अग्नि पुराण दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 295 Chapter !
अग्नि पुराण 295 दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय - दष्टचिकित्सा
अग्निरुवाच
मन्त्रध्यानौषधैर्दष्टतिकित्सां प्रवदामि ते ।
ॐ नमो भगवते नीलकण्ठायेति ।
जपनाद्विषहानिः स्यादौषधं जीवरक्षणं ।। १ ।।
साकज्यं सकृद्रसं पेयं द्विविधं विषमुच्यते ।
जङ्गमं सर्पमूषादि श्रृङ्ग्यादि स्थावरं विषं ।। २ ।।
शान्तस्वरान्वितो ब्रह्मा लोहितं तारकं शिवः ।
वियतेर्नाममन्त्रोऽयं तार्क्षः शब्दमयः स्मृतः ।। ३ ।।
ॐ ज्वल महामते हृदयाय गरुडविशलशिरसे
गरुडशिखायै गरुड विषभञ्जन प्रभेदन प्रभेदन
वित्रासय विमर्द्दय विमर्द्दय कवचाय अप्रतिहतशासनं
वं हूं फट् अस्त्राय उग्ररूपधारक सर्वभयङ्कर
भीषय सर्वं दह दह भस्मीकुरु कुरु स्वाहा नेत्राय ।
सप्तवर्गान्तयुग्माष्टदिग्दलस्वर केशरादिवर्णरुद्धं
वह्निराभूतकर्णिकं मातृकाम्बुजं ।
कृत्वा हृदिस्थं तन्मन्त्री वामहस्ततले स्मरेत् ।
अह्गुष्ठादौ न्यसेद्वर्णान्वियतेर्भेदिताः कलाः ।। ४ ।।
पीतं वज्रचतुष्कोणं पार्थिवं शक्रदैवतं ।
वृत्तार्द्धमाप्यपद्मार्द्धं शुक्लं वरुणदैवतं ।। ५ ।।
त्र्यस्त्रं स्वस्तिकयुक्तञ्च तैजसं वह्निदैवतं ।
वृत्तं विन्दुवृतं वायुदैवतं कृष्णमालिनम् ।। ६ ।।
अङ्गुष्ठाद्यङ्गुलीमध्ये पर्य्यस्तेषु स्ववेश्मसु ।
सुवर्णनागवाहेन वेष्टितेषु न्यसेत् क्रमात् ।। ७ ।।
वियतेश्चतुरो वर्णान् सुमण्डलसमत्विषः ।
अरूपे रवतन्मात्रे आकाशेशिवदेवते ।। ८ ।।
कनिष्ठामद्यपर्वस्थे न्यसेत्तस्याद्यमक्षरम् ।
नागानामादिवर्णांश्च स्वमण्डलगतान्न्यसेत् ।। ९ ।।
भूतादिवर्णान् विन्यसेदङ्गुष्ठाद्यन्तपर्वसु ।
तन्मात्रादिगुणाभ्यर्णानङ्गुलीषु न्यसेद्बुधः ।। १० ।।
स्पर्शनादेव तार्क्षेण हस्ते हन्याद्विषद्वयं ।
मण्डलादिषु तान् वर्णान् वियतेः कवयो जितान् ।। ११ ।।
श्रेष्ठद्वय्ह्गुलिभिर्द्देहनाभिस्थानेषु पर्वसु ।
आजानुतः सुवर्णाभमानाभेस्तुहिनप्रभम् ।। १२ ।।
कुङ्कुमारुणमाकण्ठादाकेशान्तात् सितेतरं ।
ब्रह्माण्डव्यापिनं तार्क्षञ्चन्द्राख्यं नागभूषणम् ।। १३ ।।
नीलोग्रनाशमात्मानं महापक्षं स्मरेद्बुधः ।
एवन्तार्क्षात्मनो वाक्यान्मन्त्रः स्यान्मन्त्रिणो विषे ।। १४ ।।
मुष्टिस्तार्क्षकरस्यान्तः स्थिताङ्गुष्ठविषापहा ।
तार्क्षं हस्तं समुद्यम्य तत्पञ्चाङ्गुलिचालनात् ।। १५ ।।
कुर्य्याद्विषस्य स्तम्भादींस्तदुक्तमदवीषया ।
आकाशादेष भूवीजः पञ्चर्णाधिपतिर्म्मनुः ।। १६ ।।
संस्तम्भयेतिविषतो भाषया स्तम्भयेद्विषम् ।
व्यत्यस्तभूषया वीजो मन्त्रोऽयं साधुसाधितः ।। १७ ।।
संप्लवः प्लावय यमः शब्दाद्यः संहरेद्विषं ।
दण्डमुत्थापयेदेष सुजप्ताम्भोऽभिषेकतः ।। १८ ।।
सुजप्तशङ्खभेर्य्यादिनिस्वनश्रवणेन वा ।
संदहत्येव संयुक्तो भूतेजोव्यत्ययात् स्थितः ।। १९ ।
भूवायुव्यत्ययान्मन्त्रो विषं संक्रामयत्यसौ ।
अन्तस्थो निजवेश्मस्थो वीजाग्नीन्दुजलात्मभिः ।। २० ।।
एतत् कर्म्म नयेन्मन्त्री गरुड़ाकृतिविग्रहः ।
तार्क्षवरुणगेहस्थस्तज्जपान्नाशयेद्विषम् ।। २१ ।।
जानुदण्डीदमुदितं स्वधाश्रीवीजल्छितं ।
स्नानपानात्सर्व्वविषं ज्वरारोगापमृत्युजित् ।। २२ ।।
पक्षि पक्षि महापक्षि महापक्षि विधि स्वाहा ।
पक्षि पक्षि महापक्षि महापक्षि क्षि क्षि स्वाहा ।। २३ ।।
द्वावेतौ पक्षिराड्मन्त्रौ विषघ्नावभिमन्त्रणात् ।
पक्षिराजाय विद्महे पक्षिऽदेवाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ।
वह्निस्थौ पार्श्वतत्पूर्वौ दन्तश्रीकौ च दण्डिनौ ।। २४ ।।
हर हर हृदयाय नमः कपर्द्दिने च शिरसे नीलकण्ठाय वै शिखांकालकूटविषभक्षणाय स्वाहा ।
अथ वर्म्म च कण्ठे नेत्रं कृत्तिवासास्त्रिनेत्रं पूर्वाद्यैराननैर्युक्तं स्वेतपीतारुणासितैः ।। २५ ।।
अभयं वरदं चापं वासुकिञ्च दधद्भुजैः ।
यस्योपरीतपार्श्वस्थगौरीरुद्रोऽस्य देवता ।। २६ ।
पादजानुगुहानाभिहृत्कण्ठाननमूर्द्धसु ।
मन्त्रार्णान्न्यस्य करयोरङ्गुष्ठाद्यङ्गुलीषु च ।। २७ ।।
तर्ज्जन्यादितदन्तासु सर्वमङ्गुष्ठयोर्न्न्यसेत् ।
ध्यात्वैवं संहरेत् क्षिप्रं वद्धया शूलमुद्रया ।। २८ ।।
कनिष्ठा ज्येष्ठया वद्धा तिस्रोऽन्याः प्रसृतेर्ज्जवाः ।
विषनाशे वामहस्तमन्यस्मिन् दक्षिणं करं ।। २९ ।।
ओं नमो भगवते नीलकण्ठाय चिः अमलकण्ठाय चिः ।
सर्वज्ञकण्ठाय चिः क्षिप ओं स्वाहा ।
अमलनीलकण्ठाय नैकसर्वविषापहाय ।
नमस्ते रुद्रमंन्यव इति सम्मार्ज्जनाद्विपं विनश्यति-
न सन्देहः कर्णजाप्या उपानहावा ।
यजेद्रुद्रविधाने नीलग्रीवं महेश्वरम् ।
विषव्याधिविनाशः स्यात् कृत्वा रुद्रविधानकं ।। ३० ।।
इत्यादिमहा पुराणे आग्नेये दष्टचिकित्सा नाम पञ्चनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 295 Chapter!-In Hindi
दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय - दष्ट-चिकित्सा
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं मन्त्र, ध्यान और ओषधिके द्वारा सौंपके द्वारा डॅसे हुए मनुष्यकी चिकित्साका वर्णन करता हूँ। 'ॐ नमो भगवते नीलकण्ठाय' इस मन्त्रके जप से विषका नाश होता है। घृतके साथ गोबरके रसका पान करे। यह ओषधि सौंपके डसे हुए मनुष्यके जीवनकी रक्षा करती है। विष दो प्रकारके कहे जाते हैं- 'जङ्गम' विष, जो सर्प और मूषक आदि प्राणियोंमें पाया जाता है एवं दूसरा 'स्थावर' विष, जिसके अन्तर्गत शृङ्गी (सिंगिया) आदि विषभेद हैं ॥ १-२ ॥
शान्तस्वरसे युक्त ब्रह्मा (क्षौं), लोहित (हीं तारक (ॐ) और शिव (हौं) यह चार अक्षरों का वियति सम्बन्धी नाम मन्त्र है। इसे शब्दमय ताक्ष्य (गरुड) माना गया है॥ ३-४॥
'ॐ ज्वल महामते हृदयाय नमः, गरुड विशाल शिरसे स्वाहा, गरुड शिखायै वषट्, गरुडविषभञ्जन प्रभेदन प्रभेदन वित्रासय वित्रासय विमईंय विमईय कवचाय हुम्, उग्ररूपधारक सर्वभयंकर भीषय भीषय सर्वं दह दह भस्मीकुरु कुरु स्वाहा, नेत्रत्रयाय वौषट्।
अप्रतिहतशासनं वं हूं फट् अस्त्राय फट्।'
मातृकामय कमल बनावे। उसके आठों दिशाओं में आठ दल हों। पूर्वादि दलों में दो दोके क्रम से समस्त स्वरवर्णों को लिखे। कवर्गादि सात वर्गों के अन्तिम दो-दो अक्षरों का भी प्रत्येक दल में उल्लेख करे। उस कमल के के सरभाग को वर्गके आदि अक्षरों से अवरुद्ध करे तथा कर्णिका में अग्रिबीज 'रं' लिखे। मन्त्र का साधक उस कमल को हृदयस्थ करके बायें हाथ की हथेलीपर उसका चिन्तन करे। अङ्गुष्ठ आदि में वियति-मन्त्र के वर्णों का न्यास करे और उनके द्वारा भेदित कलाओं का भी चिन्तन करे। तदनन्तर चौकोर 'भू-पुर' नामक मण्डल बनावे, जो पीले रंग का हो और चारों ओरसे वज्रद्वारा चिह्नित हो। यह मण्डल इन्द्रदेवता का होता है। अर्धचन्द्रा कार वृत्त जल देवता-सम्बन्धी है। कमलका आधा भाग शुक्ल वर्ण का है। उसके देवता वरुण हैं। फिर स्वस्तिक चिह्न से युक्त त्रिकोणाकार तेजोमय वह्नि देवता के मण्डल का चिन्तन करे। वायु देवता का मण्डल बिन्दुयुक्त एवं वृत्ताकार है। वह कृष्ण माला से सुशोभित है, ऐसा चिन्तन करे ॥५-८॥
ये चार भूत अङ्गुष्ठ, तर्जनी, मध्यमा और ), अनामिका- इन चार अँगुलियोंके मध्यपर्वों में स्थित अपने निवासस्थानोंमें विराजमान हैं और सुवर्णमय नागवाहनसे इनके वासस्थान आवेष्टित हैं। इस प्रकार चिन्तनपूर्वक क्रमशः पृथ्वी आदि तत्त्वोंका अङ्गुष्ठ आदिके मध्यपर्वमें न्यास करे। साथ ही वियति मन्त्रके चार वर्षोंको भी क्रमशः उन्हींमें विन्यस्त करे। इन वर्षोंकी कान्ति उनके सुन्दर मण्डलोंके समान है। इस प्रकार न्यास करनेके पश्चात् रूपरहित शब्दतन्मात्रमय शिवदेवताके आकाशतत्त्व का कनिष्ठा के मध्यपर्वमें चिन्तन कर के उसके भीतर वेद मन्त्र के प्रथम अक्षरका न्यास करे। पूर्वोक्त नागोंके नामके आदि अक्षरोंका उनके अपने मण्डलोंमें न्यास करे। पृथ्वी आदि भूतोंके आदि अक्षरोंका अङ्गुष्ठ आदि अँगुलियों के अन्तिम पर्वोपर न्यास करे तथा विद्वान् पुरुष गन्धतन्मात्रादिके गन्धादि गुणसम्बन्धी अक्षरों का पाँचों अँगुलियों में न्यास करे ॥ ९-१२ ॥
इस प्रकार न्यास-ध्यानपूर्वक ताय मन्त्रसे रोगीके हाथका स्पर्शमात्र करके मन्त्रज्ञ विद्वान् उसके स्थावर जंगम दोनों प्रकारके विषोंका नाश कर देता है। विद्वान् पुरुष पृथ्वीमण्डल आदिमें विन्यस्त वियति मन्त्रके चारों वर्णोंका अपनी श्रेष्ठ दो अँगुलियोंद्वारा शरीरके नाभिस्थानों और पर्वोंमें न्यास करे। तदनन्तर गरुडके स्वरूपका इस प्रकार ध्यान करे- 'पक्षिराज गरुड दोनों घुटनोंतक सुनहरी आभासे सुशोभित हैं। घुटनोंसे लेकर नाभितक उनकी अङ्गकान्ति बर्फके समान सफेद है। वहाँसे कण्ठतक वे कुङ्कुमके समान अरुण प्रतीत होते हैं और कण्ठसे केशपर्यन्त उनकी कान्ति असित (श्याम) है। वे समूचे ब्रह्माण्डमें व्याप्त हैं। उनका नाम चन्द्र है और वे नागमय आभूषणसे विभूषित हैं। उनकी नासिकाका अग्रभाग नीले रंगका है और उनके पंख बड़े विशाल हैं।' मन्त्रज्ञ विद्वान् अपने-आपका भी गरुडके रूपमें ही चिन्तन करे। इस तरह गरुडस्वरूप मन्त्रप्रयोक्ता पुरुषके वाक्यसे मन्त्र विषपर अपना प्रभाव डालता है। गरुडके हाथकी मुट्ठी रोगीके हाथमें स्थित हो तो वह उसके अङ्गुष्ठमें स्थित विषका विनाश कर देती है। मन्त्रज्ञ पुरुष अपने गरुडस्वरूप हाथको ऊपर उठाकर उसकी पाँचों अँगुलियोंके चालनमात्रसे विषसे उत्पन्न होनेवाले मदपर दृष्टि रखते हुए उस विषका स्तम्भन आदि कर सकता है॥ १३-१७ ॥
आकाशसे लेकर भू-बीजपर्यन्त जो पाँच बीज हैं, उन्हें 'पञ्चाक्षर मन्त्रराज' कहा गया है। (उसका स्वरूप इस प्रकार है है, यं, रं, वं, लं।) अत्यन्त विषका स्तम्भन करना हो तो इस मन्त्रके उच्चारणमात्रसे मन्त्रज्ञ पुरुष विषको रोक देता है। यह 'व्यत्यस्तभूषण' बीजमन्त्र है। अर्थात् इन बीजोंको उलट-फेरकर बोलना इस मन्त्रके लिये भूषणरूप है। इसको अच्छी तरह साथ लिया जाय और इसके आदिमें 'संप्लवं प्लावय प्लावय'- यह वाक्य जोड़ दिया जाय ती मन्त्र-प्रयोक्ता पुरुष इसके प्रयोगसे विषका संहार कर सकता है॥ १८-१९ ॥
इस मन्त्रके भलीभाँति जपसे अभिमन्त्रित जल के द्वारा अभिषेक करनेमात्रसे यह मन्त्र अपने प्रभाव द्वारा उस रोगी से डंडा उठवा सकता है, अथवा मन्त्रजपपूर्वक की गयी शङ्खभेर्यादिकी ध्वनिको सुननेमात्रसे यह प्रयोग रोगीके विषको अवश्य ही दग्ध कर देता है। यदि भू-बीज 'लं' तथा तेजोबीज 'रं' को उलटकर रखा जाय, अर्थात् 'हं, यं, लं, वं, रं' इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप कर दिया जाय तो उस का प्रयोग भी उपर्युक्त फल का साधक होता है। अर्थात् उससे भी विषका दहन हो जाता है। भू-बीज और वायु-बीजका व्यत्यय करनेसे जो मन्त्र बनता है वह (हे लं रंवं यं) विषका संक्रामक होता है, अर्थात् उसका अन्यत्र संक्रमण करा देता है। मन्त्र-प्रयोक्ता पुरुष रोगी के समीप बैठा हो या अपने घरमें स्थित हो, यदि गरुडके स्वरूपका चिन्तन तथा अपने आपमें भी गरुडकी भावना करके 'रं वं,' इन दो ही बीजोंका उच्चारण (जप) करे तो इस कर्मको सफल बना सकता है। गरुड और वरुणके मन्दिर में स्थित होकर उक्त मन्त्रका जप करनेसे मन्त्रज्ञ पुरुष विषका नाश कर देता है। 'स्वधा' और श्री के बीजों से युक्त करके यदि इस मन्त्रको बोला जाय तो इसे 'जानुदण्डि मन्त्र' कहते हैं। इसके जप पूर्वक स्नान और जलपान करनेसे साधक सब प्रकारके विष, ज्वर, रोग और अपमृत्यु पर विजय पा लेता है ॥ २०-२४॥
१-पक्षि पक्षि महापक्षि महापक्षि वि वि स्वाहा।
२-पक्षि पक्षि महापक्षि महापक्षि क्षि क्षि स्वाहा ॥
- ये दो पक्षिराज गरुडके मन्त्र हैं। इनके द्वारा अभिमन्त्रण करने, अर्थात् इनके जपपूर्वक रोगीको झाड़नेसे ये दोनों मन्त्र विषके नाशक होते हैं ॥ २५-२६ ॥
'पक्षिराजाय विद्महे पक्षिदेवाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात्।'- यह गरुड-गायत्रीमन्त्र है॥ २७॥
उपर्युक्त दोनों पक्षिराज मन्त्रोंको 'रं' बीजसे आवृत्त करके उनके पार्श्वभागमें भी 'रं' बीज जोड़ दे। तदनन्तर दन्त, श्री, दण्डि, काल और लाङ्गलीसे उन्हें युक्त कर दे और आदिमें पूर्वोक्त 'नीलकण्ठ मन्त्र' जोड़ दे। इस प्रकार बताये गये मन्त्रका वक्षःस्थल, कण्ठ और शिखामें न्यास करे। उक्त दोनों मन्त्रोंका संस्कार करके उन्हें स्तम्भमें अङ्कित करे ॥ २८ ॥
इसके पश्चात् निम्नाङ्कित रूपसे न्यास करे 'हर हर स्वाहा हृदयाय नमः। कपर्दिने स्वाहा शिरसे स्वाहा। नीलकण्ठाय स्वाहा शिखायै वषट्। कालकूटविषभक्षणाय हुं फट् कवचाय हुम्।' इससे भुजाओं तथा कण्ठका स्पर्श करे। 'कृत्तिवाससे नेत्रत्रयाय वौषट् नीलकण्ठाय स्वाहा अस्त्राय फट् ॥ २९ ॥
जिनके पूर्व आदि मुख क्रमशः श्वेत, पीत, अरुण और श्याम हैं, जो अपने चारों हाथोंमें क्रमशः अभय, वरद, धनुष तथा वासुकि नागको धारण करते हैं, जिनके गलेमें यज्ञोपवीत शोभा पाता है और पार्श्वभागमें गौरीदेवी विराजमान हैं, वे भगवान् रुद्र इस मन्त्रके देवता हैं। दोनों पैर, दोनों घुटने, गुह्यभाग, नाभि, हृदय, कण्ठ और मस्तक-इन अङ्गोंमें मन्त्रके अक्षरोंका न्यास करके दोनों हाथोंमें अङ्गुष्ठ आदि अँगुलियोंमें अर्थात् तर्जनीसे लेकर तर्जनीपर्यन्त अँगुलियोंमें मन्त्राक्षरोंका न्यास करके सम्पूर्ण मन्त्रका अङ्गुष्ठोंमें न्यास करे ॥ ३०-३२ ॥
इस प्रकार ध्यान और न्यास करके शीघ्र ही बँधी हुई शूलमुद्राद्वारा विषका संहार करे। कनिष्ठा अँगुली ज्येष्ठासे बंध जाय और तीन अन्य अँगुलियाँ फैल जायें तो 'शूलमुद्रा' होती है। विषका नाश करनेके लिये बायें हाथका और अन्य कार्यमें दक्षिण हाथका प्रयोग करना चाहिये ॥ ३३-३४॥
ॐ नमो भगवते नीलकण्ठाय चिः। अमलकण्ठाय चिः।
सर्वज्ञकण्ठाय चिः। क्षिप क्षिप ॐ स्वाहा।
अमलनीलकण्ठाय नैकसर्पविषायहाय। नमस्ते रुद्र मन्यवे।
- इस मन्त्रको पढ़कर झाड़नेसे विष नष्ट हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। रोगीके कानमें जप करनेसे अथवा मन्त्र पढ़ते हुए जूतेसे रोगीके पासकी भूमिपर पीटनेसे विष उतर जाता है। रुद्रविधान करके उसके द्वारा नीलकण्ठ महेश्वरका यजन करे। इससे विष-व्याधिका विनाश हो जाता है ॥ ३५-३६ ॥
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