अग्नि पुराण तीन सौ चौवनवाँ अध्याय - Agni Purana 354 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ चौवनवाँ अध्याय - कारकम्
स्कन्द उवाच
कारकं सम्प्रवक्ष्यामि विभक्त्यर्थसमन्वितं ।
ग्रामोऽस्ति हेमहार्केह नौमि विष्णुं श्रिया सह ।। १ ।।
स्वतन्त्रः कर्त्ता विद्यान्तं कृतिनः समुपासते ।
हेतुकर्त्तालम्भयते हितं वै कर्म्मकर्त्तरि ।। २ ।।
स्वयं भिद्येत् प्राकृतधीः स्वयञ्च छिद्यते तरुः ।
सर्त्ताऽभिहित उत्तमः कर्त्ताऽनभिहितोऽधमः ।। ३ ।।
कर्त्ताऽनभिहितो धर्म्मः शिष्ये व्याख्यायते यथा ।
कर्त्ता पञ्चविधः प्रोक्तः कर्म्म सप्तविधं श्रुणु ।। ४ ।।
ईप्सितं कर्म्म च यथा श्रद्दधाति द्दरि यतिः ।
अनीप्सितं कर्म्म यथा अहिं लङ्घयते भृशं ।। ५ ।।
नैवेप्सितं नानीप्सितं दुग्धं सम्भक्षयन्रजः ।
भक्ष्येदप्यकथितं गोपालो दोग्धि गां पयः ।। ६ ।।
कर्त्तृ कर्माऽथ गमयेच्छिष्यं ग्रामं गुरुर्यथा ।
कर्म्म चाभिहितं पूजा क्रियते वै श्रिये हरेः ।। ७ ।।
कर्म्मानभिहितं स्तोत्रं हरेः कुर्य्यात्तु सर्व्वदं ।
करणं द्विविधं प्रोक्तं वाह्यमाभ्यन्तरं तथा ।। ८ ।।
चक्षुषा रूपं गृह्णाति वाह्यं दात्रेण तल्लुनेत् ।
सम्प्रदानं त्रिधा प्रोक्तं प्रेरकं ब्राह्मणाय गां ।। ९ ।।
नरो ददाति नृपतये दासन्तदनुमन्तृकं ।
अनिराकर्त्तृकं भर्त्रे दद्यात् पुष्पाणि सज्जनः ।। १० ।।
अपादानं द्विधा प्रोक्तं चलमश्वात्तु धावतः ।
पतितश्चाचलं ग्रामादागच्छति स वैष्णवः ।। ११ ।।
चतुर्द्धा चाधिकरणं व्यापकन्दध्नि वै घृतम् ।
तिलेषु तैलं देवार्थमौपश्लेषिकमुच्यते ।। १२ ।।
गृहे तिष्ठेत् कपिर्वृक्षे स्मृतं वैषयिकं यथा ।
जले मत्स्यो वने सिंहः स्मृतं सामीप्यकं यथा ।। १३ ।।
गङ्गायां घोषो वसति औपचारिकमीदृशं ।
तृतीया वाथ वा षष्ठी स्मृताऽनभिहिते तथा ।। १४ ।।
विष्णुः सम्पूज्यते लोकैर्गन्तव्यन्तेन तस्य वा ।
प्रथमाऽभिहितकर्त्तृ कर्म्मणोः प्रणमेद्धरिम् ।। १५ ।।
हेतौ तृतीया चान्नेन वसेद् वृक्षाय वै जलं ।
चतुर्थी तादर्थ्येऽभिहिता पञ्चमी पर्य्युपाङ्मुखैः ।। १६ ।।
योगे वृष्टः परि ग्रामाद्देवोऽयं बलवत् पुरा ।
पूर्व्वो ग्रामादृते विष्णोर्न मुक्तिरितरो हरेः ।। १७ ।।
पृथग्विनाद्यैस्तृतीया पञ्चमी च तथा भवेत् ।
पृथग्ग्रामाद्विहारेण विना श्रिश्च श्रीया श्रइयः ।। १८ ।।
कर्म्मप्रवचनीयाख्यैर्द्वितीया योगतो भवेत् ।
अन्वर्ज्जुनञ्च योद्धारो ह्यभितो ग्राममीरितं ।। १९ ।।
नमः स्वाहास्वधास्वस्तिवषडाद्यैश्चतुर्थ्यपि ।
नमो देवाय ते स्वस्ति तुमर्थाद्भाववाचिनः ।। २० ।।
पाकाय पक्तये याति तृतीया सहयोगके ।
हेत्वर्थे कुत्सितेऽङ्गे सा तृतीया च विशेषणे ।। २१ ।।
पिताऽगात्सह पुत्रेण काणोऽक्ष्णा गदया हरिः ।
अर्थेन निवसेकद्भृत्यः काले भावे च सप्तमी ।। २२ ।।
विष्णौ नते भवेन्मुक्तिर्वसन्ते स गतो हरिम् ।
नृणां स्वामी नृषु स्वामी नृणामीशः सताम्पतिः ।। २३ ।।
नृणां साक्षी नृषु साक्षी गोषु नाथो गवाम्पतिः ।
गोषु सूतो गवां सूतो राज्ञां दायादकोऽस्विह ।। २४ ।।
अन्नस्य१ हेतोर्वसति षष्ठी स्मृत्यर्थकर्मणि ।
मातुः स्मरति गोप्तारं नित्यं स्यात् कर्तृकर्मणोः ।।
अपां भेत्ता तव कृतिर्न निष्ठादिषु षष्ठ्यपि ।। २५ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये व्याकरणे कारकं नाम चतुःफञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ चौवनवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 354 Chapter In Hindi
तीन सौ चौवनवाँ अध्याय कारक प्रकरण
भगवान् स्कन्द कहते हैं- अब मैं विभक्त्यथर्थोंसे युक्त 'कारक'का वर्णन करूँगा। 'ग्रामोऽस्ति' (ग्राम है)- यहाँ प्रातिपदिकार्थमात्र में प्रथमा विभक्ति हुई है। विभक्त्यर्थ में प्रथमा होनेका विधान पहले कहा जा चुका है। 'हे महार्क'- इस वाक्य में जो 'महार्क' शब्द है, उस में सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति हुई है। सम्बोधन में प्रथमा का विधान पहले आ चुका है। 'इह नौमि विष्णुं श्रिया सह।' (मैं यहाँ लक्ष्मी सहित भगवान् विष्णु का स्तवन करता हूँ।)- इस वाक्य में 'विष्णु' शब्दकी कर्म- संज्ञा हुई है। और 'द्वितीया कर्मणि स्मृता' - इस पूर्वकथित नियमके अनुसार कर्ममें द्वितीया हुई है। 'श्रिया सह' यहाँ' श्री' शब्दमें 'सह 'का योग होनेसे तृतीया हुई है। सहार्थक और सदृशार्थक शब्दोंका योग होनेपर तृतीया विभक्ति होती है, यह सर्वसम्मत मत है।
क्रियामें जिसकी स्वतन्त्रता विवक्षित हो, वह 'कर्ता' या 'स्वतन्त्र कर्ता' कहलाता है। जो उसका प्रयोजक हो, वह 'प्रयोजक कर्ता' और 'हेतुकर्ता' भी कहलाता है। जहाँ कर्म ही कर्ताक रूपमें विवक्षित हो, वह कर्मकर्ता' कहलाता है। इनके सिवा 'अभिहित' और 'अनभिहित'- ये दो कर्ता और होते हैं। 'अभिहित' उत्तम और 'अनभिहित' अधम माना गया है। स्वतन्त्रकर्ताका उदाहरण 'कृतिनः तां विद्यां समुपासते।' (विद्वान् पुरुष उस विद्याकी उपासना करते हैं) यहाँ विद्याकी उपासनामें विद्वानोंकी स्वतन्त्रता विवक्षित है, इसलिये वे 'स्वतन्त्रकर्ता' हैं। हेतुकर्ताका उदाहरण 'चैत्रो मैत्रं हितं लम्भयते।' (चैत्र मैत्रको हितकी प्राप्ति कराता है।) 'मैत्रो हितं लभते तं चैत्रः प्रेरयति इति चैत्रो मैत्रं हितं लम्भयते।' (मैत्र हितको प्राप्त करता है और चैत्र उसे प्रेरणा देता है। अतः यह कहा जाता है कि 'चैत्र मैत्रको हितकी प्राप्ति कराता है'- यहाँ 'चैत्र' प्रयोजककर्ता या हेतुकर्ता है। कर्मकर्ताका उदाहरण 'प्राकृतधीः स्वयं भिद्यते।' (गँवार बुद्धिवाला मनुष्य स्वयं ही फूट जाता है।), 'तरुः स्वयं छिद्यते।' (वृक्ष स्वयं कट जाता है)।
यहाँ फोड़नेवाले और काटनेवाले कर्ताओंके व्यापारको विवक्षाका विषय नहीं बनाया गया। जहाँ कार्यके अतिशय सौकर्यको प्रकट करनेके लिये कर्तृव्यापार अविवक्षित हो, वहाँ कर्म आदि अन्य कारक भी कर्ता-जैसे हो जाते हैं और तदनुसार ही क्रिया होती है। इस दृष्टिसे यहाँ 'प्राकृतधीः' और 'तरुः' पद कर्मकतकि रूपमें प्रयुक्त हैं। अभिहित कर्ताका उदाहरण- 'रामो गच्छति।' (राम जाता है।) यहाँ 'कर्ता' अर्थमें तिङन्तका प्रयोग है, इसलिये कर्ता उक्त हुआ। जहाँ कर्ममें प्रत्यय हो, वहाँ 'कर्म' उक्त और 'कर्ता' अनुक्त या अनभिहित हो जाता है। अनभिहित कर्ताका उदाहरण 'गुरुणा शिष्ये धर्मः व्याख्यायते।' (गुरुद्वारा शिष्यके निमित्त धर्मकी व्याख्या की जाती है।) यहाँ कर्ममें प्रत्यय होनेसे 'धर्म' की जगह 'धर्मः' हो गया; क्योंकि उक्त कर्ममें प्रथमा विभक्ति होनेका नियम है। अनभिहित कर्तामें पहले कथित नियमके अनुसार तृतीया विभक्ति होती है, इसीलिये 'गुरुणा' पदमें तृतीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है। इस तरह पाँच प्रकारके 'कर्ता' बताये गये। अब सात प्रकारके कर्मका वर्णन सुनो ॥ १-४॥
१-ईप्सितकर्म, २-अनीप्सितकर्म, ३- ईप्सितानीप्सित-कर्म, ४-अकथितकर्म, ५-कर्तृकर्म, ६-अभिहितकर्म तथा ७-अनभिहितकर्म। ईप्सितकर्मका उदाहरण 'यतिः हरि श्रद्दधाति ।' (विरक्त साधु या संन्यासी हरिमें श्रद्धा रखता है।) यहाँ कर्ता यतिको हरि अभीष्ट हैं, इसलिये वे 'ईप्सितकर्म' हैं। अतएव हरिमें द्वितीया विभक्तिका प्रयोग हुआ है। अनीप्सितकर्मकका उदाहरण - 'अहिं लङ्घयते भृशम्।' (उससे सर्पको बहुधा लँघवाता है।) यहाँ 'अहि' यह 'अनीप्सितकर्म' है। लाँघनेवाला सर्पको लाँघना नहीं चाहता। वह किसीके हठ या प्रेरणासे सर्पलङ्घनमें प्रवृत्त होता है। ईप्सितानीप्सितकर्मका उदाहरण- 'दुग्धं संभक्षयव्रजः भक्षयेत्।' (मनुष्य दूध पीता हुआ धूल भी पी जाता है।) यहाँ दुग्ध 'ईप्सितकर्म' है और धूल 'अनीप्सितकर्म'। अकथितकर्म - जहाँ अपादान आदि विशेष नामोंसे कारकको व्यक्त करना अभीष्ट न हो, वहाँ वह कारक 'कर्मसंज्ञक' हो जाता है।
यथा गोपालः गां पयः दोग्धि। (ग्वाला गायसे दूध दुहता है।) यहाँ 'गाय' अपादान है, तथापि अपादानके रूपमें कथित न होनेसे अकथित हो गया और उसमें पञ्चमी विभक्ति न होकर द्वितीया विभक्ति हुई। कर्तृकर्म-जहाँ प्रयोजक कर्ताका प्रयोग होता है, वहाँ प्रयोज्य कर्ता कर्मके रूपमें परिणत हो जाता है। यथा 'गुरुः शिष्यं ग्रामं गमयेत्।' (गुरु शिष्यको गाँव भेजें।) 'शिष्यो ग्रामं गच्छेत् तं गुरुः प्रेरयेत् इति गुरुः शिष्यं ग्रामं गमयेत्।' (शिष्य गाँवको जाय, इसके लिये गुरु उसे प्रेरित करे, इस अर्थमें गुरु शिष्यको गाँव भेजें, यह वाक्य है।) यहाँ गुरु 'प्रयोजक कर्ता' है, और शिष्य प्रयोज्य कर्ता या 'कर्मभूत कर्ता' है। अभिहितकर्म- 'श्रियै हरेः पूजा क्रियते।' (लक्ष्मीकी प्राप्तिके लिये श्रीहरिकी पूजा की जाती है।) यहाँ कर्ममें प्रत्यय होनेसे पूजा 'उक्त कर्म' है, इसीको 'अभिहितकर्म' कहते हैं, अतएव इसमें प्रथमा विभक्ति हुई। अनभिहित कर्म जहाँ कर्तामें प्रत्यय होता है, वहाँ कर्म अनभिहित हो जाता है, अतएव उसमें द्वितीया विभक्ति होती है। उदाहरणके लिये यह वाक्य है- 'हरेः सर्वदं स्तोत्रं कुर्यात्' (श्रीहरिकी सर्वमनोरथदायिनी स्तुति करे।) करण दो प्रकारका बताया गया है- 'बाह्य' और 'आभ्यन्तर'। 'तृतीया करणे भवेत्।'- इस पूर्वोक्त नियमके अनुसार करणमें तृतीया होती है।
आभ्यन्तर करणका उदाहरण देते हैं- 'चक्षुषा रूपं गृह्णाति।' (नेत्रसे रूपको ग्रहण करता है।) यहाँ नेत्र 'आभ्यन्तर करण' हैं, अतः इसमें तृतीया विभक्ति हुई। 'बाह्य करण'का उदाहरण है- 'दात्रेण तल्लुनेत्।' (हँसुआसे उसको काटे।) यहाँ दात्र 'बाह्य करण' है। अतः उसमें तृतीया हुई है। सम्प्रदान तीन प्रकारका बताया गया है-प्रेरक, अनुमन्तृक और अनिराकर्तृक। जो दानके लिये प्रेरित करता हो, वह 'प्रेरक' है। जो प्राप्त हुई किसी वस्तुके लिये अनुमति या अनुमोदनमात्र करता है, वह 'अनुमन्तृक' है। जो न 'प्रेरक' है, न 'अनुमन्तृक' है, अपितु किसीकी दी हुई वस्तुको स्वीकार कर लेता है, उसका निराकरण नहीं करता, वह 'अनिराकर्तृक सम्प्रदान' है। 'सम्प्रदाने चतुर्थी।' इस पूर्वोक्त नियमके अनुसार सम्प्रदानमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
तीनों सम्प्रदानोंके क्रमशः उदाहरण दिये जाते हैं-१-'नरो ब्राह्मणाय गां ददाति।' (मनुष्य ब्राह्मणको गाय देता है।) यहाँ ब्राह्मण 'प्रेरक सम्प्रदान' होने के कारण उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई है। ब्राह्मणलोग प्रायः यजमानको गोदान के लिये प्रेरित करते रहते हैं, अतः उन्हें 'प्रेरक सम्प्रदान' की संज्ञा दी गयी है। २-'नरो नृपतये दास ददाति।' (मनुष्य राजाको दास अर्पित करता है।) यहाँ राजाने दास अर्पणके लिये कोई प्रेरणा नहीं दी है। केवल प्राप्त हुए दासको ग्रहण करके उसका अनुमोदनमात्र किया है, इसलिये वह 'अनुमन्तृक सम्प्रदान' है; अतएव 'नृपतये' में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। ३-'सज्जनः भत्रै पुष्पाणि दद्यात्।' (सज्जन पुरुष स्वामीको पुष्प दे) यहाँ स्वामीने पुष्पदानकी मनाही न करके उसको अङ्गीकारमात्र कर लिया है, इसलिये 'भर्तृ' शब्द 'अनिराकर्तृक सम्प्रदान' है। सम्प्रदान होनेके कारण ही उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई है। अपादान दो प्रकारका होता है-'चल' और 'अचल'। कोई भी अपादान क्यों न हो, 'अपादाने पञ्चमी स्यात्।' - इस पूर्वकथित नियमके अनुसार उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। 'धावतः अश्वात् पतितः।' (दौड़ते हुए घोड़ेसे गिरा) - यहाँ दौड़ता हुआ घोड़ा 'चल अपादान' है। अतः 'धावतः अश्वात्' में पञ्चमी विभक्ति हुई है। 'स वैष्णवः ग्रामादायाति।' (वह वैष्णव गाँवसे आता है) यहाँ ग्राम शब्द 'अचल अपादान' है, अतः उसमें पञ्चमी विभक्ति हुई है॥५-११॥
अधिकरण चार प्रकारके होते हैं- अभिव्यापक, औपश्लेषिक, वैषयिक और सामीप्यक। जो तत्त्व किसी वस्तुमें व्यापक हो, वह आधारभूत वस्तु अभिव्यापक 'अधिकरण' है। यथा- 'दध्नि घृतम्।' (दहीमें भी है)। 'तिलेषु तैलं देवार्थम्।' (तिलमें तेल है, जो देवताके उपयोगमें आता है।) यहाँ भी दहीमें और तैल तिलमें व्याप्त है। अतः इनके आधारभूत दही और तिल अभिव्यापक अधिकरण हैं।' आधारो योऽधिकरणं विभक्तिस्तत्र सप्तमी।' इस पूर्वोक्त नियमके अनुसार अधिकरणमें सप्तमी विभक्ति होती है। प्रस्तुत उदाहरणमें 'दध्नि' और 'तिलेषु' इन पदोंमें इसी नियमसे सप्तमी विभक्ति हुई है। अब 'औपश्लेषिक अधिकरण' बताया जाता है- 'कपिगृहे तिष्ठेद् वृक्षे च तिष्ठेत्।' (बंदर घरके ऊपर स्थित होता है और वृक्षपर भी स्थित होता है।) कपिके आधारभूत जो गृह और वृक्ष हैं, उनपर वह सटकर बैठता है। इसीलिये वह 'औपश्लेषिक अधिकरण' माना गया है।
अधिकरण होनेसे ही 'गृहे' और 'वृक्षे' इन पदोंमें सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। अब 'वैषयिक अधिकरण' बताते हैं-विषयभूत अधिकरणको 'वैषयिक' कहते है। यथा- 'जले मत्स्यः ।', 'वने सिंहः।' (जलमें मछली, वनमें सिंह।) यहाँ जल और वन 'विषय' हैं और मत्स्य तथा सिंह 'विषयी'। अतः विषयभूत अधिकरणमें सप्तमी विभक्ति हुई। अब 'सामीप्यक अधिकरण' बताते हैं- 'गङ्गायां घोषो वसति।' (गङ्गामें गोशाला बसती है।) यहाँ 'गङ्गा' का अर्थ है- गङ्गाके समीप। अतः 'सामीप्यक अधिकरण' होनेके कारण गङ्गामें सप्तमी विभक्ति हुई। ऐसे वाक्य 'औपचारिक' माने जाते हैं। जहाँ मुख्यार्थ बाधित होनेसे उसके सम्बन्धसे युक्त अर्थान्तरकी प्रतीति होती है, वहाँ 'लक्षणा' होती है। 'गौर्वाहिकः' इत्यादि स्थलोंमें 'गो' शब्दका मुख्यार्थ बाधित होता है, अतः वह स्वसदृशको लक्षित कराता है। इस तरहके वाक्यप्रयोगको 'औपचारिक' कहते हैं।' अनभिहित कर्ता' में तृतीया अथवा षष्ठी विभक्ति होती है। यथा- 'विष्णुः सम्पूज्यते लोकैः।' (लोगोंद्वारा विष्णु पूजे जाते हैं।) यहाँ कर्ममें प्रत्यय हुआ है।
अतः कर्म उक्त है और कर्ता अनुक्त। इसलिये अनुक्त कर्ता 'लोक' शब्दमें तृतीया विभक्ति हुई है। 'तेन गन्तव्यम्, तस्य गन्तव्यम्' (उसको जाना चाहिये) यहाँ उपर्युक्त नियमके अनुसार तृतीया और षष्ठी दोनोंका प्रयोग हुआ है। षष्ठीका प्रयोग कृदन्तके योगमें ही होता है। अभिहित कर्ता और कर्ममें प्रथमा विभक्ति होती है। इसीलिये 'विष्णुः' में प्रथमा विभक्ति हुई है। 'भक्तः हरिं प्रणमेत्।' (भक्त भगवान्को प्रणाम करे।) यहाँ अभिहित कर्ता 'भक्त' में प्रथमा विभक्ति हुई हैं और अनुक्त कर्म 'हरि' में द्वितीया विभक्ति। 'हेतु' में तृतीया विभक्ति होती है। यथा' अन्नेन वसेत्।' (अन्नके हेतु कहीं भी निवास करे।) यहाँ हेतुभूत अन्नमें तृतीया विभक्ति हुई है। 'तादर्थ्य' में चतुर्थी विभक्ति कही गयी है। यथा- 'वृक्षाय जलम्' 'वृक्षके लिये पानी।' यहाँ 'वृक्ष' शब्दमें 'तादयंप्रयुक्त' चतुर्थी विभक्ति हुई है। परि, उप, आङ् आदिके योगमें पञ्चमी विभक्ति होती है। यथा- 'परि ग्रामात् पुरा बलवत् वृष्टोऽयं देवः।' (गाँवसे कुछ दूर हटकर दैवने पूर्वकालमें बड़े जोरकी वर्षा की थी।) - इस वाक्यमें 'परि' के साथ योग होनेके कारण 'ग्राम' शब्दमें पञ्चमी विभक्ति हुई है। दिग्वाचक शब्द, अन्यार्थक शब्द तथा 'ऋते' आदि शब्दोंके योगमें भी पञ्चमी विभक्ति होती है। यथा-'पूर्वो ग्रामात्। ऋते विष्णोः। न मुक्तिः इतरा हरेः।' 'पृथक्' और 'विना' आदिके योगमें तृतीया एवं पञ्चमी विभक्ति होती है-जैसे 'पृथग् ग्रामात्।' यहाँ 'पृथक्' शब्दके योगमें 'ग्राम' शब्दसे पञ्चमी और 'पृथग् विहारेण'- यहाँ 'पृथक्' शब्दके योगमें 'विहार' शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई।
इसी प्रकार 'विना' शब्दके योगमें भी जानना चाहिये। 'विना श्रिया' यहाँ 'विना' के योगमें' श्री 'शब्दसे द्वितीया, 'विना श्रिया'- यहाँ 'विना 'के योगमें 'श्री 'शब्दसे तृतीया और 'विना श्रियः' - यहाँ 'विना के योगमें 'श्री' शब्दसे पञ्चमी विभक्ति हुई है। कर्मप्रवचनीयसंज्ञक शब्दोंके योगमें द्वितीया विभक्ति होती है-जैसे 'अन्वर्जुनं योद्धारः योद्धा अर्जुनके संनिकट प्रदेशमें हैं।'- यहाँ' अनु' कर्मप्रवचनीय-संज्ञक है- इसके योगमें 'अर्जुन' शब्दमें द्वितीया विभक्ति हुई। इसी प्रकार अभितः, परितः आदिके योगमें भी द्वितीया होती है। यथा 'अभितो ग्राममीरितम्।'- गाँवके सब तरफ कह दिया है।' यहाँ 'अभितः' शब्दके योगमें 'ग्राम' शब्दमें द्वितीया विभक्ति हुई है। नमः स्वाहा, स्वधा, स्वस्ति एवं वषट् आदि शब्दोंके योगमें चतुर्थी विभक्ति होती है-जैसे 'नमो' देवाय (देवको नमस्कार है) यहाँ 'नमः' के योगमें 'देव' शब्दमें चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। इसी प्रकार 'ते स्वस्ति'- तुम्हारा कल्याण हो यहाँ 'स्वस्ति' के योगमें 'युष्मद्' शब्दसे चतुर्थी विभक्ति हुई ('युष्मद्' शब्दको चतुर्थकि एकवचनमें वैकल्पिक 'ते' आदेश हुआ है)। तुमुन्प्रत्ययार्थक भाववाची शब्दसे चतुर्थी विभक्ति होती है जैसे 'पाकाय याति' और 'पक्तये याति'- पकानेके लिये जाता है।' यहाँ 'पाक' और 'पक्ति' शब्द 'तुमर्थक भाववाची' हैं। इन दोनोंसे चतुर्थी विभक्ति हुई। 'सहार्थ' शब्दके योगमें हेतु-अर्थ और कुत्सित अङ्गवाचकमें तृतीया विभक्ति होती है। सहार्थयोगमें तृतीया विशेषणवाचकसे होती है। जैसे 'पिताऽगात् सह पुत्रेण'- पिता पुत्रके साथ चले गये।' यहाँ 'सह' शब्दके योगमें विशेषणवाचक 'पुत्र' शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई। इसी प्रकार 'गदया हरिः' (भगवान् हरि गदाके सहित रहते हैं) यहाँ 'सहार्थक' शब्दके न रहनेपर भी सहार्थ है, इसलिये विशेषणवाचक 'गदा' शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई। 'अक्ष्णा काणः- आँखसे काना है।'- यहाँ कुत्सितअङ्गवाचक 'अक्षि' शब्द है। उससे तृतीया विभक्ति हुई। 'अर्थेन निवसेद् भृत्यः।''
भृत्य धनके कारणसे रहता है।'- यहाँ हेतु अर्थ है 'धन'। तद्वाचक 'अर्थ' शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई। कालवाचक और भाव अर्थमें सप्तमी विभक्ति होती है। अर्थात् जिसकी क्रियासे अन्य क्रिया लक्षित होती है, तद्वाचक शब्दसे सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे- 'विष्णौ नते भवेन्मुक्तिः - भगवान् विष्णुको नमस्कार करनेपर मुक्ति मिलती है। यहाँ श्रीविष्णुकी नमस्कार-क्रियासे मुक्ति-भवनरूपा क्रिया लक्षित होती है, अतः 'विष्णु' शब्दसे सप्तमी विभक्ति हुई। इसी प्रकार 'वसन्ते स गतो हरिम्'- वह वसन्त ऋतुमें हरिके पास गया।' यहाँ 'वसन्त' कालवाचक है, उससे सप्तमी हुई। (स्वामी, ईश, पति, साक्षी, सूत और दायाद आदि शब्दोंके योगमें षष्ठी एवं सप्तमी विभक्तियाँ होती हैं-) जैसे- 'नृणां स्वामी, नृषु स्वामी'- मनुष्योंका स्वामी, यहाँ 'स्वामी' शब्दके योगमें 'नृ' शब्दसे षष्ठी एवं सप्तमी विभक्तियाँ हुई। इसी प्रकार 'नृणामीशः' नरोंके ईश' यहाँ 'ईश' शब्दके योगमें 'नृ' शब्दसे, तथा 'सतां पतिः' - सज्जनोंका पति यहाँ 'सत्' शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई। ऐसे हो 'नृणां साक्षी, नृषु साक्षी- मनुष्योंका साक्षी'- यहाँ 'नृ' शब्दसे षष्ठी एवं सप्तमी विभक्तियाँ हुईं। 'गोषु नाधो गवां पतिः- गौओंका स्वामी है, यहाँ 'नाथ' और 'पति' शब्दोंक योगमें 'गो' शब्दसे षष्ठी और सप्तमी विभक्तियाँ हुई। 'गोषु सूतो गवां सूतः- गौओंमें उत्पन्न है'- यहाँ 'सूत' शब्दके योगमें 'गो' शब्दसे षष्ठी एवं ससमी विभक्ति हुई। 'इह राज्ञां दायादकोऽस्तु।'- यहाँ राजाओंका दायाद हो। यहाँ 'दायाद' शब्दके योगमें 'राजन्' शब्दमें षष्ठी विभक्ति हुई है।
हेतुवाचकसे 'हेतु' शब्दके प्रयोग होनेपर षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे 'अन्नस्य हेतोर्वसति - अनके कारण वास करता है।' यहाँ 'वास' में अन्न 'हेतु' है, तद्वाचक 'हेतु' शब्दका भी प्रयोग हुआ है, अतः 'अन्न' शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई। स्मरणार्थक धातुके प्रयोगमें उसके कर्ममें षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे 'मातुः स्मरति। माताको स्मरण करता है।' यहाँ 'स्मरति 'के योगमें 'मातृ' शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई। कृत्प्रत्ययके योगमें कर्त्ता एवं कर्ममें षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे- 'अपां भेत्ता- जलको भेदन करनेवाला।' यहाँ 'भेत्तृ' शब्द 'कृत्' प्रत्ययान्त' है। उसके योगमें कर्मभूत 'अप्' शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई। इसी प्रकार 'तव कृतिः- तुम्हारी कृति है'- यहाँ 'कृति' शब्द 'कृत्प्रत्ययान्त' है। उसके योगमें कर्तृभूत 'युष्मद्' शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई (युष्मद्-डस् तव) - निष्ठा आदि अर्थात् क्त-क्तवतु, शतृ-शानच्, उ, उक, क्त, तुमुन्, खलर्थक, तृन्, शानच्, चानश् आदिके योगमें षष्ठी विभक्ति नहीं होती (यथा 'ग्रामं गतः' इत्यादि) ॥ १२-२६ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कारक निरूपण' नामक तीन सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५४॥
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