अग्नि पुराण तीन सौ सड़सठवाँ अध्याय - Agni Purana 367 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ सड़सठवाँ अध्याय - सामान्यनामलिङ्गानि
अग्निरुवाच
सामान्यान्यऽथ वक्ष्यामि नामलिङ्गानि तच्छृणु ।
सुकृती पुण्यवान् धन्यो महेच्छस्तु महाशयः ।। १ ।।
प्रवीणनिपुणाभिज्ञविज्ञविज्ञनिष्णातशिक्षिताः ।
स्युर्वदान्यस्थूललक्षदानशौण्डा बहुप्रदे ।। २ ।।
कृती कृतज्ञः कुशल आसक्तोद्युक्त उत्सुकः ।
इभ्य आढ्यः परिवृढो ह्यधिभूर्नायकोऽधिपः ।। ३ ।।
लक्ष्मीवान् लक्ष्मणः श्रीलः स्वतन्त्रः स्वैर्य्यऽपावृतः ।
खलपूः स्याद्धहुकरो दीर्घसूत्रश्चिरक्रियः ।। ४ ।।
जाल्मोऽसमीक्ष्यकारी स्यात् कुण्ठो मन्दः क्रियासु यः ।
कर्म्मशूरः कर्म्मठः स्याद्भक्षको घस्मरोऽद्मरः ।। ५ ।।
लोलुपो गर्घ्लो गृध्नुर्विनीतप्रश्रितौ तथा ।
धृष्टे धृष्णुर्वियातश्च निभृतः प्रतिबान्विते ।। ६ ।।
प्रगल्भो भीरुको भीरुर्वन्दारुरभिवादके ।
भूष्णुर्भविष्णुर्भविता ज्ञाता विदुरविन्दुकौ ।। ७ ।।
मत्तशौण्डोत्कटक्षीवाश्चण्डस्त्वत्यन्तकोपनः ।
देवानञ्चति देवद्र्यङ् विश्वद्र्यङ् विश्वगञ्चति ।। ८ ।।
यः सहाञ्चति स सध्र्यङ् स तिर्य्यङ् यस्तिरोऽञ्चति ।
वाचोयुक्तिः पटुर्वाग्मी वावदूकश्च वक्तरि ।। ९ ।।
स्याज्जल्पकस्तु वाचालो वाचाटो बहुगर्ह्यवाक् ।
अपध्वस्तो धिक्कृतः स्याद् बद्धे कीलितसंयतौ ।। १० ।।
वरणः शब्दनो नान्दीवादी नान्दीकरः समाः ।
व्यसनार्त्तोपरक्तौ द्वौ बद्धे कीलितसंयतौ ।। ११ ।।
विहस्तव्याकुलौ तुल्यौ नृशंसक्रूरघातुकाः ।
पापो धूर्त्तो वञ्चकः स्यान्मूर्खे वैदेहवालिशौ ।। १२ ।।
कदर्य्ये कृपणक्षुद्रौ मार्गणो याचकार्थिनौ ।
अहङ्कारवानहंयुः स्याच्छुभंयुस्तु शुभान्वितः ।। १३ ।।
कात्तं मनोरमं रुच्यं हृद्याभीष्टे ह्यभीप्सिते ।
असारं फल्गु शून्यं वै मुख्यवर्य्यवरेण्यकाः ।। १४ ।।
श्रेयान् श्रेष्ठः पुष्कलः स्यात्प्राग्र्याग्र्यग्रीयमग्रिमं ।
वड्रोरु विपुलं पीनपीव्नी तु स्थूलपीवरे ।। १५ ।।
स्तोकाल्पक्षुल्लकाः सूक्ष्मं श्लक्ष्णं दभ्रं कृशन्तनु ।
मात्राकुटीलवकणा भूयिष्ठं पुरुहं पुरु ।। १६ ।।
अखण्डं पूर्णसकलमुपकण्ठान्तिकाभितः ।
समीपे सन्निदाभ्यासौ नेदिष्ठं सुसमीपकं ।। १७ ।।
सुदूरे तु दविष्ठं स्याद्वृत्तं निस्तलवर्तुले ।
उच्चप्रांशून्नतोदग्रा ध्रुवो नित्यः सनातनः ।। १८ ।।
आविद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वक्रमित्यपि ।
चञ्चलं चरलञ्चैव कठोरं जठरं दृढ़ं ।। १९ ।।
प्रत्यग्रोऽभिनवो नव्यो नवीनो नूतनो नवः ।
एकतानोऽन्न्यवृत्तिरुच्चण्डमविलम्बितं ।। २० ।।
उच्चावचं नैकभेदं सम्बाधकलिलं तथा ।
तिमितं स्तिमितं क्लिन्नमभियोगस्त्वभिग्रहः ।। २१ ।।
स्फतिर्वृद्धौ प्रथा ख्यातौ समाहारः समुच्चयः ।
अपहारस्त्वपचयो विहारस्तु परिक्रमः ।। २२ ।।
प्रत्याहार उपादानं निर्द्धारोऽब्यवकर्षणं ।
विघ्नोऽन्तरायः प्रत्यूहः स्यादास्या त्वासना स्थितिः ।। २३ ।।
सन्निधिः सन्निकर्षः स्यात्संक्रमो दुर्गसञ्चरः ।
उपलम्भस्त्वनुभवः प्रत्यादेशो निराकृतिः ।। २४ ।।
परिरम्भः परिष्वङ्गः संश्लेष उपगूहनं ।
अनुमा पक्षहेत्वाद्यैडिम्बे भ्रमरविप्लवौ ।। २५ ।।
असन्निकृष्टार्थज्ञानं शब्दाद्धि शाब्दमीरितं ।
सादृश्यदर्शनात्तुल्ये बुद्धिः स्यादुपमानकं ।। २६ ।।
काय्य दृष्ट्वा विना नस्यादर्थापत्तिः परार्थधीः ।
प्रतियोगिन्यऽगृहीते भुवि नास्तीत्यभावकः ।। २८ ।।
इत्यादिनाम लिङ्गो हि हरिरुक्तो नृबुद्धये ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये सामान्यनामलिङ्गानि नाम सप्तषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्याययः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ सड़सठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 367 Chapter In Hindi
तीन सौ सड़सठवाँ अध्याय सामान्य नाम-लिङ्ग
अग्निदेव कहते हैं- मुनिवर! अब मैं सामान्यतः नामलिङ्गोंका वर्णन करूँगा (इस प्रकरणमें आये हुए शब्द प्रायः ऐसे होंगे, जो अपने विशेष्यके अनुसार तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त हो सकते हैं), आप उन्हें ध्यान देकर सुनें। सुकृति, पुण्यवान् और धन्य- ये शब्द पुण्यात्मा और सौभाग्यशाली पुरुषके लिये आते हैं। जिनकी अभिलाषा, आशय या अभिप्राय महान् हो, उन्हें महेच्छ और महाशय कहते हैं। (जिनके हृदय शुद्ध, सरल, कोमल, दयालु एवं भावुक हों, वे हृदयालु, सहृदय और सुहृदय कहलाते हैं।) प्रवीण, निपुण, अभिज्ञ, विज्ञ, निष्णात और शिक्षित- सुयोग्य एवं कुशलके अर्थमें आते हैं। वदान्य, स्थूललक्ष, दानशौण्ड और बहुप्रद-ये अधिक दान करनेवालेके वाचक हैं। कृती, कृतज्ञ और कुशल ये भी प्रवीण, चतुर एवं दक्षके ही अर्थमें आते हैं। आसक्त, उद्युक्त और उत्सुक ये उद्योगी एवं कार्यपरायण पुरुषके लिये प्रयुक्त होते हैं। अधिक धनवान्को इभ्य और आढ्य कहते हैं। परिवृढ, अधिभू, नायक और अधिप-ये स्वामीके वाचक हैं। लक्ष्मीवान्, लक्ष्मण तथा श्रील-ये शोभा और श्रीसे सम्पन्न पुरुषके अर्थमें आते हैं।
स्वतन्त्र, स्वैरी और अपावृत शब्द स्वाधीन अर्थके बोधक हैं। खलपू और बहुकर-खलिहान या मैदान साफ करनेवाले पुरुषके अर्थमें आते हैं। दीर्घसूत्र और चिरक्रिय ये आलसी तथा बहुत विलम्बसे काम पूरा करनेवाले पुरुषके बोधक हैं। बिना विचारे काम करनेवालेको जाल्म और असमीक्ष्यकारी कहते हैं। जो कार्य करनेमें ढीला हो, वह कुष्ठ कहलाता है। कर्मशूर और कर्मठ ये उत्साहपूर्वक कर्म करनेवालेके वाचक हैं। खानेवालेको भक्षक, घस्मर और अद्यर कहते हैं। लोलुप, गर्धन और गृध्नु ये लोभीके पर्याय हैं। विनीत और प्रश्रित- ये विनययुक्त पुरुषका बोध करानेवाले हैं। धृष्णु और वियात ये धृष्टके लिये प्रयुक्त होते हैं। प्रतिभाशाली पुरुषके अर्थमें निभूत और प्रगल्भ शब्दका प्रयोग होता है। भीरुक और भीरु-डरपोकके, बन्दारु और अभिवादक प्रणाम करनेवालेके, भूष्णु, भविष्णु और भविता होनेवालेके तथा ज्ञाता, विदुर और विन्दुक ये जानकारके वाचक हैं। मत्त, शौण्ड, उत्कट और क्षीब ये मतवालेके अर्थमें आते हैं (क्षीब शब्द नान्त भी होता है, इसके श्रीबा, क्षीबाणी, श्रीवाणः इत्यादि रूप होते हैं)। चण्ड और अत्यन्त कोपन-ये अधिक क्रोध करनेवाले पुरुषके बोधक हैं। देवताओंका अनुसरण करनेवालेको देवद्रधङ् और सब ओर जानेवालेको विष्वग्द्रधङ् कहते हैं। इसी प्रकार साथ चलनेवाला सध्यडू और तिरछा चलनेवाला तिर्यङ् कहलाता है। वाचोयुक्ति पटु, वाग्मी और वावदूक ये कुशल वक्ताके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। बहुत अनाप शनाप बकनेवालेको जल्पाक, वाचाल, वाचाट और बहुगांवाक् कहते हैं। अपध्वस्त और धिकृत ये धिकारे हुए पुरुषके वाचक हैं। कीलित और संयत शब्द बद्ध (बँधे हुए) का बोध करानेवाले हैं॥ १-१० ॥
रवण और शब्दन ये आवाज करनेवालेके अर्थमें आते हैं। (नाटक आदिके आरम्भमें जो मङ्गलके लिये आशीर्वादयुक्त स्तुतिका पाठ किया जाता है, उसका नाम नान्दी है।) नान्दीपाठ करनेवालेको नान्दीवादी और नान्दोकर कहते हैं। व्यसनार्त और उपरक्त- ये पीड़ितके अर्थमें आते हैं। विहस्त और व्याकुल- वे शोकाकुल पुरुषका बोध करानेवाले हैं। नृशंस, क्रूर, घातक और पाप ये दूसरोंसे द्रोह करनेवाले निर्दय मनुष्यके वाचक हैं। ठगको धूर्त और वञ्चक कहते हैं। वैदेह (वैधेय) और वालिश- ये मूर्खके वाचक हैं। कृपण और क्षुद्र-ये कदर्य (कंजूस) के अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। मार्गण, याचक और अर्धा-ये याचना करनेवालेके अर्थमें आते हैं। अहंकारीको अहंकारवान् और अहंयु तथा शुभके भागीको शुभान्वित और शुर्भयु कहते हैं। कान्त, मनोरम और रुच्य ये सुन्दर अर्थके वाचक हैं। इद्य, अभीष्ट और अभीप्सित- ये प्रियके समानार्थक शब्द हैं। असार, फल्गु तथा शून्य-ये निस्सार अर्थका बोध करानेवाले हैं। मुख्य, वर्य, वरेण्यक, श्रेयान, श्रेष्ठ और पुष्कल- ये श्रेष्ठके वाचक हैं।
प्रष्ठय, अग्रध, अग्रीय तथा अग्रिय शब्द भी इसी अर्थमें आते हैं। वडू, उरु और विपुल-ये विशाल अर्थके बोधक हैं। पीन, पीवन्, स्थूल और पीवर ये स्थूल या मोटे अर्थका बोध करानेवाले हैं। स्तोक, अल्प, क्षुल्लक, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण, दभ्र, कुश, तनु, मात्रा, त्रुटि, लव और कण ये स्वल्प या सूक्ष्म अर्थके वाचक हैं। भूयिष्ठ, पुरुह और पुरु-ये अधिक अर्थके बोधक हैं। अखण्ड, पूर्ण और सकल ये समग्रके वाचक हैं। उपकण्ठ, अन्तिक, अभितः, संनिधि और अभ्याश- ये समीपके अर्थमें आते हैं। अत्यन्त निकटको नेदिष्ठ कहते हैं। बहुत दूरके अर्थमें दविष्ठ शब्दका प्रयोग होता है। वृत्त, निस्तल और वर्तुल ये गोलाकारके वाचक हैं। उच्च, प्रांशु, उन्नत और उदग्र ये ऊँचाके अर्थमें आते हैं। ध्रुव, नित्य और सनातन ये नित्य अर्थके बोधक हैं। आविद्ध, कुटिल, भुग्न, वेल्लित और वक्र-ये टेढ़ेका बोध करानेवाले हैं। चञ्चल और तरल- ये चपलके अर्थमें आते हैं। कठोर, जरठ और दृढ़-ये समानार्थक शब्द हैं। प्रत्यग्र, अभिनव, नव्य, नवीन, नूतन और नव-ये नयेके अर्थमें आते हैं। एकतान और अनन्यवृत्ति- ये एकाग्रचित्तवाले पुरुषके बोधक हैं। उच्चण्ड और अविलम्बित- ये फुर्तीके वाचक हैं। उच्चावच और नैकभेद ये अनेक प्रकार के अर्थ में आते हैं। सम्बाध और कलित ये संकीर्ण एवं गहनके बोधक हैं। तिमित, स्तिमित और क्लिन्न- ये आर्द्र या भीगे हुएके अर्थ में आते हैं।
अभियोग और अभिग्रह- ये दूसरे पर किये हुए दोषारोपण के नाम हैं। स्फाति शब्द वृद्धिके और प्रथा शब्द ख्याति के अर्थमें आता है। समाहार और समुच्चय- ये समूहके वाचक हैं। अपहार और अपचय- ये ह्रासका बोध करानेवाले हैं। विहार और परिक्रम-ये घूमनेके अर्थ में आते हैं। प्रत्याहार और उपादान ये इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। निर्धार तथा अभ्यवकर्षण- ये शरीर में भैंसे हुए शस्त्रादि को युक्तिपूर्वक निकालने के अर्थमें आते हैं। विघ्न, अन्तराय और प्रत्यूह- ये विघ्नका बोध करानेवाले हैं। आस्या, आसना और स्थिति- ये बैठनेकी क्रियाके बोधक हैं। संनिधि और संनिकर्ष- ये समीप रहनेके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। किलेमें प्रवेश करने की क्रिया को संक्रम और दुर्गसंचर कहते हैं। उपलम्भ और अनुभव- ये अनुभूतिके नाम हैं। प्रत्यादेश और निराकृति- ये दूसरेके मतका खण्डन करनेके अर्थमें आते हैं। परिरम्भ, परिष्वङ्ग, संश्लेष और उपगूहन- ये आलिङ्गनके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। पक्ष और हेतु आदिके द्वारा निश्चित होनेवाले ज्ञानका नाम अनुमा या अनुमान है।
बिना हथियारकी लड़ाई तथा भयभीत होनेपर किये हुए शब्दका नाम डिम्ब, भ्रमर (या डमर) तथा विप्लव है। शब्दके द्वारा जो परोक्ष अर्थका ज्ञान होता है, उसे शाब्दज्ञान कहते हैं। समानता देखकर जो उसके तुल्यवस्तु का बोध होता है, उसका नाम उपमान है। जहाँ कोई कार्य देखकर कारणका निश्चय किया जाय, अर्थात् अमुक कारणके बिना यह कार्य नहीं हो सकता- इस प्रकार विचार करके जो दूसरी वस्तु अर्थात् कारणका ज्ञान प्राप्त किया जाय, उसे अर्थापत्ति कहते हैं। प्रतियोगीका ग्रहण न होनेपर जो ऐसा कहा जाता है कि 'अमुक वस्तु पृथ्वीपर नहीं है, उसका नाम अभाव है। इस प्रकार मनुष्योंका ज्ञान बढ़ाने के लिये मैंने नाम और लिङ्ग-स्वरूप श्री हरि का वर्णन किया है॥ ११-२८॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'कोशगत सामान्य नामलिङ्गोंका कथन' नामक तीन सौ सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६७॥
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