अग्नि पुराण - एक सौ एकवाँ अध्याय ! Agni Purana - 101 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ एकवाँ अध्याय ! Agni Purana - 101 Chapter !

अग्नि पुराण एक सौ एकवाँ अध्याय प्रासाद-प्रतिष्ठा !

अग्नि पुराण - एक सौ एकवाँ अध्याय ! Agni Purana - 101 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ एकवाँ अध्याय ! Agni Purana - 101 Chapter !

ईश्वर उवाच
प्रासादस्थापनं वक्ष्ये तच्चैतन्यं स्वयोगतः।१०१.००१
शुकनाशासमाप्तौ तु पूर्ववेद्याश्च मध्यतः ॥१०१.००१

आधारशक्तितः पद्मे विन्यस्ते प्रणवेन च ।१०१.००२
स्वर्णाद्ये कतमोद्द्भतं पञ्चगव्येन संयुतं ॥१०१.००२

मधुक्षीरयुतं कुम्भं न्यस्तरत्रादिपञ्चकं।१०१.००३
स्रग्वस्त्रं गन्धलिप्तञ्च गन्धवत्पुष्पभूषितं ॥१०१.००३

चूतादिपल्लवानाञ्च कृती कृत्यञ्च विन्यसेत्।१०१.००४
पूरकेण समादाय सकलीकृतविग्रहः ॥१०१.००४

सर्वात्मभिन्नात्मानं स्वाणुना स्वान्तमारुतः ।१०१.००५
आज्ञया बोधयेच्छम्भौ रेचकेन ततो गुरुः ॥१०१.००५

द्वादशान्तात् समादाय स्फुरद्वह्निकणोपमं ।१०१.००६
निक्षिपेत्कुम्भगर्भे च न्यस्ततन्त्रातिवाहिकं ॥१०१.००६

विग्रहन्तद्गुणानाञ्च बोधकञ्च कलादिकं ।१०१.००७
क्षान्तं वागीश्वरं तत्तु ब्रातं तत्र निवेशयेत् ॥१०१.००७

दश नाडीर्दश प्राणानिन्द्रियाणि त्रयोदश ।१०१.००८
तदधिपांश्च संयोज्य प्रणवाद्यैः स्वनामभिः ॥१०१.००८

स्वकार्यकारणत्वेन मायाकाशनियामिकाः ।१०१.००९
विद्येशान् प्रेरकान् शम्भुं व्यापिनञ्च सुसम्वरैः ॥१०१.००९

अङ्गानि च विनिक्षिप्य निरुन्ध्याद्रोधमुद्रा ।१०१.०१०
सुवर्णाद्युद्भवं यद्वा पुरुषं पुरुषानुगं ॥१०१.०१०

पञ्चगव्यकषायाद्यैः पूर्ववत्संस्कृतन्ततः ।१०१.०११
शय्यायां कुम्भमारोप्य ध्यात्वा रुद्रमुमापतिं ॥१०१.०११

तस्मिंश्च शिवमन्त्रेण व्यापकत्वेन वियसेत् ।१०१.०१२
सन्निधानाय होमञ्च प्रओक्षणं स्पर्शनं जपं ॥१०१.०१२

सान्निध्याबोधनं सर्वम्भागत्रयविभागतः ।१०१.०१३
विधायैवं प्रकृत्यन्ते कुम्भे तं विनिवेशयेत् ॥१०१.०१३

इत्याग्नेये महापुराणे प्रासादकृत्यप्रतिष्ठा नामैकाधिकशततमोऽध्यायः

अग्नि पुराण - एक सौ एकवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 101 Chapter!-In Hindi

भगवान् शिव कहते हैं - स्कन्द ! अब मैं प्रासाद | (मन्दिर) की स्थापनाका वर्णन करता हूँ। उसमें चैतन्यका सम्बन्ध दिखा रहा हूँ। जहाँ मन्दिरके गुंबजकी समाप्ति होती है, वहाँ पूर्ववेदीके मध्यभागमें आधारशक्तिका चिन्तन करके प्रणव-मन्त्रसे कमलका न्यास करे। उसके ऊपर सुवर्ण आदि धातुओंमेंसे किसी एकका बना हुआ कलश स्थापित करे। उसमें पञ्चगव्य, मधु और दूध पड़ा हुआ हो। रत्न आदि पाँच वस्तुएँ डाली गयी हों। कलशपर गन्धका लेप हुआ हो। वह वस्त्रसे आवृत हो तथा उसे सुगन्धित पुष्पोंसे सुवासित किया गया हो। उस कलशके मुखमें आम आदि पाँच वृक्षोंके पल्लव डाले गये हों। हृदय-मन्त्रसे हृदय-कमलकी भावना करके उस कलशको वहाँ स्थापित करना चाहिये ॥ १-३ ॥ तदनन्तर गुरु पूरक प्राणायामके द्वारा श्वासको भीतर लेकर, शरीरके द्वारा सकलीकरण क्रियाका सम्पादन करके, स्व-सम्बन्धी मन्त्रसे कुम्भक प्राणायामद्वारा प्राणवायुको भीतर अवरुद्ध करे। फिर भगवान् शंकरकी आज्ञासे सर्वात्मासे अभिन्न आत्मा (जीवचैतन्य) को जगावे। तत्पश्चात्, रेचक प्राणायामद्वारा द्वादशान्त स्थानसे प्रज्वलित अग्निकणके समान जीव चैतन्यको लेकर कलशके भीतर स्थापित करे और उसमें आतिवाहिक शरीरका न्यास करके उसके गुणोंके बोधक काल आदिका एवं ईश्वरसहित पृथ्वी-पर्यन्त तत्त्व- समुदायका भी उसमें निवेश करे ॥ ४-७ ॥
इसके बाद उक्त कलशमें दस नाड़ियों, दस प्राणों, (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि और अहंकार-इन) तेरह इन्द्रियों तथा उनके अधिपतियोंकी भी उस कलशमें स्थापना करके, प्रणव आदि नाम-मन्त्रोंसे उनका पूजन करे। अपने-अपने कार्यके कारकरूपसे जो मायापाशके नियामक हैं, उनका, प्रेरक विद्येश्वरोंका तथा सर्वव्यापी शिवका भी अपने-अपने मन्त्रद्वारा वहाँ न्यास और पूजन करे। समस्त अङ्गोंका भी न्यास करके अवरोधिनी मुद्राद्वारा उन सबका निरोध करे। अथवा सुवर्ण आदि धातुओंद्वारा निर्मित पुरुषकी आकृति, जो ठीक मानव- शरीरके तुल्य हो, लेकर उसे पूर्ववत् पञ्चगव्य एवं कसैले जल आदिसे संस्कृत (शुद्ध) करे। फिर उसे शय्यापर आसीन करके उमापति रुद्रदेवका ध्यान करते हुए शिव-मन्त्रसे उस पुरुष-शरीरमें व्यापक रूपसे उन्हींका न्यास करे ॥८-११ ॥ उनके संनिधानके लिये होम, प्रोक्षण, स्पर्श एवं जप करे। संनिधापन तथा रोधक आदि सारा कार्य भागत्रय-विभागपूर्वक करे। इस प्रकार प्रकृति- पर्यन्त न्यास सारा विधान पूर्ण करके उस पुरुषको पूर्वोक्त कलशमें स्थापित कर दे ॥ १२-१३ ॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ' प्रासाद-प्रतिष्ठाकी विधिका वर्णन' नामक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०१ ॥

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