्मिलय ॐ हस्तपादौ गृहण मुद्रा स्फोटया ॐ फटोऽ विदारय ॐ त्रिशूलेण चछेदय ॐ वज्रेण हाना ॐ दण्डेन ताद्याय 2 ॐ चक्रेण चछेदय 2 ॐ शक्ति भेदाय दंस्त्र्य किलय ॐ कर्णिकाय पातय ओ ॐ अंकुशेन गृहण ॐ शिरोक्षिज्वारामैकाहिकं द्वयहिकं त्र्यहिकांचतुर्थिकं ददाकिनीस्कंदग्रहणमुञ्च मुन्का ॐ पका ॐ उत्सदया ॐ भूमिं पतया ॐ गृहणि ॐ ब्राह्मणी एहि ॐ माहेश्वरी एहि ॐ कौमारी एहि ॐ वैष्णवी एहि ॐ वाराहि एहि ऊँ ए इंद्री एहि ओम् चामुण्डे एहि ओम् रेवती एहि ओम् आकाशरेवती एहि ओम् हिमवच्चरिणि एहि ओम् रुरुमर्दिनी असुरक्षयङ्काकारी आकाशगामिनी पाशेन बन्ध बन्ध अन्कुशेण कट 2 समयं तिष्ठ ॐ मंडलं प्रवेशाय ॐ गृहण मुखबंध ॐ चक्षुरबंध हस्तपादौ च बंध दुष्ग्रहण सर्वान् बंध ॐ दिशो बंध ॐ विदिशो बंध अष्टादबंध ओ सर्वं बन्ध ॐ भस्माना पणियेन वा मृत्तिकाया सरशपेर्वा सर्वनावेशाय ॐ पतया ॐ चामुण्डे किलि किलि ॐ विच्चे हुं फटस्वाहा |
पदमाला जयाखयेयं सर्वकर्मप्रशाधिका || 1 ||
सर्वदा होमजपद्यैः पठाद्यैश्च राणे जयः |

अष्टाविंशभुजा ध्येय असिखेत्कावत्करौ || 2 ||
गदादण्डयुतौ चान्यौ शरचापधरौ परौ |

मुष्टिमुद्गरयुक्तौ च शङ्काखड्गयुतौ परौ || 3 ||
ध्वजवज्रधरौ चान्यौ चक्रपरशु परौ |

दमरुदर्पणाध्यौ च शक्तिकुन्तधारौ परौ || 4 ||
हलेन मुशलेनाढ्यौ पश्तोमरसंयुतौ |

धाक्कपंसयुक्तौ अभयमुष्टिकान्वितौ || 5 ||
तर्जयन्ति च महिषं घतानि होमतोऽरिजित |

त्रिमध्वक्ततिलैरहोमो न देय यस्य कस्य सीत || 6 ||
इत्याग्नेये महापुराणे युद्धार्णवे सङ्ग्रामविजयविद्या नाम पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 135 Chapter!-In Hindi

महेश्वर कहते हैं- देवि! अब मैं संग्राममें विजय दिलानेवाली विद्या (मन्त्र) का वर्णन करता हूँ, जो पदमालाके रूपमें है ॥ १॥  ॐ ह्रीं जिना चामुण्डेका श्मशानवासिनि खट्वाङ्गकपालहस्ते महाप्रेतसमारूढे महाविमानसमाकुले कालरात्रि महागणपरिवृते महामुखे बहुभुजे घण्टाडमरुकिङ्किणि (हस्ते), अट्टाट्टहासे किलि किलि, ॐ हूं फट्, दंष्ट्राघोरान्धकारिणिनादशब्दबहुले गजचर्मप्रावृतशरीरे मांसदिग्धे लेलिहानोग्रजिह्वे महाराक्षसि रौद्रदंष्ट्राकराले भीमाट्टाट्टहासे स्फुरद्विद्युत्प्रभे चल चल, ॐ चकोरनेत्रे चिलि चिलि, ॐ ललजिह्वे, ॐ भीं भुकुटीमुखि हुंकारभयत्रासनि कपालमालावेष्टितजटा मुकुटशशाङ्कधारिणि, अट्टाट्टहासे किलि किलि, ॐ हूं दंष्ट्टाघोरान्धकारिणि, सर्वविघ्नविनाशिनि, इदं कर्म साधय साधय, ॐ शीघ्रं कुरु कुरु, ॐ फट्, ओमङ्कुशेन शमय, प्रवेशय, ॐ रङ्ग रङ्ग, कम्पय कम्पय, ॐ चालय, ॐ रुधिरमांसमद्यप्रिये हन हन, ॐ कुट्ट कुट्ट, ॐ छिन्द, ॐ मारय, ओमनुक्रमय, ॐ वज्रशरीरं पातय, ॐ त्रैलोक्यगतं दुष्टमदुष्टं वा गृहीतमगृहीतं वाऽऽवेशय, ॐ नृत्य, ॐ वन्द, ॐ कोटराश्यूर्वकेश्युलूकवदने करङ्किणि, ॐ करङ्कमालाधारिणि दह, ॐ पच पच, ॐ गृह्ण, ॐ मण्डलमध्ये प्रवेशय, ॐ किं विलम्बसि ब्रह्मसत्येन विष्णुसत्येन रुद्रसत्येनर्षिसत्येनावेशय, ॐ किलि किलि, ॐ खिलि खिलि, विलि विलि, ॐ विकृतरूपधारिणि कृष्णभुजंगवेष्टितशरीर सर्वग्रहावेशिनि प्रलम्बौष्ठिनि भ्रूभङ्गलग्ननासिके विकटमुखि कपिलजटे ब्राह्यि भञ्ज, ॐ ज्वालामुखि स्वन, ॐ पातय, ॐ रक्ताक्षि घूर्णय, भूमिं पातय, ॐ शिरो गृह्न, चक्षुर्मीलय, ॐ हस्तपादौ गृह्ण, मुद्रां स्फोटय, ॐ फट्, ॐ विदारय, ॐ त्रिशूलेन च्छेदय, ॐ वज्रेण हन, ॐ दण्डेन ताडय ताडय, ॐ चक्रेण च्छेदय च्छेदय, ॐ शक्त्या भेदय, दंष्ट्या कीलय, ॐ कर्णिकया पाटय, ओमङ्कुशेन गृह्ण, ॐ शिरोऽक्षिज्वर- मेकाहिकं द्वयाहिकं त्र्याहिकं चातुर्थिकं डाकिनिस्कन्दग्रहान् मुञ्च मुञ्च, ॐ पच, ओमुत्सादय, ॐ भूमिं पातय, ॐ गृह्न, ॐ ब्रह्माण्येहि, ॐ माहेश्वर्येहि, (ॐ) कौमार्येहि, ॐ वैष्णव्येहि, ॐ वाराहोहि, ओमैन्द्रयेहि, ॐ चामुण्ड एहि, ॐ रेवत्येहि, ओमाकाशरेवत्येहि, ॐ हिमवच्चारिण्येहि, ॐ रुरुमर्दिन्यसुरक्षयंकर्याकाशगामिनि पाशेन बन्ध बन्ध, अङ्कुशेन कट कट, समये तिष्ठ, ॐ मण्डलं प्रवेशय, ॐ गृह, मुखं बन्ध, ॐ चक्षुर्बन्ध हस्तपादौ च बन्ध, दुष्टग्रहान् सर्वान् बन्ध, ॐ दिशो बन्ध, ॐ विदिशो बन्ध, अधस्ताद्वन्ध, ॐ सर्वं बन्ध, ॐ भस्मना पानीयेन वा मृत्तिकया सर्वपैर्वा सर्वानावेशय, ॐ पातय, ॐ चामुण्डे किलि किलि, ॐ विच्चे हुं फट् स्वाहा ॥ ॐ ह्रीं चामुण्डे देवि! आप श्मशानमें वास करनेवाली हैं। आपके हाथमें खट्वाङ्ग और कपाल शोभा पाते हैं। आप महान् प्रेतपर आरूढ़ हैं। आप बड़े-बड़े विमानोंसे घिरी हुई हैं। आप ही कालरात्रि हैं। बड़े-बड़े पार्षदगण आपको घेरकर खड़े हैं। आपका मुख विशाल है। भुजाएँ बहुत हैं। घण्टा, डमरू और घुँघुरू बजाकर विकट अट्टहास करनेवाली देवि ! क्रीड़ा कीजिये, क्रीड़ा कीजिये। ॐ हूं फट्। आप अपनी दाढ़ोंसे घोर अन्धकार प्रकट करनेवाली हैं। आपका गम्भीर घोष और शब्द अधिक मात्रामें अभिव्यक्त होता है। आपका विग्रह हाथीके चमड़ेसे ढका हुआ है। शत्रुओंके मांससे परिपुष्ट हुई देवि ! आपकी भयानक जिह्वा लपलपा रही है। महाराक्षसि ! भयंकर दाढ़ोंके कारण आपकी आकृति बड़ी विकराल दिखायी देती है। आपका अट्टहास बड़ा भयानक है। आपकी कान्ति चमकती हुई बिजलीके समान है। आप संग्राममें विजय दिलानेके लिये चलिये, चलिये। ॐ चकोरनेत्रे (चकोरके समान नेत्रोंवाली)! चिलि, चिलि। ॐ ललज्जिते (लपलपाती हुई जीभवाली)! ॐ भीं टेढ़ी भौंहोंसे युक्त मुखवाली! आप हुंकारमात्रसे ही भय और त्रास उत्पन्न करनेवाली हैं। आप नरमुण्डोंकी मालासे वेष्टित जटा-मुकुटमें चन्द्रमाको धारण करती हैं। विकट अट्टहासवाली देवि ! किलि, किलि (रणभूमिमें क्रीड़ा करो, क्रीड़ा करो)। ॐ हूं दाढ़ोंसे घोर अन्धकार प्रकट करनेवाली और सम्पूर्ण विघ्नोंका नाश करनेवाली देवि ! आप मेरे इस कार्यको सिद्ध करें, सिद्ध करें। ॐ शीघ्र कीजिये, कीजिये। ॐ फट् । ॐ अङ्कुशसे शान्त कीजिये, प्रवेश कराइये। ॐ रक्तसे रँगिये, रँगिये; कँपाइये, कँपाइये। ॐ विचलित कीजिये। ॐ रुधिर-मांस-मद्यप्रिये! शत्रुओंका हनन कीजिये, हनन कीजिये। ॐ विपक्षी योद्धाओंको कूटिये, कूटिये। ॐ काटिये। ॐ मारिये। ॐ उनका पीछा कीजिये। ॐ वज्रतुल्य शरीरवालेको भी मार गिराइये। ॐ त्रिलोकीमें विद्यमान जो शत्रु है, वह दुष्ट हो या , पकड़ा गया हो या नहीं, आप उसे आविष्ट कीजिये। ॐ नृत्य कीजिये। ॐ वन्द । ॐ कोटराक्षि (खोंखलेके समान नेत्रवाली)! ऊर्ध्वकेशि (ऊपर उठे हुए केशोंवाली) ! उलूकवदने (उल्लूके समान मुँहवाली)! हड्डियोंकी ठटरी या खोपड़ी धारण करनेवाली! खोपड़ीकी माला धारण करनेवाली चामुण्डे ! आप शत्रुओंको जलाइये। ॐ पकाइये, पकाइये। ॐ पकड़ियें। ॐ मण्डलके भीतर प्रवेश कराइये। ॐ आप क्यों विलम्ब करती हैं? ब्रह्माके सत्यसे, विष्णुके सत्यसे, रुद्रके सत्यसे तथा ऋषियोंके सत्यसे आविष्ट कीजिये। ॐ किलि किलि। ॐ खिलि खिलि। विलि विलि। ॐ विकृत रूप धारण करनेवाली देवि! आपके शरीरमें काले सर्प लिपटे हुए हैं। आप सम्पूर्ण ग्रहोंको आविष्ट करनेवाली हैं। आपके लंबे-लंबे ओठ लटक रहे हैं। आपकी टेढ़ी भौंहें नासिकासे लगी हैं। आपका मुख विकट है। आपकी जटा कपिलवर्णकी है। आप ब्रह्माकी शक्ति हैं। आप शत्रुओंको भङ्ग कीजिये। ॐ ज्वालामुखि ! गर्जना कीजिये। ॐ शत्रुओंको मार गिराइये। ॐ लाल-लाल आँखोंवाली देवि! शत्रुओंको चक्कर कटाइये, उन्हें धराशायी कीजिये। ॐ शत्रुओंके सिर उतार लीजिये। उनकी आँखें बंद कर दीजिये। ॐ उनके हाथ-पैर ले लीजिये, अङ्ग-मुद्रा फोड़िये। ॐ फट् । ॐ विदीर्ण कीजिये। ॐ त्रिशूलसे छेदिये। ॐ वज्रसे हनन कीजिये। ॐ डंडेसे पीटिये, पीटिये। ॐ चक्रसे छिन्न-भिन्न कीजिये, छिन्न-भिन्न कीजिये। ॐ शक्तिसे भेदन कीजिये। दाढ़से कीलन कीजिये। ॐ कतरनीसे चीरिये। ॐ अङ्कुशसे ग्रहण कीजिये। ॐ सिरके रोग और नेत्रकी पीड़ाको, प्रतिदिन होनेवाले ज्वरको, दो दिनपर होनेवाले ज्वरको, तीन दिनपर होनेवाले ज्वरको, चौथे दिन होनेवाले ज्वरको, डाकिनियोंको तथा कुमारग्रहोंको शत्रुसेनापर छोड़िये, छोड़िये। ॐ उन्हें पकाइये। ॐ शत्रुओंका उन्मूलन कीजिये। ॐ उन्हें भूमिपर गिराइये। ॐ उन्हें पकड़िये। ॐ ब्रह्माणि! आइये। ॐ माहेश्वरि ! आइये। ॐ कौमारि! आइये। ॐ वैष्णवि ! आइये। ॐ वाराहि ! आइये। ॐ ऐन्द्रि ! आइये। ॐ चामुण्डे ! आइये। ॐ रेवति ! आइये। ॐ आकाशरेवति ! आइये। ॐ हिमालयपर विचरनेवाली देवि ! आइये। ॐ रुरुमर्दिनि ! असुरक्षयंकरि (असुरविनाशिनि) ! आकाशगामिनि देवि ! विरोधियोंको पाशसे बाँधिये, बाँधिये। अङ्कुशसे आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये। अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर रहिये। ॐ मण्डलमें प्रवेश कराइये। ॐ शत्रुको पकड़िये और उसका मुँह बाँध दीजिये। ॐ नेत्र बाँध दीजिये। हाथ पैर भी बाँध दीजिये। हमें सतानेवाले समस्त दुष्ट ग्रहोंको बाँध दीजिये। ॐ दिशाओंको बाँधिये। ॐ विदिशाओंको बाँधिये। नीचे बाँधिये। ॐ सब ओरसे बाँधिये। ॐ भस्मसे, जलसे, मिट्टीसे अथवा सरसोंसे सबको आविष्ट कीजिये। ॐ नीचे गिराइये। ॐ चामुण्डे! किलि किलि। ॐ विच्चे हुं फट् स्वाहा ॥२॥
यह 'जया' नामक पदमाला है, जो समस्त कमर्मोंको सिद्ध करनेवाली है। इसके द्वारा होम करनेसे तथा इसका जप एवं पाठ आदि करनेसे सदा ही युद्धमें विजय प्राप्त होती है। अट्ठाईस भुजाओंसे युक्त चामुण्डा देवीका ध्यान करना चाहिये। उनके दो हाथों में तलवार और खेटक हैं। दूसरे दो हाथोंमें गदा और दण्ड हैं। अन्य दो हाथ धनुष और बाण धारण करते हैं। अन्य दो हाथ मुष्टि और मुद्गरसे युक्त हैं। दूसरे दो हाथोंमें शङ्ख और खड्ग हैं। अन्य दो हाथोंमें ध्वज और वज्र हैं। दूसरे दो हाथ चक्र और परशु धारण करते हैं। अन्य दो हाथ डमरू और दर्पणसे सम्पन्न हैं। दूसरे दो हाथ शक्ति और कुन्द धारण करते हैं। अन्य दो हाथोंमें हल और मूसल हैं। दूसरे दो हाथ पाश और तोमरसे युक्त हैं। अन्य दो हाथोंमें ढक्का और पणव हैं। दूसरे दो हाथ अभयकी मुद्रा धारण करते हैं तथा शेष दो हाथोंमें मुष्टिक शोभा पाते हैं। वे महिषासुरको डाँटती और उसका वध करती हैं। इस प्रकार ध्यान करके हवन करनेसे साधक शत्रुओंपर विजय पाता है। घी, शहद और चीनीमिश्रित तिलसे हवन करना चाहिये। इस संग्रामविजय-विद्याका उपदेश जिस किसीको नहीं देना चाहिये (अधिकारी पुरुषको ही देना चाहिये ॥ ३-6॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणके अन्तर्गत युद्धजयार्णवमें 'संग्रामविजय-विद्याका वर्णन' कि नामक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३५ ॥

टिप्पणियाँ