अग्नि पुराण तीन सौ सोलहवाँ अध्याय ! Agni Purana 316 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ सोलहवाँ अध्याय ! Agni Purana 316 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ सोलहवाँ अध्याय - नानामन्त्राः

अग्निरुवाच

आदौ हूँकारसंयुक्ताः खेचछे पदभूषिता ।
वर्गातीतविसर्गेण स्त्रीँ हूँक्षेपफड़न्तिक्रा ।। १ ।।

सर्व्वकर्म्मकरी विद्या विषसन्धादिमर्द्दनी ।
ओं क्षेचछेतिप्रयोगश्च कालदष्टस्य जीवने ।। २ ।।

ओं हूँ केक्षः प्रयोगोयं विषशत्रुप्रमर्द्दनः ।
स्त्रीं हूँ फडितियोगोयं पापरोगादिकं जयेत् ।। ३ ।।

खेछेति च प्रयोगोऽय विघ्नदुष्टादि वारयेत् ।
ह्रुँ स्त्रीँ ओमितियोगोऽयं योषिदाविवशीकरः ।। ४ ।।

खे स्त्रीँ खे च प्रयोगोऽयं वशाय विजयाय च ।
एँ ह्रीँ श्रीँ स्फँ कैँ क्षौँ भगवति अम्बिके कुब्जिके स्फँ ओं भं तं
वशनमो अवोराय मुखे व्राँ व्रीँ किलि किलि विच्चा स्फीँ हे स्फँ
 श्रईँ ह्रीँ ऐण श्रीमिति कुब्जिकाविद्या सर्व्वकरा स्मृता ।।

भूयःस्कन्दाय यानाह मन्त्रानीशश्च तान वहे ।। ५ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नानामन्त्र नाम षोडशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ सोलहवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 316 Chapter!-In Hindi

तीन सौ सोलहवाँ अध्याय त्वरिता आदि विविध मन्त्र एवं कुब्जिका विद्याका कथन

अग्निदेव कहते हैं- मुने। पहले 'हुँ' रखे, फिर 'खे चच्छे'- ये तीन पद जोड़कर मन्त्रकी शोभा बढ़ावे। तत्पश्चात् 'क्षः स्त्रीं हूं क्षे' लिखकर अन्तमें 'फट्' जोड़ दे। (कुल मिलाकर) 'हूं खेचच्छे क्षः स्वीं हूं क्षे ह्रीं फट्।' यह दशाक्षरा त्वरिता-विद्या हुई। यह विद्या समस्त कार्योंको सिद्ध करनेवाली तथा विष, सर्पादिका मर्दन करनेवाली है। 'खे च च्छे' यह त्र्यक्षर विद्या काल (अथवा काले साँप) के हँसे हुएको भी जीवन देनेवाली है॥ १-२ ॥ 

'ॐ हूं खे क्षः' इस चतुरक्षरी विद्याका प्रयोग विष एवं सर्पदंश की पीड़ा को नष्ट करने वाला है। (पाठान्तर 'विषशत्रुप्रमर्दनः' के अनुसार उक्त विद्या का प्रयोग विष एवं शत्रुकी बाधा को दूर करने वाला है।) 'स्त्रीं हूं फट्'- इस विद्याका प्रयोग पाप तथा रोग आदिपर विजय दिलाता है। 'खे च' इस द्वयक्षर मन्त्र का प्रयोग शत्रु एवं दुष्ट आदिकी बाधाको दूर करता है। 'हूं स्त्रीं ॐ' इस मन्त्रका प्रयोग स्त्री आदिको वशमें करनेवाला है। 'खे स्त्रीं खे'- इस मन्त्रका प्रयोग कालसर्पद्वारा हँसे गये मनुष्यके जीवनकी रक्षा करता है तथा शत्रुऑपर विजय दिलाता है। 'क्षः स्त्रीं क्षः' इसका प्रयोग वशी करण तथा विजय का साधक है॥ ३-५॥ 

कुब्जिका-विद्या

'ऐं ह्रीं श्रीं हसखफ्रें हसौः ॐ नमो भगवति हसखफ्रें कुब्जिके हसूं हस्तूं अधोरे घोरे अघोरमुखि छां छीं किणि किणि विच्चे हसौः हसखफ्रें श्रीं ह्रीं ऐं यह श्रीमती कुब्जिकाविद्या सब कार्योंको सिद्ध करनेवाली मानी गयी है ॥ ६ ॥

अब उन मन्त्रोंका वर्णन किया जायगा, जिनका उपदेश भगवान् शंकरने स्कन्दको दिया था॥ ७॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'त्वरिता आदि नाना मन्त्रोंका तथा कुब्जिका विद्याका वर्णन' नामक तीन सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१६॥

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