अग्नि पुराण - एक सौ सड़सठवाँ अध्याय | Agni Purana - 167 Chapter

अग्नि पुराण - एक सौ सड़सठवाँ अध्याय | नीचे हिन्दी मे है

एक सौ सड़सठवाँ अध्याय ग्रहों के अयुत-लक्ष-कोटि हवनों का वर्णन !

अग्निरुवाच

श्रीशान्तिविजयाद्यर्थं ग्रहयज्ञं पुनर्वदे ।
ग्रहयज्ञोऽयुतहोमलक्षकोट्यात्मकस्त्रिधा ॥१६७.००१

वेदेरैशे ह्यग्निकुण्डाद्ग्रहानावाह्य मण्डले ।
सौम्ये गुरुर्बुधश्चैशे शुक्रः पूर्वदले शशी ॥१६७.००२

 Agni Purana - 167 Chapter 

आग्नेये दक्षिणे भौमो मध्ये स्याद्भास्करस्तथा ।
शनिराप्येऽथ नैर्ऋत्ये राहुः केतुश्च वायवे ॥१६७.००३

ईशश्चोमा गुहो विष्णुर्ब्रह्मेन्द्रौ यमकालकौ ।
चित्रगुप्तश्चाधिदेवा अग्निरापः क्षितिर्हरिः ॥१६७.००४

इन्द्र ऐन्द्री देवता च प्रजेशोऽहिर्विधिः क्रमात् ।
एते प्रत्यधिदेवाश्च गणेशो दुर्गयानिलः ॥१६७.००५

खमश्विनौ च सम्पूज्य यजेद्वीजैश्च वेदजैः ।
अर्कः पलाशः खदिरो ह्यपामार्गश्च पिप्पलः ॥१६७.००६

उदुम्बरः शमी दुर्वा कुशाश्च समिधः क्रमात् ।
मध्वाज्यदधिसंमिश्रा होतव्याश्चाष्टधा शतम् ॥१६७.००७

एकाष्टशतुरः कुम्भान् पूर्य पूर्णाहुतिन्तथा ।
[१]वसोर्धारान्ततो दद्याद्दक्षिणाञ्च ततो ददेत् ॥१६७.००८

यजमानं चतुर्भिस्तैरभिषिञ्चेत्समन्त्रकैः ।
सुरास्त्वामभिषिञ्चन्तु ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥१६७.००९

वासुदेवो जगन्नाथस्तथा सङ्कर्षणः प्रभुः ।
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च भवन्तु विजयाय ते ॥१६७.०१०

आखण्डलोऽग्निर्भगवान् यमो वै नैर्ऋतस्तथा ।
वरुणः पवनश्चैव धनाध्यक्षस्तथा शिवः ॥१६७.०११

ब्रह्मणा सहितः शेषो दिक्पालाः पान्तु वः सदा ।
कीर्तिर्लक्ष्मीर्धृतिर्मेधा पुष्टिः श्रद्धा क्रिया मतिः ॥१६७.०१२

बुद्धिर्लज्जा वपुः शान्तिस्तुष्टिः कान्तिश्च मातरः ।
एतास्त्वामभिषिञ्चन्तु धर्मपत्न्याः समागताः ॥१६७.०१३

आदित्यश्चन्द्रमा भौमो बुधजीवशितार्कजाः ।
ग्रहास्त्वामभिषिञ्चन्तु राहुः केतुश्च तर्पिताः ॥१६७.०१४

देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ।
ऋषयो मनवो गावो देवमातर एव च ॥१६७.०१५

देवपत्न्यो द्रुमा नागा दैत्याश्चाप्सरसाङ्गणाः ।
अस्त्राणि सर्वशास्त्राणि राजानो वाहनानि च ॥१६७.०१६

औषधानि च रत्नानि कालस्यावयवाश्च ये ।
सरितः सागराः शैलास्तीर्थानि जलदा नदाः ॥१६७.०१७

एते त्वामभिषिञ्चन्तु सर्वकामार्थसिद्धये ।
अलङ्कृतस्ततो दद्याद्धेमगोन्नभुवादिकं ॥१६७.०१८

कपिले सर्वदेवानां पूजनीयासि रोहिणि ।
तीर्थदेवमयी यस्मादतःशान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०१९

पुण्यस्त्वं शङ्ख पुण्यानां मङ्गलानाञ्च मङ्गलं ।
विष्णुना विधृतो नित्यमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०२०

धर्म त्वं वृषरूपेण जगदानन्दकारकः ।
अष्टमूर्तेरधिष्टानमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०२१

हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमवीजं विभावसोः ।
अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०२२

पीतवस्त्रयुगं यस्माद्वासुदेवस्य वल्लभं ।
प्रदानात्तस्य वै विष्णुरतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०२३

विष्णुस्त्वं मत्स्यरूपेण यस्मादमृतसम्भवः ।
चन्द्रार्कवाहनो नित्यमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०२४

यस्मात्त्वं पृथिवी सर्वा धेनुः केशवसन्निभा ।
सर्वपापहरा नित्यमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०२५

यस्मादायसकर्माणि तवाधीनानि सर्वदा ।
लाङ्गलाद्यायुधादीनि अतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०२६

यस्मात्त्वं स्सर्वयज्ञानामङ्गत्वेन व्यवस्थितः ।
योनिर्विभावसोर्नित्यमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥१६७.०२७

गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश ।
यस्मात्तस्माच्छिवं मे स्यादिह लोके परत्र च ॥१६७.०२८

यस्मादशून्यं शयनं केशवस्य शिवस्य च ।
शय्या ममाप्यशून्यास्तु दत्ता जन्मनि जन्मनि ॥१६७.०२९

यथा रत्नेषु सर्वेषु सर्वे देवाः प्रतिष्ठिताः ।
तथा शान्तिं प्रयच्छन्तु रत्नदानेन मे सुराः ॥१६७.०३०

यथा भूमिप्रदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीं ।
दानान्यन्यानि मे शान्तिर्भूमिदानाद्भवत्विह ॥१६७.०३१

ग्रहयज्ञोऽयुतहोमो दक्षिणाभी रणे जितिः ।
विवाहोत्सवयज्ञेषु प्रतिष्ठादिषु कर्मषु ॥१६७.०३२

सर्वकामाप्तये लक्षकोटिहोमद्वयं मतं ।
गृहदेशे मण्डपेऽथ अयुते हस्तमात्रकं ॥१६७.०३३

मेखलायोनिसंयुक्तं कुण्डञ्चत्वार ऋत्विजः ।
स्वयमेकोऽपि वा लक्षे सर्वं दशगुणं हि तत् ॥१६७.०३४

चतुर्हस्तं द्विहस्तं वा तार्क्षञ्चात्राधिकं यजेत् ।
सामध्वनिशीरस्त्वं वाहनं पमेष्ठिनः ॥१६७.०३५

विषयापहरो नित्यमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ।
पूर्ववत्कुण्डमामन्त्र्य लक्षहोमं समाचरेत् ॥१६७.०३६

वसोर्धारां ततो दद्याच्छय्याभूषादिकं ददेत् ।
तत्रापि दश चाष्टौ च लक्षहोमे तथर्त्विजः ॥१६७.०३७

पुत्रान्नराज्यविजयभुक्तिमुक्त्यादि चाप्नुयात् ।
दक्षिणाभिः फलेनास्माच्छत्रुघ्नः कोटिहोमकः ॥१६७.०३८

चतुर्हस्तं चाष्टहस्तं कुण्डन्द्वादश च द्विजाः ।
पञ्चविंशं षोडशं वा पटे द्वारे चतुष्टयं ॥१६७.०३९

कोटिहोमी सर्वकामी विष्णुलोकं स गच्छति ।
होमस्तु ग्रहमन्त्रैर्वा गायत्र्या वैष्णवैरपि ॥१६७.०४०

जातवेदोमुखैः शैवैः वैदिकैः प्रथितैरपि ।
तिलैर्यवैर्घृतैरश्वमेधफलादिभाक् ॥१६७.०४१

विद्वेषणाभिचारेषु त्रिकोणं कुण्ड मिष्यते ।१
समिधो वामहस्तेन श्येनास्थ्यनलसंयुताः ॥१६७.०४२

रक्तभूषैर्मुक्तकेशैर्ध्यायद्भिरशिवं रिपोः ।
दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु यो द्वेष्टि हुं फडिति च ॥१६७.०४३

छिन्द्यात्क्षुरेण प्रतिमां पिष्टरूपं रिपुं हनेत् ।
यजेदेकं पीडकं वा यः स कृत्वा दिवं व्रजेत् ॥१६७.०४४

इत्याग्नेये महपुराणेऽयुतलक्षकोटिहोमा नाम सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण एक सौ सड़सठवाँ अध्याय हिन्दी मे | Agni Purana - 167 Chapter In Hindi

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं शान्ति, समृद्धि एवं विजय आदिकी प्राप्तिके निमित्त ग्रहयज्ञ का पुनः वर्णन करता हूँ। ग्रहयज्ञ 'अयुतहोमात्मक', 'लक्षहोमात्मक' और 'कोटिहोमात्मक' के भेदसे तीन प्रकारका होता है। अग्निकुण्डसे ईशान कोण में निर्मित वेदिकापर मण्डल (अष्टदलपद्म) बनाकर उसमें ग्रहोंका आवाहन करे। उत्तर दिशामें गुरु, ईशानकोणमें बुध, पूर्वदलमें शुक्र, आग्नेयमें चन्द्रमा, दक्षिणमें भौम, मध्यभागमें सूर्य, पश्चिम में शनि, नैऋत्य में राहु और वायव्य में केतुको अङ्कित करे। शिव, पार्वती, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, यम, काल और चित्रगुप्त- ये 'अधिदेवता' कहे गये हैं। अग्नि, वरुण, भूमि, विष्णु, इन्द्र, शचीदेवी, प्रजापति, सर्प और ब्रह्मा- ये क्रमशः 'प्रत्यधिदेवता' हैं। गणेश, दुर्गा, वायु, आकाश तथा अश्विनीकुमार - ये 'कर्म-साद्‌गुण्य-देवता' हैं। इन सबका वैदिक बीज-मन्त्रोंसे यजन करे। आक, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूर्वा तथा कुशा ये क्रमशः नवग्रहोंकी समिधाएँ हैं। इनको मधु, घृत एवं दधिसे संयुक्त करके शतसंख्यामें आठ बार होम करना चाहिये। एक, आठ और चार कुम्भ पूर्ण करके पूर्णाहुति एवं वसुधारा दे। फिर ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे। यजमानका चार कलशोंके जलसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक अभिषेक करे। (अभिषेकके समय यों कहना चाहिये) 'ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर आदि देवता तुम्हारा अभिषेक करें। वासुदेव, जगनाथ, भगवान् संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध तुम्हें विजय प्रदान करें। देवराज इन्द्र, भगवान् अग्नि, यमराज, निर्ऋति, वरुण, पवन, धनाध्यक्ष कुबेर, शिव, ब्रह्मा, शेषनाग एवं समस्त दिक्पाल सदा तुम्हारी रक्षा करें। कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि श्रद्धा, क्रिया, मति, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, तुष्टि और कान्ति- ये लोक जननी धर्मकी पत्नियाँ तुम्हारा अभिषेक करें। आदित्य, चन्द्रमा, भौम, बुध, बृहस्पति, शुक्र, सूर्यपुत्र शनि, राहु तथा केतु- ये ग्रह परितृप्त होकर तुम्हारा अभिषेक करें। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, ऋषि, मनु, गौएँ, देवमाताएँ, देवाङ्गनाएँ, वृक्ष, नाग, दैत्य, अप्सराओंके समूह, अस्त्र शस्त्र, राजा, वाहन, ओषधियाँ, रत्न, काल विभाग, नदी-नद, समुद्र, पर्वत, तीर्थ और मेघ - ये सब सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओंकी सिद्धिके लिये तुम्हारा अभिषेक करें' ॥ १-१७॥
तदनन्तर यजमान अलंकृत होकर सुवर्ण, गौ, अन्न और भूमि आदिका निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे दान करे- 'कपिले रोहिणि! तुम समस्त देवताओंकी पूजनीया, तीर्थमयी तथा देवमयी हो; अतः मुझे शान्ति प्रदान करो। शङ्ख! तुम पुण्यमय पदार्थोंमें पुण्यस्वरूप हो, मङ्गलोंके भी मङ्गल हो, तुम सदा विष्णुके द्वारा धारण किये जाते हो, अतएव मुझे शान्ति दो। धर्म! आप वृषरूपसे स्थित होकर जगत्‌को आनन्द प्रदान करते हैं। आप अष्टमूर्ति शिवके अधिष्ठान हैं, अतः मुझे शान्ति दीजिये ॥ १८-२१ ॥
'सुवर्ण! हिरण्यगर्भके गर्भमें तुम्हारी स्थिति है। तुम अग्निदेवके वीर्यसे उत्पन्न तथा अनन्त पुण्यफल वितरण करनेवाले हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो। पीताम्बर-युगल भगवान् वासुदेवको अत्यन्त प्रिय है; अतः इसके प्रदानसे भगवान् श्रीहरि मुझे शान्ति दें। अश्व! तुम स्वरूपसे विष्णु हो; क्योंकि तुम अमृतके साथ उत्पन्न हुए हो। तुम सूर्य-चन्द्रका सदा संवहन करते हो; अतः मुझे शान्ति दो। पृथिवी! तुम समग्ररूपमें धेनुरूपिणी हो। तुम केशवके समान समस्त पापोंका सदा अपहरण करती हो। इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो'। लौह! हल और आयुध आदि कार्य सर्वदा तुम्हारे अधीन हैं, अतः मुझे शान्ति दो ॥ २२-२६॥
'छाग ! तुम यज्ञोंके अङ्गरूप होकर स्थित हो। तुम अग्निदेवके नित्य वाहन हो; अतएव मुझे  शान्तिसे संयुक्त करो। चौदहों भुवन गौओंके अङ्गोंमें अधिष्ठित हैं। इसलिये मेरा इहलोक और परलोकमें भी मङ्गल हो। जैसे केशव और शिवकी शय्या अशून्य है, उसी प्रकार शय्यादानके प्रभावसे जन्म-जन्ममें मेरी शय्या भी अशून्य रहे। जैसे सभी रत्नोंमें समस्त देवता प्रतिष्ठित हैं, उसी प्रकार वे देवता रत्नदानके उपलक्ष्यमें मुझे शान्ति प्रदान करें। अन्य दान भूमिदानकी सोलहवीं कलाके समान भी नहीं हैं, इसलिये भूमिदानके प्रभावसे मेरे पाप शान्त हो जायँ ॥ २७-३१॥
दक्षिणायुक्त अयुतहोमात्मक ग्रहयज्ञ युद्धमें विजय प्राप्त करानेवाला है। विवाह, उत्सव, यज्ञ, प्रतिष्ठादि कर्ममें इसका प्रयोग होता है। लक्षहोमात्मक और कोटिहोमात्मक - ये दोनों ग्रहयज्ञ सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाले हैं। अयुतहोमात्मक यज्ञके लिये गृहदेशमें यज्ञमण्डपका निर्माण करके उसमें हाथभर गहरा मेखलायोनियुक्त कुण्ड बनावे और चार ऋत्विजोंका वरण करे अथवा स्वयं अकेला सम्पूर्ण कार्य करे। लक्षहोमात्मक यज्ञमें पूर्वकी अपेक्षा सभी दसगुना होता है। इसमें चार हाथ या दो हाथ प्रमाणका कुण्ड बनाये। इसमें तायका पूजन विशेष होता है। (तार्थ्य-पूजनका मन्त्र यह है-) 'तार्थ्य! सामध्वनि तुम्हारा शरीर है। तुम श्रीहरिके वाहन हो। विष-रोगको सदा दूर करनेवाले हो। अतएव मुझे शान्ति प्रदान करो' ॥ ३२-३५ई ॥ 
तदनन्तर कलशों को पूर्ववत् अभिमन्त्रित कर के लक्ष होम का अनुष्ठान करे। फिर 'वसुधारा' देकर शय्या एवं आभूषण आदि का दान करे। लक्ष होम में दस या आठ ऋत्विज् होने चाहिये। दक्षिणा युक्त लक्ष होम से साधक पुत्र, अत्र, राज्य, विजय, भोग एवं मोक्ष आदि प्राप्त करता है। कोटि होमात्मक ग्रहयज्ञ पूर्वोक्त फलोंके अतिरिक्त शत्रुओं का विनाश करने वाला है। इसके लिये चार हाथ या आठ हाथ गहरा कुण्ड बनाये और बारह ऋत्विजों का वरण करे। पटपर पच्चीस या सोलह तथा द्वारपर चार कलशों की स्थापना करे। कोटि होम करने वाला सम्पूर्ण कामनाओंसे संयुक्त होकर विष्णु लोक को प्रास होता है। ग्रह-मन्त्र, वैष्णव मन्त्र, गायत्री मन्त्र, आग्नेय-मन्त्र, शैव मन्त्र एवं प्रसिद्ध वैदिक- मन्त्रोंसे हवन करे। तिल, यव, घृत और धान्य का हवन करने वाला अश्वमेधयज्ञ के फल को प्राप्त करता है। विद्वेषण आदि अभिचार-कर्मों में त्रिकोण कुण्ड विहित है। इनमें रक्तवस्त्रधारी और उन्मुक्तकेश मन्त्र साधक को शत्रु के विनाश का चिन्तन करते हुए, बाँयें हाथ से श्येन पक्षी की लक्ष अस्थियों से युक्त समिधाओं का हवन करना चाहिये। (हवन का ' मन्त्र इस प्रकार है-) दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु यो द्वेष्टि हुं फट् ।' फिर छुरेसे शत्रुकी प्रतिमा को काट डाले और पिष्टमय शत्रुका अग्नि में हवन करे। इस प्रकार जो अत्याचारी शत्रु के विनाश के लिये यज्ञ करता है, वह स्वर्गलोकको प्राप्त करता है ॥ ३६-४४ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'ग्रहोंके अयुत-लक्ष-कोटि हवनोंका वर्णन' नामक एक सौ सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६७॥

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