अग्नि पुराण तीन सौ एकवाँ अध्याय ! Agni Purana 301 Chapter !
अग्नि पुराण 301 अध्याय - सूर्य्यार्च्चनम्
धन्वन्तरिरुवाच
शय्या तु दण्डिसाजेशपावकश्चतुराननः ।
सर्व्वार्थसाधकमिदं वीजं पिण्डार्थमुच्यते ।। १ ।।
स्वयं दीर्घस्वराकग्यञ्च वीजेष्वङ्गानि सर्वशः ।
खातं साधु विषञ्चैव सनिन्दुं सकलं तथा ।। २ ।।
गणस्य पञ्च वीजानि पृथग्दृष्टफलं महत् ।
गणं जयाय नमः एकदंष्ट्राय अचलकर्णिने गजवक्ताय महोदरहस्ताय ।।
पञ्चाङ्गं सर्व्वसामान्यं सिद्धिः स्याल्लक्षजाप्यतः ।। ३ ।।
गणाधिपतये गणेश्वराय गणनायकाय गणक्रीडाय ।
दिग्दले पूजयेन्नमूर्त्तीः पुरावच्चाङ्गपञ्चकम् ।। ४ ।।
वक्रतुण्डाय एकदंष्ट्राय महोदराय गजवक्त्राय ।
विकटाय विघ्नराजाय धूम्रवर्णाय ।
दिग्विदिक्षु यजेदेतांल्लोकांशांश्चैव मुद्रया ।। ४ ।।
मध्यामातर्ज्जनीमध्यागताङ्गुष्ठौ समुष्टिकौ ।
चुर्भुजो मोदकाढ्यो दण्डपाशाङ्कुशान्वितः ।। ५ ।।
दन्तभक्षधरं रक्तं साब्जं पाशाङ्कुशैर्वृतम् ।
पूजयेत्तं चतुर्थ्याञ्च विशेषेनाथ नित्यशः ।। ६ ।।
श्वेतार्कमूलेन कृतं सर्व्वाप्तिः स्यात्तिलैर्घृतैः ।
तण्डुलैर्दधिमध्वाज्यैः सौभाग्यं वश्यता भवेत् ।। ७ ।।
घोषासृक्प्राणधात्वर्दी दण्डी मार्त्तण्डभैरवः ।
धर्म्मार्थकाममोक्षाणां कर्त्ता विम्बपुटावृतः ।। ८ ।।
ह्रस्वाः स्युर्मूर्त्तयः पञ्च दीर्घा अङ्गानि तस्य च ।
सिन्दूरारुणमीशाने वामार्द्धदयितं रविं ।। ९ ।।
आग्नेयादिषु कोणेषु कुजमन्दाहिकेतवः ।
स्नात्वा विधिवदादित्यमाराध्यार्घ्यपुरःसरं ।। १० ।।
कृतान्तमैशे निर्म्माल्यं तेजश्चण्डाय दीपितं ।
रोचना कुङ्कुमं वारि रक्तागन्धाक्षताङ्कुराः ।। ११ ।।
वेणुवीजयवाः शालिश्यामाकतिलराजिकाः ।
जवापुष्पान्वितां दत्वा पात्रैः शिरसि धार्य्य तत् ।। १२ ।।
जानुभ्यामवनीङ्गत्वा सूर्य्यायार्घ्यं निवेदयेत् ।
स्वविद्यामन्त्रितैः कुम्भैर्नवभिः प्रार्च्य वै महान् ।। १३ ।।
ग्र्हादिशान्तये स्नानं जप्त्वार्क्क सर्वमाप्नुयात् ।
संग्रामविजयं साग्निं वीजदोषं सविन्दुकं ।। १४ ।।
न्यस्य मूर्द्धादिपादान्तं मूलं पूज्य तु मुद्रया ।
स्वाङ्गानि च यथान्यासमात्मानं भावयेद्रविं ।। १५ ।।
ध्यानञ्च मारणस्तम्भे पीतमाप्यायने सितम् ।
रिपुघातविधौ कृष्णं मोहयेच्छक्रचापवत् ।। १६ ।।
योऽभिषेकजपध्यानपूजाहोमपरः सदा ।
तेजस्वी ह्यजयः श्रीमान् समुद्रादौ जयं लभेत् ।। १७ ।।
ताम्बूलादाविदं न्यस्य जप्त्वा दद्यादुशीरकं ।
न्यस्तवीजेन हस्तेन स्पर्शनं तद्वशे स्मृतम्।। १८ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये सूर्यार्च्चनं नामैकाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ एकवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 301 Chapter!-In Hindi
तीन सौ एकवाँ अध्याय - सिद्धि-गणपति आदि मन्त्र तथा सूर्य देव की आराधना
अग्रिदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! शाङ्गी (गकार), दण्डी (अनुस्वारयुक्त) हो, उसके साथ पद्येश विष्णु (ईकार) और पावक (रकार) हो तो इन चार अक्षरोंके मेलसे पिण्डीभूत बीज (ग्रीं) प्रकट होता है। यह सर्वार्थसाधक माना गया है। उपर्युक्त बीजके आदिमें क्रमशः दीर्घ स्वरोंको जोड़कर उनके द्वारा अङ्गन्यास करे। यथा 'ग्रां हृदयाय नमः। ग्रीं शिरसे स्वाहा। यूं शिखायै वषट् । मैं कवचाय हुम्। ग्राँ नेत्रत्रयाय वौषट्। ग्रः अस्त्राय फट्।' ('ग' इस एकाक्षर बीजसे भी इसी प्रकार न्यास करना चाहिये। उसमें दीर्घ स्वर जोड़नेपर क्रमशः 'गां गीं गूं मैं गीं गः' ये छः बीज बनेंगे।) अन्त (विसर्ग), विष (म्) - इनसे युक्त खान्त (ग) का उच्चारण किया जाय। ऐसा करनेसे 'गं', 'गः' ये दो बीज प्रकट हुए। औकार और बिन्दुसे युक्त 'गौं' तीसरा बीज है। बिन्दु और कला दोनोंसे युक्त 'गंः' यह चौथा बीज और केवल गकार पाँचवाँ बीज है। इस प्रकार विघ्नराज गणपतिके ये पाँच बीज हैं, जिनके पृथक् पृथक् फल देखे गये हैं ॥ १-३॥
गणेशसम्बन्धी मन्त्रोंके लिये सामान्य पञ्चाङ्गन्यास 'गणंजयाय स्वाहा हृदयाय नमः। एकदंष्ट्राय हुं फट् शिरसे स्वाहा। अचलकर्णिने नमो नमः शिखायै वषट् । गजवक्त्राय नमो नमः कवचाय हुम्। महोदरहस्ताय चण्डाय हुं फट्, अस्त्राय फट्।' यह सर्वसामान्य पञ्चाङ्ग है। उक्त एकाक्षर बीज-मन्त्रके एक लाख जपसे सिद्धि प्राप्त होती है ॥ ४-५ ॥
अष्टदल कमल बनाकर उसके दिग्वर्ती दलोंमें गणेशजीके चार विग्रहोंका पूजन करे। इसी प्रकार वहाँ क्रमशः पाँच अङ्गोंकी भी पूजा करनी चाहिये। विग्रहोंके पूजन सम्बन्धी मन्त्र इस प्रकार हैं- १-गणाधिपतये नमः। २-गणेश्वराय नमः ३-गणनायकाय नमः। ४-गणक्रीडाय नमः। (हृदयादि चार अङ्गोंकी तो कोणवर्ती चार दलोंमें और अस्त्रकी मध्यमें पूजा करे।) 'वक्रतुण्डाय नमः। एकदंष्ट्राय नमः। महोदराय नमः। गजवक्राय नमः। लम्बोदराय नमः। विकटाय नमः। विघ्नराजाय नमः। धूम्रवर्णाय नमः।' इन आठ मूर्तियोंकी कमलचक्रके दिग्वर्ती तथा कोणवर्ती दलोंमें पूजा करे। फिर इन्द्रादि लोकपालों तथा उनके अस्त्रों की अर्चना करे। मुद्रा-प्रदर्शनद्वारा पूजन अभीष्ट है। मध्यमा तथा तर्जनीके मध्यमें अँगूठेको डालकर मुट्ठी बाँध लेना यह गणेशजीके लिये मुद्रा है। उनका ध्यान इस प्रकार करे- 'भगवान् गणेशके चार भुजाएँ हैं। वे एक हाथमें मोदक लिये हुए हैं और शेष तीन हाथोंमें दण्ड, पाश एवं अंकुशसे सुशोभित हैं। दाँतोंमें उन्होंने भक्ष्य- पदार्थ लड्डुको दबा रखा है और उनकी अङ्गकान्ति लाल है। वे कमल, पाश और अङ्कुशसे घिरे हुए हैं॥ ६-१०॥
गणेशजीकी नित्य पूजा करे, किंतु चतुर्थीको विशेषरूपसे पूजाका आयोजन करे। सफेद आककी जड़से उनकी प्रतिमा बनाकर पूजा करे। उनके लिये तिलकी आहुति देनेपर सम्पूर्ण मनोरथों की प्राप्ति होती है। यदि दही, मधु और घीसे मिले हुए चावलसे आहुति दी जाय तो सौभाग्यकी सिद्धि एवं वशित्वकी प्राप्ति होती है॥ ११ ॥
घोष (ह), असृक् (र), प्राण (य), शान्ति (औं), अर्धी (उ) तथा दण्ड (अनुस्वार)- यह सब मिलकर सूर्यदेवका 'हृधौ ॐ' ऐसा 'मार्तण्डभैरव' नामक बीज होता है। इसको बिम्ब-बीजसे सम्पुटित कर दिया जाय तो यह साधकोंको धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष- चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाला होता है। पाँच ह्रस्व अक्षरों को आदि में बीज बनाकर उनके द्वारा पाँच मूर्तियोंका न्यास करे। यथा- 'अं सूर्याय नमः। ई भास्कराय नमः। उं भानवे नमः। एं रखये नमः। ओं दिवाकराय नमः। दीर्घस्वरोंके बीजसे हृदयादि अङ्गन्यास करे। यथा आं हृदयाय नमः।' इत्यादि। इस प्रकार न्यास करके ध्यान करे-' भगवान् सूर्य ईशान कोण में विराजमान हैं। उनकी अङ्गकान्ति सिन्दूर के सदृश अरुण है। उनके आधे वामाङ्गमें उनकी प्राणवल्लभा विराज रही हैं॥ १२-१३ ॥
('श्रीविद्यार्णव-तन्त्र में मार्तण्डभैरव बीजको ही दीर्घ स्वरोंसे युक्त करके उनके द्वारा हृदयादि न्यासका विधान किया गया है। यथा- 'हृयां हृदयाय नमः।' 'हृीं शिरसे स्वाहा।' इत्यादि।) फिर ईशानकोणमें कृतान्तके लिये निर्माल्य और चण्डके लिये दीप्ततेज (दीपज्योति) अर्पित करे। रोचना, कुङ्कुम, जल, रक्त चन्दन, अक्षत, अङ्कुर, वेणुबीज, जौ, अगहनी, धानका चावल,सावाँ, तिल तथा राई और जपाके फूल अर्घ्यपात्रमें डाले। फिर उस अर्घ्यपात्रको सिरपर रखकर दोनों घुटने धरतीपर टिका दे और सूर्यदेव को अध्र्घ्य अर्पित करे। अपने मन्त्रसे अभिमन्त्रित नौ कलशों द्वारा ग्राहोंका पूजन करके ग्रहादिकी शान्तिके लिये शान्ति कलशके जलसे स्रान एवं सूर्यमन्त्रका जप करने से मनुष्य सब कुछ पा सकता है। (एक सौ अड़तालीसवें अध्याय में कथित) 'संग्राम विजय- मन्त्र में बीज पोषक बिन्दुयुक्त अग्रि-रकार अर्थात् 'र' जोड़कर उस सम्पूर्ण मन्त्रका मूर्धासे लेकर चरणपर्यन्त व्यापकन्यास करके मूलमन्त्र का, अर्थात् उसके उच्चारणपूर्वक सूर्यदेव का 'आवाहनी' आदि मुद्राओं के प्रदर्शन पूर्वक पूजन करे। तदनन्तर यथोक्त अङ्गन्यास करके अपने-आपका रविके रूप में चिन्तन करे। अर्थात् मेरी आत्मा सूर्य स्वरूप है, ऐसी भावना करे। मारण और स्तम्भनकर्म में सूर्यदेव के पीतवर्ण का, अप्यायन में श्वेतवर्ण का, शत्रुघात की क्रिया में कृष्णवर्ण का तथा मोहनक र्म में इन्द्रधनुष के समान वर्ण का चिन्तन करे। जो सूर्यदेवके अभिषेक, जप, ध्यान, पूजा और होमकर्ममें सदा तत्पर रहता है, वह तेजस्वी, अजेय तथा श्रीसम्पन्न होता है और युद्धमें विजय पाता है। ताम्बूल आदि में उक्त मन्त्र का न्यास करके जप पूर्वक उसमें खस का इत्र डाले तथा अपने हाथ में भी 'संग्राम विजय 'के बीजों का न्यास कर के उस हाथ से किसी को वह ताम्बूल अर्पण करे, अथवा उस हाथ से किसी का स्पर्श कर ले तो वह उसके वश में हो जाता है ॥ १४-२२॥
'इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'गणपति तथा सूर्यकी अर्चाका कथन' नामक तीन सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३०१॥
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