अग्नि पुराण - एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय | Agni Purana - 174 Chapter

अग्नि पुराण एक सौ चौहत्तरवाँअध्याय हिन्दी मे |

 एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय प्रायश्चित्तोंका वर्णन !

अग्निदेव कहते हैं- देव मन्दिर के पूजन आदि का लोप करने पर प्रायश्चित्त करना चाहिये। पूजा का लोप करने पर एक सौ आठ बार जप करे और दुगुनी पूजाकी व्यवस्था करके पञ्चोपनिषद् मन्त्रों से हवन कर ब्राह्मण-भोजन करावे। सूतिका स्त्री, अन्त्यज अथवा रजस्वला के द्वारा देवमूर्ति का स्पर्श होने पर सौ बार गायत्री जप करे। दुगुना स्नान करके पञ्चोपनिषद्-मन्त्रोंसे पूजन एवं ब्राह्मण-भोजन कराये। होम का नियम भङ्ग होनेपर होम, स्नान और पूजन करे। होम द्रव्यको चूहे आदि खा लें या वह कीटयुक्त हो जाय, तो उतना अंश छोड़कर तथा शेष द्रव्यका जलसे प्रोक्षण करके देवताओंका पूजन करे। भले ही अङ्कुरमात्र अर्पण करे, परंतु छिन्न-भिन्न द्रव्यका बहिष्कार कर दे। अस्पृश्य मनुष्यों का स्पर्श हो जानेपर पूजा-द्रव्यको दूसरे पात्रमें रख दे। पूजाके समय मन्त्र अथवा द्रव्यकी त्रुटि होने पर दैव एवं मानुष विघ्नोंका विनाश करने वाले गणपति के बीज-मन्त्रका जप करके पुनः पूजन करे। देव-मन्दिर का कलश नष्ट हो जानेपर सौ बार मन्त्र जप करे। देवमूर्तिके हाथ से गिरने एवं नष्ट हो जानेपर उपवासपूर्वक अग्नि में सौ आहुति याँ देने से शुभ होता है। जिस पुरुषके मनमें पाप करने पर पश्चात्ताप होता है, उसके लिये श्रीहरिका स्मरण ही परम प्रायश्चित्त है। चान्द्रायण, पराक एवं प्राजापत्य-व्रत पापसमूहोंका विनाश करने वाले हैं। सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णु के मन्त्रका जप भी पापों का प्रशमन करता है। गायत्री, प्रणव, पाप प्रणाशन स्तोत्र एवं मन्त्र का जप पापोंका अन्त करनेवाला है।

Agni Purana - 174 Chapter

सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णुके 'क' से प्रारम्भ होनेवाले, 'रा' बीजसे संयुक्त, रादि आदि और रान्त मन्त्र करोड़गुना फल देनेवाले हैं। इनके सिवा 'ॐ क्लीं' से प्रारम्भ होनेवाले चतुर्थ्यन्त एवं अन्तमें 'नमः' संयुक्त मन्त्र सम्पूर्ण कामना ओंको सिद्ध करनेवाले हैं। नृसिंह भगवान्‌के द्वादशाक्षर एवं अष्टाक्षर मन्त्रका जप पाप समूहों का विनाश करता है। अग्निपुराण का पठन एवं श्रवण करनेसे भी मनुष्य समस्त पाप समूहों से छूट जाता है। इस पुराणमें अग्निदेवका माहात्म्य भी वर्णित है। परमात्मा श्रीविष्णु ही मुखस्वरूप अग्निदेव हैं, जिनका सम्पूर्ण वेदोंमें गान किया गया है। भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले उन परमेश्वर का प्रवृत्ति और निवृत्ति-मार्गसे भी पूजन किया जाता है। अग्निरूपमें स्थित श्रीविष्णुके उद्देश्यसे हवन, जप, ध्यान, पूजन, स्तवन एवं नमस्कार शरीर- सम्बन्धी सभी पापों का विध्वंस करने वाला है। दस प्रकारके स्वर्णदान, बारह प्रकारके धान्यदान, तुलापुरुष आदि सोलह महादान एवं सर्वश्रेष्ठ अन्नदान - ये सब महापापों का अपहरण करनेवाले हैं। तिथि, वार, नक्षत्र, संक्रान्ति, योग, मन्वन्तरारम्भ आदिके समय सूर्य, शिव, शक्ति तथा विष्णु के उद्देश्य से किये जाने वाले व्रत आदि पापों का प्रशमन करते हैं। गङ्गा, गया, प्रयाग, अयोध्या, उज्जैन, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, नैमिषारण्य, पुरुषोत्तमक्षेत्र, शाल ग्राम, प्रभास क्षेत्र आदि तीर्थ पाप समूहों को विनष्ट करते हैं। 'मैं परम प्रकाशस्वरूप बल हूँ।'- इस प्रकार की धारणा भी पापों का विनाश करने वाली है। ब्रह्मपुराण, अग्नि पुराण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, भगवान्के अवतार, समस्त देवताओं की प्रतिमा प्रतिष्ठा एवं पूजन, ज्यौतिष, पुराण, स्मृतियाँ, तप, व्रत, अर्थशास्त्र, सृष्टिके आदितत्त्व, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिक्षा, छन्दः- शास्त्र, व्याकरण, निरुक्त, कोष, कल्प, न्याय, मीमांसा-शास्त्र एवं अन्य सब कुछ भी भगवान् श्रीविष्णु की विभूतियाँ हैं। वे श्रीहरि एक होते हुए भी सगुण निर्गुण दो रूपोंमें विभक्त एवं सम्पूर्ण संसार में संनिहित हैं। जो ऐसा जानता है, श्रीहरि-स्वरूप उन महापुरुषका दर्शन करने से दूसरोंके पाप विनष्ट हो जाते हैं। भगवान् श्रीहरि ही अष्टादश विद्यारूप, सूक्ष्म, स्थूल, सच्चित्- स्वरूप, अविनाशी परब्रह्म एवं निष्पाप विष्णु हैं॥ १-२४॥ 

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'प्रायश्चित्त-वर्णन' नामक एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७४ ॥

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[अग्नि पुराण अध्यायः १६४]    [अग्नि पुराण अध्यायः १६५]     [अग्नि पुराण अध्यायः १६६]

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