अग्नि पुराण - एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय | Agni Purana - 173 Chapter

अग्नि पुराण  एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे | 

 एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय अनेक विध प्रायश्चित्तों का वर्णन !

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं ब्रह्माके द्वारा वर्णित पापों का नाश करने वाले प्रायश्चित्त बतलाता हूँ। जिससे प्राणों का शरीरसे वियोग हो जाय, उस कार्यको 'हनन' कहते हैं। जो राग, द्वेष अथवा प्रमादवश दूसरेके द्वारा या स्वयं ब्राह्मण का वध करता है, वह 'ब्रह्मघाती' होता है। यदि एक कार्यमें तत्पर बहुत-से शस्त्रधारी मनुष्यों में कोई एक ब्राह्मण का वध करता है, तो वे सब-के-सब 'घातक' माने जाते हैं। ब्राह्मण किसी के द्वारा निन्दित होनेपर, मारा जानेपर या बन्धन से पीड़ित होनेपर जिसके उद्देश्य से प्राणों का परित्याग कर देता है, उसे 'ब्रह्महत्यारा' माना गया है। औषधोप चार आदि उपकार करनेपर किसी की मृत्यु हो जाय तो उसे पाप नहीं होता। पुत्र, शिष्य अथवा पत्नीको दण्ड देनेपर उनकी मृत्यु हो जाय, उस दशामें भी दोष नहीं होता। जिन पापोंसे मुक्त होनेका उपाय नहीं बतलाया गया है, देश, काल, अवस्था, शक्ति और पापका विचार करके यत्नपूर्वक प्रायश्चित्तकी व्यवस्था देनी चाहिये। गौ अथवा ब्राह्मण के लिये तत्काल अपने प्राणोंका परित्याग कर दे, अथवा अग्निमें अपने शरीरकी आहुति दे डाले तो मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। ब्रह्महत्यारा मृतक के सिरका कपाल और ध्वज लेकर भिक्षान्त्र का भोजन करता हुआ 'मैंने ब्राह्मणका वध किया है'- इस प्रकार अपने पापकर्मको प्रकाशित करे। वह बारह वर्षतक नियमित भोजन करके शुद्ध होता है। अथवा शुद्धिके लिये प्रयत्न करनेवाला ब्रह्मघाती मनुष्य छः वर्षोंमें ही पवित्र हो जाता है। अज्ञानवश पापकर्म करनेवालोंकी अपेक्षा जान-बूझकर पाप करनेवालेके लिये दुगुना प्रायश्चित्त विहित है। ब्राह्मणके वधमें प्रवृत्त होनेपर तीन वर्षतक प्रायश्चित्त करे। ब्रह्मघाती क्षत्रियको दुगुना तथा वैश्य एवं शूद्रको छःगुना प्रायश्चित्त करना चाहिये। अन्य पापोंका ब्राह्मणको सम्पूर्ण, क्षत्रियको तीन चरण, वैश्यको आधा और शूद्र, वृद्ध, स्त्री, बालक एवं रोगीको एक चरण प्रायश्चित्त करना चाहिये ॥ १-११ ॥

Agni Purana - 173 Chapter

क्षत्रियका वध करनेपर ब्रह्महत्याका एकपाद, वैश्यका वध करनेपर अष्टमांश और सदाचारपरायण शूद्रका वध करनेपर षोडशांश प्रायश्चित्त माना गया है। सदाचारिणी स्त्रीकी हत्या करके शूद्रहत्याका प्रायश्चित्त करे। गोहत्यारा संयतचित्त होकर एक मासतक गोशालामें शयन करे, गौओंका अनुगमन करे और पञ्चगव्य पीकर रहे। फिर गोदान करनेसे वह शुद्ध हो जाता है। 'कृच्छ्र' अथवा 'अतिकृच्छ्र' कोई भी व्रत हो, क्षत्रियोंको उसके तीन चरणोंका अनुष्ठान करना चाहिये। अत्यन्त बूढ़ी, अत्यन्त कृश, बहुत छोटी उम्रवाली अथवा रोगिणी स्त्रीकी हत्या करके द्विज पूर्वोक्त विधिके अनुसार ब्रह्महत्याका आधा प्रायश्चित्त करे। फिर ब्राह्मणोंको भोजन कराये और यथाशक्ति तिल एवं सुवर्णका दान करे। मुक्के या थप्पड़के प्रहारसे, सींग तोड़नेसे और लाठी आदिसे मारनेपर यदि गौ मर जाय तो उसे 'गोवध' कहा जाता है। मारने, बाँधने, गाड़ी आदिमें जोतने, रोकने अथवा रस्सीका फंदा लगानेसे गौकी मृत्यु हो जाय तो तीन चरण प्रायश्चित्त करे। काठसे गोवध करनेवाला 'सांतपनव्रत', ढेलेसे मारनेवाला 'प्राजापत्य', पत्थरसे हत्या करनेवाला 'तप्तकृच्छ्र' और शस्त्रसे वध करनेवाला 'अतिकृच्छ्र' करे। बिल्ली, गोह, नेवला, मेढक, कुत्ता अथवा पक्षीकी हत्या करके तीन दिन दूध पीकर रहे; अथवा 'प्राजापत्य' या 'चान्द्रायण' व्रत करे ॥ १२-१९ ॥
गुप्त पाप होनेपर गुप्त और प्रकट पाप होनेपर प्रकट प्रायश्चित्त करे। समस्त पापोंके विनाश के लिये सौ प्राणा याम करे। कटहल, द्राक्षा, महुआ, खजूर, ताड़, ईख और मुनक्केका रस तथा टंकमाध्वीक, मैरेय और नारियलका रस-ये मादक होते हुए भी मद्य नहीं हैं। पैटी ही मुख्य सुरा मानी गयी है। ये सब मदिराएँ द्विजोंके लिये निषिद्ध हैं। सुरापान करनेवाला खौलता हुआ जल पीकर शुद्ध होता है। अथवा सुरापान के पाप से मुक्त होने के लिये एक वर्ष तक जटा एवं ध्वजा धारण किये हुए वनमें निवास करे। नित्य रात्रिके समय एक बार चावलके कण या तिलकी खलीका भोजन करे। अज्ञानवश मल-मूत्र अथवा मदिरासे छूये हुए पदार्थका भक्षण करके ब्राह्मण,  क्षत्रिय और वैश्य-तीनों वर्षोंके लोग पुनः संस्कार के योग्य हो जाते हैं। सुरापात्रमें रखा हुआ जल पीकर सात दिन व्रत करे। चाण्डाल का जल पीकर छः दिन उपवास रखे तथा चाण्डालों के कूएँ अथवा पात्र का पानी पीकर 'सांतपन-व्रत' करे। अन्त्यज का जल पीकर द्विज तीन रात उपवास रखकर पञ्चगव्यका पान करे। नवीन जल या जलके साथ मत्स्य, कण्टक, शम्बूक, शङ्ख, सीप और कौड़ी पीनेपर पञ्चगव्यका आचमन करनेसे शुद्धि होती है। शवयुक्त कूपका जल पीनेपर मनुष्य 'त्रिरात्रव्रत' करनेसे शुद्ध होता है। चाण्डालका अन्न खाकर 'चान्द्रायणव्रत' करे। आपत्कालमें शूद्रके घर भोजन करनेपर पश्चात्तापसे शुद्धि हो जाती है। शूद्रके पात्रमें भोजन करनेवाला ब्राह्मण उपवास करके पञ्चगव्य पीनेसे शुद्ध होता है। कन्दुपक्व (भूजा), स्नेहपक्व (घी-तैलमें पके पदार्थ), घी-तैल, दही, सत्तू, गुड़, दूध और रस आदि-ये वस्तुएँ शूद्रके घरसे ली जानेपर भी निन्दित नहीं हैं। बिना स्नान किये भोजन करनेवाला एक दिन उपवास रखकर दिनभर जप करतेसे पवित्र होता है। मूत्र त्याग करके अशौचावस्थामें भोजन करनेपर 'त्रिरात्रव्रतसे' शुद्धि होती है। केश एवं कीटसे युक्त, जान-बूझकर पैरसे छूआ हुआ, भ्रूणघातीका देखा हुआ, रजस्वला स्त्रीका छूआ हुआ, कौए आदि पक्षियोंका जूठा किया हुआ, कुत्तेका स्पर्श किया हुआ अथवा गौका सूँघा हुआ अन्न खाकर तीन दिन उपवास करे। वीर्य, मल या मूत्रका भक्षण करनेपर 'प्राजापत्य-व्रत' करे। नवश्राद्धमें 'चान्द्रायण', मासिक श्राद्धमें 'पराकव्रत', त्रिपाक्षिक श्राद्धमें 'अतिकृच्छ', षाण्मासिक श्राद्धमें 'प्राजापत्य' और वार्षिक श्राद्धमें 'एकपाद प्राजापत्य-व्रत'करे। पहले और दूसरे दोनों दिन वार्षिक श्राद्ध हो तो दूसरे वार्षिक श्राद्धमें एक दिनका उपवास करे। निषिद्ध वस्तुका भक्षण करनेपर उपवास करके प्रायश्चित्त करे। भूतृण (छत्राक), लहसुन और शियुक् (श्वेत मरिच) खा लेनेपर 'एकपाद प्राजापत्य' करे। अभोज्यान, शूद्रका अन्न, स्त्री एवं शूद्रका उच्छिष्ट या अभक्ष्य मांसका भक्षण करके सात दिन केवल दूध पीकर रहे। जो ब्रह्मचारी, संन्यासी अथवा व्रतस्थ द्विज मधु, मांस या जननाशौच एवं मरणाशौचका अत्र भोजन कर लेता है, वह 'प्राजापत्य-कृच्छ्र' करे ॥ २०-३९ ॥ अन्यायपूर्वक दूसरेका धन हड़प लेनेको 'चोरी' कहते हैं। सुवर्णकी चोरी करनेवाला राजाके द्वारा मूसलसे मारे जानेपर शुद्ध होता है। सुवर्णकी चोरी करनेवाला, सुरापान करनेवाला, ब्रह्मघाती और गुरुपत्नीगामी बारह वर्षतक भूमिपर शयन और जटा धारण करे। वह एक समय केवल पत्ते और फल-मूलका भोजन करनेसे शुद्ध होता है। चोरी अथवा सुरापान करके एक वर्षतक 'प्राजापत्य-व्रत' करे। मणि, मोती, मूँगा, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा और पत्थरकी चोरी करनेवाला बारह दिन चावलके कण खाकर रहे। मनुष्य, स्त्री, क्षेत्र, गृह, बावली, कूप और तालाबका अपहरण करनेपर 'चान्द्रायण व्रत' से शुद्धि मानी गयी है। भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थ, सवारी, शय्या, आसन, पुष्प, मूल अथवा फलकी चोरी करनेवाला पञ्चगव्य पीकर शुद्ध होता है। तृण, काष्ठ, वृक्ष, सूखा अन्न, गुड़, वस्त्र, चर्म या मांस चुरानेवाला तीन दिन निराहार रहे। सौतेली माँ, बहन, गुरुपुत्री, गुरुपत्नी और अपनी पुत्रीसे समागम करने वाला 'गुरु पत्नी गामी' माना गया है। गुरु पत्नी गमन करने पर अपने पापकी घोषणा करके जलते हुए लोहे की शय्यापर तप्त-लौहमयी स्त्रीका आलिङ्गन करके प्राणत्याग करनेसे शुद्ध होता है। अथवा गुरुपत्नीगामी तीन मासतक 'चान्द्रायण व्रत' करे। पतित स्त्रियोंके लिये भी इसी प्रायश्चित्तका विधान करे। पुरुष को परस्त्री गमन करेन पर जो प्रायश्चित्त बतलाया गया है, वही उनसे करावे। कुमारी कन्या, चाण्डाली, पुत्री और अपने सपिण्ड तथा पुत्रकी पत्नी में वीर्य सेचन करने वाले को प्राणत्याग कर देना चाहिये। द्विज एक रात शूद्राका सेवन करके जो पाप ! संचित करता है, वह तीन वर्षतक नित्य गायत्री- जप एवं भिक्षान्नका भोजन करनेसे नष्ट होता है। चाची, भाभी, चाण्डाली, पुक्कसी, पुत्रवधू, बहन, सखी, मौसी, बुआ, निक्षिप्ता (धरोहरके रूपमें रखी हुई), शरणा गता, मामी, सगोत्रा बहिन, दूसरेको चाहनेवाली स्त्री, शिष्यपत्नी अथवा गुरुपत्नीसे गमन करके, 'चान्द्रायण-व्रत' करे ॥ ४०-५४॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अनेकविध प्रायश्चित्तोंका वर्णन' नामक एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७३ ॥

टिप्पणियाँ