अग्नि पुराण तीन सौ अठारहवाँ अध्याय ! Agni Purana 318 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ अठारहवाँ अध्याय ! Agni Purana 318 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ अठारहवाँ अध्याय - गणपूजा

ईश्वर उवाच

विश्वरूपं समुद्धृत्य तेजस्युपरि संस्थितम् ।
नरसिंहं ततोऽधस्तात्कृतान्तं तदधो न्यसेत् ॥ १

प्रणवं तदधःकृत्वा ऊहकं तदधः पुनः ।
अंशुमान् विश्वमूर्तिस्थं कण्ठोष्ठप्रणवादिकम् ॥ २

नमोऽन्तः स्याच्चतुर्वर्णो विश्वरूपञ्च कारणम् ।
सूर्यमात्राहतं ब्रह्मण्यङ्गानीह तु पूर्ववत् ॥ ३

उद्धरेत्प्रणवं पूर्वं प्रस्फुरद्वयमुच्चरेत् ।
घोरघोरतरं पश्चात्तत्र रूपमतः स्मरेत् ॥ ४

चटशब्दं द्विधा कृत्वा ततः प्रवरमुच्चरेत् ।
दहेति च द्विधा कार्यं वमेति च द्विधा गतम् ॥ ५

घातयेति द्विधाकृत्य हूंफडन्तं समुच्चरेत् ।
अघोरास्त्रन्तु नेत्रं स्याद्गायत्री चोच्यतेऽधुना ॥६

तन्महेशाय विद्महे महादेवाय धीमहि ।
तत्रः शिवः प्रचोदयात्गायत्री सर्वसाधनी ॥६

यात्रायां विजयादौ च यजेत्पूर्वङ्गणं श्रिये ।
तुर्यांशे तु पुरा क्षेत्रे समन्तादर्कभाजिते ॥७

चतुष्पदं त्रिकोणे तु त्रिदलं कमलं लिखेत् ।
तत्पृष्ठे पदिकाविथीभागि त्रिदलमश्वयुक् ॥८

वसुदेवसुतैः साब्जैस्तिदलैः पादपट्टिका ।
तदूर्ध्वे वेदिका देया भगमात्रप्रमाणतः ॥९

द्वारं पद्ममितं कोष्ठादुपद्वारं विवर्णितम् ।
द्वारोपद्वाररचितं मण्डलं विघ्नसूदनम् ॥१०

आरक्तं कमलं मध्ये वाह्यपद्मानि तद्वहिः ।
सिता तु वीथिका कार्या द्वाराणि तु यथेच्छया ॥११

कर्णिका पीतवर्णा स्यात्केशराणि तथा पुनः ।
मण्डलं विघ्नमर्दाख्यं मध्ये गणपतिं यजेत् ॥१२

नामाद्यं सवराकं स्याद्देवाच्छक्रसमन्वितम् ।
शिरो हतं तत्पुरुषेण ओमाद्यञ्च नमोऽन्तकम् ॥१३

गजाख्यं गजशीर्षञ्च गाङ्गेयं गणनायकम् ।
त्रिरावर्तङ्गगनगङ्गोपतिं पूर्वपङ्क्तिगम् ॥१४

विचित्रांशं महाकायं लम्बोष्ठं लम्बकर्णकम् ।
लम्बोदरं महाभागं विकृतं पार्वतीप्रियम् ॥१५

भयावहञ्च भद्रञ्च भगणं भयसूदनम् ।
द्वादशैते दशपङ्क्तौ देवत्रासञ्च पश्चिमे ॥१६

महानादम्भास्वरञ्च विघ्नराजं गणाधिपम् ।
उद्भटस्वानभश्चण्डौ महाशुण्डञ्च भीमकम् ॥१७

मन्मथं मधुसूदञ्च सुन्दरं भावपुष्टकम् ।
सौम्ये ब्रह्मेश्वरं ब्राह्मं मनोवृत्तिञ्च संलयम् ॥१८

लयं दूत्यप्रियं लौल्यं विकर्णं वत्सलं तथा ।
कृतान्तं कालदडण्च यजेत्कुम्भञ्च पूर्ववत् ॥१९

श्रयुतञ्च जपेन्मन्त्रं होमयेत्तु दशांशतः ।
शेषाणान्तु दशाहुत्या जपाद्धोमन्तु कारयेत् ॥२०

पूर्णां दत्वाभिषेकन्तु कुर्यात्सर्वन्तु सिध्यति ।
भूगोऽश्वगजवस्त्राद्यैर्गुरुपूजाञ्चरेन्नरः ॥२१

इत्याग्नेये महापुराणे गणपूजा नाम अष्टादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।।

अग्नि पुराण - तीन सौ अठारहवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 318 Chapter!-In Hindi

तीन सौ अठारहवाँ अध्याय - अन्तःस्थ, कण्ठोष्ठ तथा शिव स्वरूप मन्त्रका वर्णन; अघोरास्त्र-मन्त्र का उद्धार; 'विघ्न मर्द' नामक मण्डल तथा गणपति-पूजन की विधि

भगवान् शिव कहते हैं- स्कन्द ! जिसके ऊपर तेज (र्) हो, ऐसे विश्वरूप (हु) को उद्धृत करके फिर नरसिंह (क्ष) के नीचे कृतान्त (म्) रखे। उसके अन्तमें 'प्रणव' लगा दे। ऐसा कर 'हूक्ष्मों' बना। इसके बाद ऊहक (ऊ), अंशुमान्  तथा विश्व (ह) को संयुक्त करे। इससे 'हूं' बनेगा। ये दोनों क्रमशः अन्तःस्थ और कण्ठोष्ठ कहे गये हैं। (र्) अन्तःस्थ वर्ण आदिमें होनेसे उस पूरे मन्त्रकी 'अन्तःस्थ' संज्ञा हुई है। दूसरे मन्त्रमें है. कण्ठ स्थानीय है और ऊकार ओष्ठस्थानीय; अतः उसे 'कण्ठोष्ठ' नाम दिया गया है। इनके अन्तमें 'नमः' जोड़ देनेसे ये दोनों मन्त्र चार अक्षरवाले हो जाते हैं। यथा ॐ रहूक्ष्मों नमः। ॐ हूं नमः।' विश्वरूप (हकार) कारण माना गया है। उसे बारह मात्राओंसे गुणित करे। इन बारहमेंसे पाँच हस्व-बीजोंद्वारा पूर्ववत् 'ईशान' आदि पाँच ब्रह्ममूर्तियोंकी पूजा करे और दीर्घात्मक छः बीजोंद्वारा पहलेकी ही भाँति यहाँ अङ्गन्यासका कार्य सम्पन्न करे ॥ १-३॥

[ अब अघोरास्व-मन्त्रका उद्धार करते हैं-] 'ह्रीं' लिखकर दो बार 'स्फुर-स्फुर' लिखे। इसके बाद इन दोनोंके आदिमें 'प्र' जोड़कर पुनरुल्लेख करे- 'प्रस्फुर प्रस्फुर।' तत्पश्चात् 'कह', 'वम' और 'बन्ध' इन तीनों पदोंको दो-दो बार लिखे। फिर दो बार 'घातय' लिखकर अन्तमें 'हुं फट् 'का उच्चारण करे। (सब जोड़नेपर ऐसा बनता है- 'ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोर घोरतरतनुरूप घट घट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बन्ध बन्ध घातय घातय हुं फट्।' इक्यावन अक्षरोंका मन्त्र है।) इस प्रकार अघोरास्त्र मन्त्र' होता है। (इसके विनियोग और न्यास आदिको विधि 'श्रीविद्यार्णव-तन्त्र' के ३०वें श्वासमें द्रष्टव्य है।) अब 'शिव-गायत्री' बतायी जाती है। 'महेशाय विग्रहे। महादेवाय धीमहि। तन्नः शिवः प्रचोदयात्।'- यह 'शिव-गायत्री' (ही पूर्वाध्यायमें कथित प्रासाद-मन्त्रका आठवाँ भेद 'शिव-रूप' है।) सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको सिद्ध करनेवाली है ॥४-७॥ 

यात्रामें तथा विजय आदिके कार्यमें पहले गणकी पूजा करनी चाहिये; इससे 'श्री'की प्राप्ति होती है। पहले चौकोर क्षेत्रको सब ओरसे बारह बारह कोष्ठोंमें विभाजित करे। [ऐसा करनेसे एक सौ चौवालीस पदोंका चतुष्कोण क्षेत्र बनेगा। मध्यवर्ती चार पदोंमें त्रिकोणकी रचना करके उसके बीचमें तीन दलोंसे युक्त कमल लिखे। उसके पृष्ठभागमें पदिका और वीथीके भागमें तीन दलवाला अश्वयुक्त कमल बनावे। तदनन्तर वसुदेव-पुत्रों (वासुदेव, संकर्षण और गद) से, जो तीन दलवाले कमलोंसे सुशोभित हैं, पादपट्टिकाका निर्माण करे। उसके ऊपर भागमात्रके प्रमाणसे एक वेदीकी रचना करे। पूर्वादि दिशाओंमें द्वार तथा कोणभागोंमें उपद्वारकी रचना करे। इस प्रकार द्वारों तथा उपद्वारोंसे रचित मण्डल विघ्ननाशक है। मध्यमें जो कमल है, वह आरक्त वर्णका हो। 

उसके बाहरके कमल भी वैसे ही हों। वीथी श्वेतवर्णकी होनी चाहिये। द्वारोंका रंग अपने इच्छानुसार रख सकते हैं। कर्णिका पीले रंगसे रंगी जायगी तथा केसर भी पीले ही होंगे। यह 'विघ्नमर्द' नामक मण्डल है। इसके मध्यभागमें गणपतिका पूजन करे। नामका आदि अक्षर अनुस्वारसहित बोलकर आदिमें 'ओं' और अन्तमें 'नमः' जोड़ दे। (यथा- ॐ गं गणपतये नमः।') ह्रस्वान्त बीजोंसे युक्त ईशान-तत्पुरुषादि मन्त्रोंसे ब्रह्ममूर्तियोंका पूजन तथा दीर्घान्त बीजोंसे हृदय, सिर आदि अङ्गोंमें न्यास करे। उपर्युक्त मण्डलकी पूर्वदिशागत पङ्किमें गज, गजशीर्ष (गजानन), गाङ्गेय, गणनायक, गगनग तथा गोपति- इन नामोंका उल्लेख करे। इनमेंसे अन्तिम दो नामोंकी तीन आवृत्तियाँ होंगी। (इस प्रकार ये दस नाम दस कोष्ठोंमें लिखे जायेंगे और किनारेके एक-एक कोष्ठ खाली रहेंगे, जो दक्षिण-उत्तरकी नामावलीसे भरेंगे।) ॥ ८-१५॥ 

विचित्रांश, महाकाय, लम्बोष्ठ, लम्बकर्ण, लम्बोदर, महाभाग, विकृत (विकट), पार्वती- प्रिय, भयावह, भद्र, भगण और भयसूदन ये बारह नाम दक्षिण दिशाकी पडिमें लिखे। पश्चिममें देवत्रास, महानाद, भासुर, विघ्नराज, गणाधिप, उद्भटस्वन, उद्भटशुण्ड, महाशुण्ड, भीम, मन्मथ, मधुसूदन तथा सुन्दर और भावपुष्ट- ये नाम लिखे। फिर उत्तर दिशामें ब्रह्मेश्वर, ब्राह्म- मनोवृत्ति, संलय, लय, नृत्यप्रिय, लोल, विकर्ण, वत्सल, कृतान्त, कालदण्ड तथा कुम्भका पूर्ववत् उल्लेख करके इन सबका यजन करे ॥ १६-२०॥ 

पूर्वोक्त मन्त्रका दस हजार जप और उसके दशांशसे होम करे। शेष नाम मन्त्रोंका दस-दस बार जप करके उनके लिये एक-एक बार आहुति दे। तत्पश्चात् पूर्णाहुति देकर अभिषेक करे। इससे सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होता है। साधक भूमि, गौ, अश्व, हाथी तथा वस्त्र आदि देकर गुरुदेवकी पूजा करे ॥ २१ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'गणपति पूजनके विधानका कथन' नामक तीन सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१८॥

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