अग्नि पुराण - एक सौ पैंसठवाँ अध्याय | Agni Purana - 165 Chapter

अग्नि पुराण - एक सौ पैंसठवाँ अध्याय | नीचे हिन्दी मे है

एक सौ पैंसठवाँ अध्याय विभिन्न धर्मों का वर्णन |

अग्निरुवाच |

ध्येय आत्मा स्थितो योऽसौ हृदये दीपवतप्रभुः |
अनन्यविषयं कृत्वा मनो बुद्धिस्मृतिन्द्रियम् || 1 ||

श्रद्धान्तु ध्याने देयं गव्यं दधि घृतं पयः |
प्रियंगवो मसूरश्च वार्ताकुः कोद्रवो न हि || २ ||

 Agni Purana - 165 Chapter 

सैंहिकयो यदा सूर्यं ग्रसते पर्वसंधिषु |
हस्तिचया तु सा ज्ञेय श्रद्धादानादिकेऽक्ष्या || ३ ||

पितृ चैव यदा सोमो हंसे चैव करे स्थित |
तिथिर्वैवस्वतो नाम सा छाया कुञ्जरस्य तु || 4 ||

अग्नौकरणशेषन्तु न दद्याद्वैश्वदेविके |
अग्न्याभावे तु विप्रस्य हस्ते दद्यात्तु दक्षिणे || 5 ||

न स्त्री दुष्यति जारेणा न विप्रो वेदकर्मणा |
बलात्कारोपभुक्ता चेद्वैरिहस्तगतापि वा || ६ ||

सन्त्यजेद्दुष्टान्नारीमृतुकले न शुद्धयति |
या आत्मत्र्यतिरेकेण द्वितीयां नात्र पश्यति || ७ ||

ब्रह्मभूतः स एवेहा योगी चात्मरतोऽमलः |
विषयेन्द्रियसंयोगात्केचिदयोगं वदन्ति वै || ८ ||

अधर्मो धर्मबुद्धया तु गृहीतस्तैर्पण्डितैः |
आत्मनो मनसश्चैव संयोगञ्च तथा परे || ९ ||

वृत्तिहीनं मनः कृत्वा क्षेत्रज्ञं परमात्मनि |
एकीकृत्य विमुच्येत बन्धाद्योऽयमुत्तमः || १० ||

कुटुम्बैः पञ्चभिर्यमः षष्ठस्तत्र महात्तरः |
देवासुरमनुष्यैर्व स जेतुं नैव शक्यते || 11 ||

बहिर्मुखानि सर्वाणि कृत्वा चाभिमुखानि वै |
मनस्येवेन्द्रियग्रामं मनश्चात्मि योजयेत् || 12 ||

सर्वभावविनिर्मुक्तं क्षेत्रज्ञं ब्राह्मणि न्यासेत् |
एतज्जनाञ्च ध्यानञ्च शेषोऽन्यो ग्रन्थविस्तरः || १३ ||

यन्नास्ति सर्वलोकस्य तदस्थिति विरुद्धते |
कथ्यमानं तथन्यस्य हृदये नवतिष्ठते || 14 ||

असङ्वेद्यं हि तद्ब्रह्म कुमारी स्त्रीमुखं यथा |
अयोगी नैव जानाति जात्यान्धो हि घटं यथा || 15 ||

सत्र्यसन्तं द्विजं दृष्ट्वा स्थानाच्चलति भास्करः |
एषा मे मंडलं भित्त्वा परं ब्रह्माधिगच्छति || १६ ||

उपवासाञ्चैव स्नानन्तीर्थं फलन्तपः |
द्विजसम्पदानञ्चैव सम्पन्नतस्य तत्फलम् || १७ ||

एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परन्तपः |
सावित्र्यास्तु परं नास्ति पावनं परमं स्मृतः || १८ ||

पूर्वं स्त्रियः सुरैर्भुक्ताः सोमगन्धर्ववाह्निभिः |
भुञ्जते मानुषाः पश्चान्नैता दुष्यन्ति केनचित् || 19 ||

असवर्णेन यो गर्भः स्त्रीणां योनौ निश्चित्यते |
अशुधा तु भवेन्नारी यावत्चल्यां न मुञ्चति || २० ||

निःसृते तु ततः शल्ये राजसा शुद्ध्यते ततः |
ध्यानेन सदृशन्नस्ति शोधनं पापकर्मणां || २१ ||

स्वपाकेश्वपि भुञ्जानो ध्यानेन हि विशुद्धयति |
आत्मा ध्याता मनो ध्यानं ध्येय्यो विष्णुः फलं हरिः || २२ ||

अक्षयया यतिः श्राद्धे पञ्चतिपावनपावनः |
अरूढ़ो नैष्ठिकन्धर्मं यस्तु प्रच्यवते द्विजः || २३ ||

प्रायश्चितं न पश्यामि येन शुद्धयेत्सा आत्माहा |
ये च प्रव्रजिताः पत्नीं या चैषां वीजासन्ततिः || २४ ||

विदुर नाम चण्डाला जयन्ते नात्र संशयः |
शतिको म्रियते गृह्द्रः श्वासौ द्वादशिकस्तथा || २५ ||

भासो विंशतिवर्षानि शुकरो दशभिस्तथा |
अपुष्पो विफलो वृक्षो जायते कण्टकवृतः || २६ ||

ततो दावाग्निदग्धास्तु स्थानुरभवति सानुगाः |
ततो वर्षतन्यस्तौ द्वे तिष्ठत्यचेतनः || २७ ||

पूर्णे वर्षसहस्रे तु जायते ब्रह्मराक्षसः |
प्लावेना लभते मोक्षं कुलस्योत्सादनेन वा || २८ ||

योगमेव निषेवेते नान्यं मन्त्रमघपहम् || २९ ||

इत्याग्नेये महापुराणे नानाधमा नाम पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण एक सौ पैंसठवाँ अध्याय हिन्दी मे | Agni Purana - 165 Chapter In Hindi

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! हृदय में जो सर्व समर्थ परमात्मा दीपक के समान प्रकाशित होते हैं, मन, बुद्धि और स्मृति से अन्य समस्त विषयों का अभाव करके उनका ध्यान करना चाहिये। उनका ध्यान करनेवाले ब्राह्मणको ही श्राद्धके निमित्त दही, घी और दूध आदि गव्य पदार्थ प्रदान करे। प्रियङ्गु, मसूर, बैगन और कोदोका भोजन न करावे। जब पर्व-संधिके समय राहु सूर्यको ग्रसता है, उस समय 'हस्तिच्छाया-योग' होता है, जिसमें किये हुए श्राद्ध और दान आदि शुभकर्म अक्षय होते हैं। जब चन्द्रमा मघा, हंस अथवा हस्त नक्षत्रपर स्थित हो, उसे 'वैवस्वती तिथि' कहते हैं। यह भी 'हस्तिच्छाया योग' है। बलिवैश्वदेवमें अग्निमें होम करनेसे बचा हुआ अन्न बलिवैश्वदेवके मण्डलमें न डाले। अग्निके अभावमें वह अन्न ब्राह्मणके दाहिने हाथमें रखे। ब्राह्मण वेदोक्त कर्मसे तथा स्त्री व्यभिचारी पुरुषसे कभी दूषित नहीं होती। बलात्कारसे उपभोग की हुई और शत्रुके हाथमें पड़कर दूषित हुई स्त्रीका (ऋतुकाल-पर्यन्त) परित्याग करे। नारी ऋतु-दर्शन होनेपर शुद्ध हो जाती है। जो सम्पूर्ण विश्वमें व्याप्त एक आत्माके व्यतिरेकसे विश्वमें अभेदका दर्शन करता है, वही योगी, ब्रह्मके साथ एकीभावको प्राप्त, आत्मामें रमण करनेवाला और निष्पाप है। कुछ लोग इन्द्रियोंके विषयोंसे संयोगको ही 'योग' कहते हैं। उन मूखौँने तो अधर्मको ही धर्म मानकर ग्रहण कर रखा है। दूसरे लोग मन और आत्माके संयोगको ही 'योग' मानते हैं। मनको संसारके सब विषयोंसे हटाकर, क्षेत्रज्ञ परमात्मामें एकाकार करके योगी संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह उत्तम 'योग' है। पाँच इन्द्रिय  रूपी कुटुम्बोंसे 'ग्राम' होता है। छठा मन उसका 'मुखिया' है। वह देवता, असुर और मनुष्योंसे नहीं जीता जा सकता। पाँचों इन्द्रियाँ बहिर्मुख हैं। उन्हें आभ्यन्तरमुखी बनाकर इन्द्रियोंको मनमें और मनको आत्मामें निरुद्ध करे। फिर समस्त भावनाओंसे शून्य क्षेत्रज्ञ आत्माको परब्रह्म परमात्मामें लगावे। यही ज्ञान और ध्यान है। इसके विषयमें और जो कुछ भी कहा गया है, वह तो ग्रन्थका विस्तार-मात्र है॥ १-१३॥
'जो सब लोगोंके अनुभवमें नहीं है, वह है'- यों कहनेपर विरुद्ध (असंगत) सा प्रतीत होता है और कहनेपर वह अन्य मनुष्योंके हृदयमें नहीं बैठता। जिस प्रकार कुमारी स्त्री-सुखको स्वयं अनुभव करनेपर ही जान सकती है, उसी प्रकार वह ब्रह्म स्वतः अनुभव करनेयोग्य है। योगरहित पुरुष उसे उसी प्रकार नहीं जानता, जैसे जन्मान्ध मनुष्य घड़ेको। ब्राह्मणको संन्यास-ग्रहण करते देख सूर्य यह सोचकर अपने स्थानसे विचलित हो जाता है कि 'यह मेरे मण्डल का भेदन करके परब्रह्मको प्राप्त होगा।' उपवास, व्रत, स्नान, तीर्थ और तप- ये फलप्रद होते हैं, परंतु ये ब्राह्मण के द्वारा सम्पादित होनेपर सम्पन्न होते हैं और विहित फलकी प्राप्ति कराते हैं। 'प्रणव' परब्रह्म परमात्मा है, 'प्राणायाम' ही परम तप है और 'सावित्री' से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है। वह परम पावन माना गया है। पहले क्रमशः सोम, गन्धर्व और अग्नि- ये तीन देवता समस्त स्त्रियोंका उपभोग करते हैं। फिर मनुष्य उनका उपभोग करते हैं। इससे स्त्रियाँ किसीसे दूषित नहीं होती हैं। यदि असवर्ण पुरुष नारीकी योनिमें गर्भाधान करता है, तो जबतक नारी गर्भका प्रसव नहीं करती, तबतक अशुद्ध मानी जाती है। गर्भका प्रसव होनेके बाद रजोदर्शन होनेपर नारी | शुद्ध हो जाती है। श्रीहरिके ध्यानके समान पापियोंकी शुद्धि करनेवाला कोई प्रायश्चित्त नहीं है। चण्डालके यहाँ भोजन करके भी ध्यान करनेसे शुद्धि हो जाती है। जो ब्राह्मण ऐसी भावना करता है कि "आत्मा 'ध्याता' है, मन 'ध्यान' है, विष्णु 'ध्येय' हैं, श्रीहरि उससे प्राप्त होनेवाले 'फल' हैं और अक्षयत्वकी प्राप्तिके लिये उसका 'विसर्जन' है", वह श्राद्धमें पड्डि पावनोंको भी पवित्र करनेवाला है। जो द्विज नैष्ठिक धर्ममें आरूढ़ होकर उससे च्युत हो जाता है, उस आत्मघातीके लिये मैं ऐसा कोई प्रायश्चित्त नहीं देखता, जिससे कि वह शुद्ध हो सके। जो अपनी पत्नी और पुत्रोंका(असहायावस्थामें) परित्याग करके संन्यास ग्रहण करते हैं, वे दूसरे जन्ममें 'विदुर' संज्ञक चण्डाल होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तदनन्तर वह क्रमशः सौ वर्षतक गीध, बारह वर्षतक कुत्ता, बीस वर्षतक जलपक्षी और दस वर्षतक शूकरयोनिका भोग करता है। फिर वह पुष्प और फलोंसे रहित कँटीला वृक्ष होता है और दावाग्निसे दग्ध होकर अपना अनुगमन करनेवालोंके साथ ठूंठ होता है और इस अवस्थामें एक हजार वर्षतक चेतनारहित होकर पड़ा रहता है। एक हजार वर्ष बीतनेके बाद वह ब्रह्मराक्षस होता है। तदनन्तर योगरूपी नौकाका आश्रय लेनेसे अथवा कुलके उत्सादनद्वारा उसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। इसलिये योगका ही सेवन करे; क्योंकि पापोंसे छुटकारा दिलानेके लिये दूसरा कोई भी मार्ग नहीं है॥ १४-२८ ॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'विभिन्न धर्मोका वर्णन' नामक एक सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६५ ॥

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