अग्नि पुराण तीन सौ बासठवाँ अध्याय - Agni Purana 362 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ बासठवाँ अध्याय - नानार्थवर्गाः
अग्निरुवाच
आकाशे त्रिदिवे नाको लोकस्तु भुवने जने ।
पद्ये यशसि च शलोकः शरे खड्गे च सायकः ।। १ ।।
आनकः पटहो भेरी कलङ्कोऽङ्कापवादयोः ।
मारुते वेधसि व्रध्ने पुंसि कः कं शिरोऽम्बुनोः ।। २ ।।
स्यात् पुलाकस्तुच्छधान्ये संक्षेपे भक्तसिक्थके ।
महेन्द्रगुग्गुलूलूकव्यालग्राहिषु कौशिकः ।। ३ ।।
शालावृकौ कपिश्वानौ मानं स्यान्मितिसाधनं ।
सर्गः स्वभावनिर्मोक्षनिश्चयाध्यायसृष्टिषु ।। ४ ।।
योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु ।
भोगः सुखे स्त्र्यादिभृतावव्जौ शङ्खनिशाकरौ ।। ५ ।।
काकेभगण्डौ करटौ दुश्चर्मा शिपिविष्टकः ।
रिष्टं क्षएमाशुभाभावेष्वरिष्टे तु शुभाऽशुभे ।। ६ ।।
व्युष्टिः फले समृद्धौ च दृष्टिर्ज्ञानेऽक्षिण दर्शने ।
निष्ठानिष्पत्तिनाशान्ताः काष्ठोत्कर्षे स्थितौ दिशि ।। ७ ।।
भूगोवाचस्त्विड़ा इलाः प्रगाढ़ं भृशकृच्छ्रयोः ।
भृशप्रतिज्ञयोर्वाढ़ं शक्तस्थूलौ दृढ़ौ त्रिषु ।। ८ ।।
विन्यस्तसंहतौ व्यूढ़ौ कृष्णो व्यासेऽर्ज्जुने हरौ ।
पणो द्यतादिषूत्सृष्टे भृतौ मूल्ये धनऽपि च ।। ९ ।।
मौर्व्यां द्र्व्याश्रिते स्त्वशुक्तसन्ध्यादिके गुणः ।
श्रेष्ठेऽधिपे ग्रामणीः स्यात् जुगुप्साकरुणे घृणो ।। १० ।।
तृष्णा स्पृहापिपासे द्वे विपणिः स्याद्वणिक्पथे ।
विषाभिसरलोहेषु तीक्ष्णं क्लीवे खरे त्रिषु ।। ११ ।।
प्रमाणं हेतुमर्य्यादाशास्त्रेयत्ताप्रमातृषु ।
करणं क्षेत्रगात्रादावीरिणं शून्यमूपरं ।। १२ ।।
यन्ता हस्तिपके सूते वह्निज्वाला च हेतयः ।
श्रुतं शास्त्रावधृतयोर्युगपर्य्याप्तयोः कृतं ।। १३ ।।
ख्याते हृष्टे प्रतीतोऽभिजातस्तु कुलजे बुधे ।
विविक्तौ पूतविजनौ मूर्च्छितौ मूढ़सोच्छ्रयौ ।। १४ ।।
अर्थोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवत्तिषु ।
निदानागमयोस्तीर्थमृषिजुष्टजले गुरौ ।। १५ ।।
प्राधान्ये राजलिङ्गे च वृषाङ्गे ककुदाऽस्त्रियां ।
स्त्री सम्बिज्ज्ञानसम्भाषाक्रियाकाराजिनामसु ।। १६ ।।
धर्म्मे रहस्युपनिषत् स्यादृतौ वत्सरे शरत् ।
पदं व्यवसितित्राणस्थानलक्ष्माङ्घ्रिवस्तुषु ।। १७ ।।
त्रिष्विष्टमधुरौ स्वादू मृदू चातीक्ष्णकोमलौ ।
सत्ये साधौ विद्यमाने प्रशस्तेऽभ्यर्हिते च सत् ।।१८ ।।
विधिर्विधाने दैवेऽपि प्रणिधिः प्रार्थने चरे ।
वधूर्जाया स्नुषा स्त्री च सुधालेपोऽमृतं स्नुही ।। १९ ।।
स्पृहा सम्प्रत्ययः श्रद्धा पणिडतम्मन्यगर्व्वितौ ।
ब्रह्मबन्धुरधिक्षेपे भानूरश्मिदिवाकरौ ।। २० ।।
द्कालाणौ शैलपाषाणौ मूर्खनीचौ पृथग्जनौ ।
तरुशैलौ शिखरिणौ तनुस्त्वग्देहयोरपि ।। २१ ।।
आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्ष्म च ।
उत्थानं पौरुषे तन्त्रे व्युत्थानं प्रतिरोधने ।। २२ ।।
निर्य्यातनं वैरशुद्धौ दाने न्यासार्पणेऽपि च ।
व्यसनं विपदि भ्रंशे दोषे कामजकोपजे ।। २३ ।।
मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः ।
तौर्य्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः ।। २४ ।।
पैशून्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम् ।
वाग्दण्डश्चैव पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः ।। २५ ।।
अकर्म्मगुह्ये कौपीनं मैथुनं सङ्गतौ रतौ ।
प्रधानं परमार्था धीः प्रज्ञानं बुद्धिचिह्नयोः ।। २६ ।।
क्रन्दने रोदनाह्वाने वष्म देहप्रमाणयोः ।
आराधनं साधने स्यादवाप्तौ तोषणेऽपि च ।। २७ ।।
रत्नं स्वजातिश्रेष्ठेऽपि लक्ष्म चिह्निप्रधानयोः ।
कलापो भूषणे वर्हे तूणीरे संहतेऽपि च ।। २८ ।।
तल्पं शय्याट्टदारेषु डिम्भौ तु शिशुवालिशौ ।
स्तम्भौ स्थूणाजड़ीभावौ सभ्ये संसदि वै सभा ।। २९ ।।
किरणप्रग्र्हौ रश्मी धर्म्माः पुण्ययमादयः ।
ललामं पुच्छपुण्ड्राश्वभूषाप्राधान्यकेतुषु ।। ३० ।।
प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविस्वासहेतुषु ।
समयाः शपथाचारकालसिद्धान्तसंविदः ।। ३१ ।।
अत्ययोऽतिक्रमे कृच्छ्रे सत्यं शपथतथ्ययोः ।
वीर्य्यं बलप्रभावौ च रूप्यं रूपे प्रशस्तके ।। ३२ ।।
दुरोदरो द्युतकारे पणे द्यूते दुरोदरं ।
महारण्ये दुर्गपथे कान्तारः पुन्नपुंसकं ।। ३३ ।।
यमानिलेन्द्रचन्द्रार्कविष्णुसिंहादिके हरिः ।
दशेऽस्त्रियां भये श्वभ्रे जठरः कठिनेऽपि च ।। ३४ ।।
उदारो दातृमहतोरितरस्त्वन्यनीचयोः ।
चूड़ा किरीटं केशाश्च संयता मौलयस्त्रयः ।। ३५ ।।
बलिः करोपहारादौ सैन्यस्थैर्य्यादिके बलं ।
स्त्रीकटीवस्त्रबन्धेऽपि नीवी परिपणेऽपि च ।। ३६ ।।
शुक्रले मूषिके श्रेष्ठे सुकृते वृषभे वृषः ।
द्यूताक्षे सारिफलकेऽप्याकर्षोऽथाऽक्षमिन्द्रिये ।। ३७ ।।
ना द्यूताङ्गे च कर्षे च व्यवहारे कलिद्रुमे ।
उष्णीषः स्यान् किरीटादौ कर्षूः कुल्याभिधायिनी ।। ३८ ।।
प्रत्यक्षेऽधिकृतेऽध्याक्षः सूर्य्यवह्नी विभावसू ।
श्रृङ्गारादौ विषे वोर्य्ये गुणे रागे द्रवे रसः ।। ३९ ।।
तेजःपुरीषयोर्वर्च्च आगः पापापराधयोः ।
छन्दः पद्येऽभिलाषे च साधीयान् साधुवाढयोः ।। ४० ।।
व्युहो वृन्देऽप्यहिर्वृत्रेऽप्यग्नीन्द्वर्कास्तमोनुदः ।। ४१ ।।
इत्तयादिमहापुराणे आग्नेये नानार्थवर्गा नाम द्विषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ बासठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 362 Chapter In Hindi
तीन सौ बासठवाँ अध्याय नानार्थ-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं- 'नाक' शब्द आकाश और स्वर्गके अर्थमें तथा 'लोक' शब्द संसार, जन-समुदायके अर्थमें आता है। 'श्लोक' शब्द अनुष्टुप् छन्द और सुयश अर्थमें तथा 'सायक' शब्द बाण और तलवारके अर्थमें प्रयुक्त होता है। आनक, पटह और भेरी ये एक दूसरेके पर्याय हैं। 'कलङ्क' शब्द चिह्न तथा अपवादका वाचक है। 'क' शब्द यदि पुल्लिङ्गमें हो तो वायु, ब्रह्मा और सूर्यका तथा नपुंसकमें हो तो मस्तक और जलका बोधक होता है। 'पुलाक' शब्द कदन्न, संक्षेप तथा भातके पिण्ड अर्थमें आता है। 'कौशिक' शब्द इन्द्र, गुग्गुल, उल्लू तथा साँप पकड़नेवाले पुरुषोंके अर्थमें प्रयुक्त होता है। बंदरों और कुत्तोंको 'शालावृक' कहते हैं। मापके साधनका नाम 'मान' है। 'सर्ग' शब्द स्वभाव, त्याग, निश्चय, अध्ययन और सृष्टिके अर्थमें उपलब्ध होता है। 'योग' शब्द कवचधारण, साम आदि उपायोंके प्रयोग, ध्यान, संगति (संयोग) और युक्ति अर्थका बोधक होता है।
'भोग' शब्द सुख और स्त्री (वेश्या या दासी) आदिको उपभोगके बदले दिये जानेवाले धनका वाचक है। 'अब्ज' शब्द शङ्ख और चन्द्रमाके अर्थमें भी आता है। 'करट' शब्द हाथीके कपोल और कौवेका वाचक है। 'शिपिविष्ट' शब्द बुरे चमड़ेवाले (कोड़ी) मनुष्यका बोध करानेवाला है। 'रिष्ट' शब्द क्षेम, अशुभ तथा अभावके अर्थमें आता है। 'अरिष्ट' शब्द शुभ और अशुभ दोनों अर्थोंका वाचक है। 'व्युष्टि' शब्द प्रभातकाल और समृद्धिके अर्थमें तथा 'दृष्टि' शब्द ज्ञान, नेत्र और दर्शनके अर्थमें आता है। 'निष्ठा 'का अर्थ है- निष्पत्ति (सिद्धि), नाश और अन्त तथा 'काष्ठा 'का उत्कर्ष, स्थिति तथा दिशा अर्थमें प्रयोग होता है। 'इडा' और 'इला' शब्द गौ तथा पृथ्वीके वाचक हैं। 'प्रगाढ' शब्द अत्यन्त एवं कठिनाईका बोध करानेवाला है। 'वाढम्' पद अत्यन्त और प्रतिज्ञाके अर्थमें आता है। 'दृढ' शब्द समर्थ एवं स्थूलका वाचक है तथा इसका तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है। 'व्यूह' का अर्थ है- विन्यस्त (सिलसिलेवार रखा हुआ या व्यूहके आकारमें खड़ा किया हुआ) तथा संहत (संगठित)।
'कृष्ण' शब्द व्यास, अर्जुन तथा भगवान् विष्णुके अर्थमें आता है। 'पण' शब्द जुआ आदिमें दाँवपर लगाये हुए द्रव्य, कीमत और धनके अर्थमें भी प्रयुक्त होता है। 'गुण' शब्द धनुषकी प्रत्यञ्चाका, द्रव्योंका आश्रय लेकर रहनेवाले रूप-रस आदि गुणोंका, सत्त्व, रज और तमका, शुक्ल, नील आदि वर्णांका तथा संधि-विग्रह आदि छः प्रकारकी नीतियोंका बोध करानेवाला है। 'ग्रामणी' शब्द श्रेष्ठ (मुखिया) तथा गाँवके स्वामीका वाचक है। 'घृणा' शब्द जुगुप्सा और दया-दोनों अथर्थोंमें आता है। 'तृष्णा'का अर्थ है-इच्छा और प्यास। 'विपणि' शब्द बाजार या बनियेके दूकानके अर्थमें आता है। 'तीक्ष्ण' शब्द नपुंसकलिङ्गमें प्रयुक्त होनेपर विष, युद्ध तथा लोहेका वाचक होता है और प्रखर वा प्रचण्डके अर्थमें उसका तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है। 'प्रमाण' शब्द कारण, सीमा, शास्त्र, इयत्ता (निश्चित माप) तथा प्रामाणिक पुरुषके अर्थमें आता है। 'करुण' शब्द क्षेत्र और गात्रका तथा 'ईरिण' शब्द शून्य (निर्जन) एवं ऊसरभूमिका वाचक है॥ १-१२॥
'यन्ता' पद हाथीवान और सारधिका वाचक है। 'हेति' शब्दका प्रयोग आगकी ज्वालाके अर्थमें होता है।' श्रुत' शब्द शास्त्र एवं अवधारण (निश्चय) का तथा 'कृत' शब्द सत्ययुग और पर्याप्त अर्थका बोधक है। 'प्रतीत' शब्द विख्यात तथा दृष्टके अर्थमें और 'अभिजात' शब्द कुलीन एवं विद्वान्के अर्थमें आता है। 'विविक्त' शब्द पवित्र और एकान्तका तथा 'मूच्छित' शब्द मूढ़ (संज्ञाशून्य) और फैले हुए या उन्नतिको प्रास हुएका बोध करानेवाला है। 'अर्थ' शब्द अभिधेय (शब्दसे निकलनेवाले तात्पर्य), धन, वस्तु, प्रयोजन और निवृत्तिका वाचक है। 'तीर्थ' शब्द निदान (उपाय), आगम (शास्त्र), महर्षियोंद्वारा सेवित जल तथा गुरुके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'ककुद्' शब्द स्त्रीलिङ्गके सिवा अन्य लिङ्गोंमें प्रयुक्त होता है। यह प्रधानता, राजचिह्न तथा बैलके अङ्गविशेषका बोध करानेवाला है। 'संविद्' शब्द स्त्रीलिङ्ग है। इसका ज्ञान, सम्भाषण, क्रियाके नियम, युद्ध और नाम अर्थमें प्रयोग होता है। 'उपनिषद्' शब्द धर्म और रहस्यके अर्थमें तथा 'शरद्' शब्द ऋतु और वर्षके अर्थमें आता है।
'पद' शब्द व्यवसाय (निश्चय), रक्षा, स्थान, चिह्न, चरण और वस्तुका वाबक है। 'स्वादु' शब्द प्रिय एवं मधुर अर्थका तथा 'मृदु' शब्द तीखेपनसे रहित एवं कोमल अर्थका बोध करानेवाला है। 'स्वादु' और 'मृदु'- दोनों शब्द तीनों ही लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं। 'सत्' शब्द सत्य, साधु, विद्यमान, प्रशस्त तथा पूज्य अर्थमें उपलब्ध होता है। 'विधि' शब्द विधान और दैवका वाचक है। 'प्रणिधि' शब्द याचना और चर (दूत) के अर्थमें आता है। 'वधू' शब्द जाया, पतोहू तथा स्त्रीका बोधक है। 'सुधा' शब्द अमृत, चूना तथा शहदके अर्थमें आता है। 'श्रद्धा' शब्द आदर, विश्वास एवं आकाङ्क्षाके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'समुत्रद्ध' शब्द अपनेको पण्डित माननेवाले और घमंडीके अर्थमें आता है। 'ब्रह्मबन्धु' शब्दका प्रयोग ब्राह्मणको अवज्ञामें प्रयुक्त होता है। 'भानु' शब्द किरण और सूर्य- दोनों अर्थोंमें प्रयुक्त होता है। 'ग्रावन्' शब्दका अभिप्राय पहाड़ और पत्थर-दोनोंसे है। 'पृथग्जन' शब्द मूर्ख और नीचके अर्थमें आता है। 'शिखरिन्' शब्दका अर्थ वृक्ष और पर्वत तथा 'तनु' शब्दका अर्थ शरीर और त्वचा (छाल) है।
'आत्मन्' शब्द यत्न, धृति, बुद्धि, स्वभाव, ब्रह्म और शरीरके अर्थमें भी आता है। 'उत्थान' शब्द पुरुषार्थ और तन्त्रके तथा 'व्युत्थान' शब्द विरोधमें खड़े होनेके अर्थका बोधक है। 'निर्यातन' शब्द वैरका बदला लेने, दान देने तथा धरोहर लौटानेके अर्थमें भी आता है। 'व्यसन' शब्द विपत्ति, अधःपतन तथा काम-क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंका बोध करानेवाला है। शिकार, जुआ, दिनमें सोना, दूसरोंकी निन्दा करना, स्त्रियोंमें आसक्त होना, मदिरा पीना, नाचना, गाना, बाजा बजाना तथा व्यर्थ घूमना- यह कामसे उत्पन्न होनेवाले दस दोषोंका समुदाय है। चुगली, दुस्साहस, द्रोह, ईर्ष्या, दोषदर्शन, अर्थदूषण, वाणीकी कठोरता तथा दण्डकी कठोरता- यह क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले आठ दोषोंका समूह है। 'कौपीन' शब्द नहीं करनेयोग्य खोटे कर्म तथा गुप्तस्थानका वाचक है। 'मैथुन' शब्द संगति तथा रतिके अर्थमें आता है। 'प्रधान' कहते हैं परमार्थबुद्धिको तथा 'प्रज्ञान' शब्द बुद्धि एवं चिह्न (पहचान) का वाचक है। 'क्रन्दन' शब्द रोने और पुकारनेके अर्थमें आता है। 'वर्मन्' शब्द देह और परिमाणका बोधक है। 'आराधन' शब्द साधन प्राप्ति तथा संतुष्ट करनेके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'रत्न' शब्दका स्वजातिमें श्रेष्ठ पुरुषके लिये भी प्रयोग होता है और 'लक्ष्मन्' शब्द चिह्न एवं प्रधानका बोध करानेवाला है। 'कलाप' शब्द आभूषण, मोरपंख, तरकस और संगठितके अर्थमें भी उपलब्ध होता है। 'तल्प' शब्द शय्या, अट्टालिका तथा स्त्रीरूप अर्थका बोधक है। 'डिम्भ' शब्द शिशु और मूर्खके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'स्तम्भ' शब्द खंभे तथा जडवत् निश्वेष्ट होनेके अर्थमें आता है। 'सभा' शब्द समिति तथा सदस्योंका भी वाचक है ॥ १३-२९ ॥
'रश्मि' शब्द किरण तथा रस्सीका वाचक है। 'धर्म' शब्दका प्रयोग पुण्य और यमराज आदिके लिये होता है। 'ललाम' शब्द पूँछ, पुण्ड्र (तिलक), घोड़ा, आभूषण, श्रेष्ठता तथा ध्वजा इत्यादि अर्थोंमें आता है। 'प्रत्यय' शब्द अधीन, शपथ, ज्ञान, विश्वास तथा हेतुके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'समय' शब्दका अर्थ है- शपथ, आचार, काल, सिद्धान्त और संविद् (करार)। 'अत्यय' अतिक्रमण (उल्लङ्घन) और कठिनाई अर्थमें तथा 'सत्य' शब्द शपथ और सत्यभाषणके अर्थमें आता है। 'वीर्य' शब्द बल और प्रभावका तथा 'रूप्य' शब्द परमसुन्दर रूपका वाचक है। 'दुरोदर' शब्द पुल्लिङ्ग होनेपर जुआ खेलनेवाले पुरुष और जुएमें लगाये जानेवाले दाँवका बोध करानेवाला होता है तथा नपुंसकलिङ्ग होनेपर जुएके अर्थमें आता है। 'कान्तार' शब्द बहुत बड़े जंगल और दुर्गम मार्गका वाचक है तथा पुल्लिङ्ग और नपुंसक दोनों लिङ्गोंमें उसका प्रयोग होता है।
'हरि' शब्द यम, वायु, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, विष्णु और सिंह आदि अनेकों अर्थोंका वाचक है। 'दर' शब्द स्त्रीलिङ्गको छोड़कर अन्य दो लिङ्गोंमें प्रयुक्त होता है। उसका अर्थ है-भय और खंदक। 'जठर' शब्द उदर एवं कठिन अर्थका बोधक है। 'उदार' शब्द दाता और महान् पुरुषके अर्थमें आता है। 'इतर' शब्द अन्य और नीचका वाचक है। 'मौलि' शब्दके तीन अर्थ हैं-चूडा, किरीट और बँधे हुए केश। 'बलि' शब्द कर (टैक्स या लगान) तथा उपहार (भेंट आदि) के अर्थमें प्रयोग आता है। 'बल' शब्द सेना और स्थिरता आदिका बोधक है। 'नीवी' शब्द स्त्रीके कटिवस्त्रके बन्धनरूप अर्थमें तथा परिपण (पूँजी, मूलधन अथवा बंधक रखने) के अर्थमें आता है। 'वृष' शब्द शुक्रल (अधिक वीर्यवान्), चूहा, श्रेष्ठ पुरुष, पुण्य (धर्म) तथा बैलके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'आकर्ष' शब्द पासा तथा चौसरकी बिछाँतके अर्थमें आता है।
'अक्ष' शब्द नपुंसकलिङ्ग होनेपर इन्द्रियके अर्थमें आता है तथा पुँल्लिङ्ग होनेपर पासा, कर्ष (सोलह मासेका एक माप), गाड़ीके पहिये, व्यवहार (आय-व्ययको चिन्ता) और बहेड़ेके वृक्षके अर्थमें उपलब्ध होता है। 'उष्णीष' शब्द किरीट आदिके अर्थमें प्रयुक्त होता है। स्त्रीलिङ्ग 'कर्पू' शब्द कुल्या अर्थात् छोटी नदीका वाचक है। 'अध्यक्ष' शब्द प्रत्यक्ष (द्रष्टा) और अधिकारीके अर्थमें आता है। 'विभावसु' शब्द सूर्य और अग्निका वाचक है। 'रस' शब्द विष, वीर्य, गुण, राग, द्रव तथा शृङ्गार आदि रसोंका बोध कराने वाला है। 'वर्चस्' शब्द तेज और पुरीष (मल) का तथा 'आगस्' शब्द पाप और अपराधका वाचक है। 'छन्दस्' शब्द पद्म और इच्छाके तथा 'साधीयस्' शब्द साधु (उत्तम) और बाढ (निश्चय या हामी भरने) के अर्थमें आता है। 'व्यूह' शब्द समूहका वाचक है। 'अहि' शब्द वृत्रासुरके अर्थमें भी आता है। तथा 'तमोपह' शब्द अग्नि, चन्द्रमा एवं सूर्यका बोध करानेवाला है ॥ ३०-४१॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कोशविषयक नानार्थ- वर्गका वर्णन' नामक तीन सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६२॥
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