अग्नि पुराण तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय - Agni Purana 365 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय  - Agni Purana 365 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय - ब्रह्मवर्गः

अग्निरुवाच

वंशोऽन्ववायो गोत्रं स्यात् कुलान्यभिजनान्वयौ ।
मन्त्रव्याख्याकृदाचार्य्य आदेष्ट त्वध्वरे व्रती ।। १ ।।

यष्टा च यजमानः स्यात् ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः ।
सतीर्थ्याश्चैकगुरवः सभ्याः सामाजिकास्तथा ।। २ ।।

सभासदः सभास्तारा ऋत्विजो याजकाश्च ते ।
अद्वर्थूद्‌गातृहोतारो यजुःसामर्ग्विदः क्रमात् ।। ३ ।।

चषालो यूपकटकः समे स्थण्डिलचत्वरे ।
आमिक्षा सा श्रृतोष्णे या क्षईरे स्याद्दधियोगतः ।। ४ ।।

पृषदाज्यं सदध्याज्ये परमान्नन्तु पायसम् ।
उपाकृतः पशुरसौ योऽभिमन्त्र्य क्रतौ हतः ।। ५ ।।

परम्पराकं समनं प्रोक्षणञ्च बवार्थकम् ।
पूजा नमस्याऽपचितिः सपर्य्यार्चार्हणाः समाः ।। ६ ।।

वरिवस्या तु शुश्रूषा परिचर्य्याप्युपासनम् ।
नियमो व्रतमस्त्री तच्चोपवासादि पुण्यकम् ।। ७ ।।

मुख्यः स्यात् प्रथमः कल्पोऽनुकल्पस्तु ततोऽधमः ।
कल्पे विधिक्रमौ ज्ञेयौ विवेकः पृथगात्मता ।। ८ ।।

संस्कारपूर्वं ग्रहणं स्यादुपाकरणं श्रुतेः ।
भिक्षुः परिव्राट् कर्मन्दो पाराशर्य्यपि मस्करी ।। ९ ।।

ऋषयः सत्यवचसः स्नातकश्चाप्लुतब्रती ।
ये निर्जितेन्द्रियग्रामा यतिनो यतयश्च ते ।। १० ।।

शरीरसाधनापेक्षं नित्यं यत् कर्म्म तद्यमः ।
नियमस्तु स यत् कर्म्मानित्यमागन्तुसाधनम् ।।

स्याद् ब्रह्मभूयं ब्रह्मत्वं ब्रह्मसायुज्यमित्यपि ।। ११ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये ब्रह्मवर्गो नाम पञ्चषष्ट्याधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 365 Chapter In Hindi

तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय ब्रह्म-वर्ग

अग्निदेव कहते हैं- वंश, अन्ववाय, गोत्र, कुल, अभिजन और अन्वय-ये वंशके नाम हैं। मन्त्रको व्याख्या करनेवाले ब्राह्मणको आचार्य कहते हैं। जिसने यज्ञमें व्रतकी दीक्षा ग्रहण की हो, वह आदेष्टा, यष्टा और यजमान कहलाता है। समझ-बूझकर आरम्भ करनेका नाम उपक्रम है। एक गुरुके यहाँ साथ-साथ विद्या पढ़ने वाले छात्र परस्पर सतीर्थ्य और एकगुरु कहलाते हैं। सभ्य, सामाजिक, सभासद और सभास्तार ये यज्ञके सदस्योंके नाम हैं। ऋत्विक् और याजक- ये यज्ञ करानेवाले ऋत्विजोंके वाचक हैं। यजुर्वेदके ज्ञाता ऋत्विज्‌को अध्वर्यु, सामवेदके जाननेवालेको उद्‌गाता और ऋग्वेदके ज्ञाताको होता कहते हैं। चषाल और यूपकटक ये यज्ञीय स्तम्भपर लगाये जानेवाले काठके छल्लेके नाम हैं। स्थण्डिल और चत्वर- ये दोनों शब्द समान लिङ्ग और समान अर्थके बोधक हैं। खौलाये हुए दूधमें दही मिला देनेसे जो हवनके योग्य वस्तु तैयार होती है, उसे आमिक्षा कहते हैं। दही मिलाये हुए घीका नाम पृषदाज्य है। परमान्न और पायस-ये खीरके वाचक हैं। जो पशु यज्ञमें अभिमन्त्रित करके मारा गया हो, उसको उपाकृत कहते हैं। परम्पराक, शमन और प्रोक्षण ये शब्द यज्ञीय पशुका वध करनेके अर्थमें आते हैं। 

पूजा, नमस्या, अपचिति, सपर्य्या, अर्चा और अर्हणा-ये समानार्थक शब्द हैं। वरिवस्या, शुश्रूषा, परिचर्या और उपासना- ये सेवाके नाम हैं। नियम और व्रत- ये एक-दूसरेके पर्यायवाची शब्द हैं। इनमें 'व्रत' शब्द पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग-दोनोंमें प्रयुक्त होता है। उपवास आदिके रूपमें किये जानेवाले व्रतका नाम पुण्यक है। जिसका प्रथम या प्रधानरूपसे विधान किया गया हो, उसे 'मुख्यकल्प' कहते हैं और उसकी अपेक्षा अधम या अप्रधानरूपसे जिसकी विधि हो, उसका नाम अनुकल्प है। कल्पके अर्थमें विधि और क्रम इन शब्दोंका प्रयोग समझना चाहिये। वस्तुका पृथक् पृथक् ज्ञान (अथवा जड़-चेतन या द्रष्टा दृश्यके पार्थक्यका निश्चय) विवेक कहलाता है। (श्रावणीपूर्णिमा आदिके दिन) संस्कारपूर्वक वेदका स्वाध्याय आरम्भ करना उपकरण या उपाकर्म कहलाता है। भिक्षु, परिव्राट्, कर्मन्दी, पाराशरी तथा मस्करी संन्यासीके पर्यायवाची शब्द हैं। जिनकी वाणी सदा सत्य होती है, वे ऋषि और सत्यवचा कहलाते हैं। जिसने वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्यके व्रतको विधिवत् समाप्त कर लिया है, किंतु अभी दूसरे आश्रमको स्वीकार नहीं किया है, उसको स्नातक कहते हैं। जिन्होंने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है, वे 'यती' और 'यति' कहलाते हैं। शरीर साध्य नित्यकर्मका नाम यम है तथा जो कर्म अनित्य एवं कभी-कभी आवश्यकतानुसार किये जानेयोग्य होता है, वह (जप, उपवास आदि) नियम कहलाता है। ब्रह्मभूय, ब्रह्मत्व और ब्रह्मसायुज्य ये ब्रह्मभावकी प्राप्तिके नाम हैं॥ १-११॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कोशगत ब्रह्मवर्गका वर्णन' नामक तीन सी पैसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६५॥

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