अग्नि पुराण दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 299 Chapter !
अग्नि पुराण दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय - बालग्रहहरबालतन्त्रम्
अग्निरुवाच
बालतन्त्रं प्रवक्ष्यामि बालादिग्रहमर्द्दनं ।
अथ जातदिने वत्सं ग्रही गृह्णाति पापिनी ।। १ ।।
गात्रोद्वेगो निराहारो नानाग्रीवाविवर्त्तनं ।
तच्चेष्टितमिदं तत्स्यान्मातृणाञ्च बलं हरेत् ।। २ ।।
मत्स्यमांससुराभक्ष्यगन्धस्रग्धूपदीपकैः ।
लिम्पेच्च धातकीलोध्रमञ्जिष्ठातालचन्दनैः ।। ३ ।।
महिषाक्षेण धूपश्च द्विरात्रे भीषणी ग्रही ।
तच्चेष्टा कासनिश्वासौ गात्रसङ्गोचनं मुहुः ।। ४ ।।
आजमूत्रैर्लिपेत् कृष्णासेव्यापामार्गचन्दनैः ।
गोश्रृङ्गदन्तकेशैश्च धूपयेत् पूर्ववद्वलिः ।। ५ ।।
ग्रही त्रिरात्रे घण्ठाली तच्चेष्टा क्रन्दनं मुहुः ।
जृम्भणं स्वनितन्त्रासो गात्रोद्वेगमरोचनं ।। ६ ।।
केशराञ्जनगोहस्तिदन्तं साजपयो लिपेत् ।
नखराजीविल्वदलैर्धूपयेच्च बलिं हरेत् ।। ७ ।।
ग्रही चतुर्थी काकोली गात्रोद्वेगप्ररोचनं ।
फेनोद्ग्णरो दिशो द़तकेशेन धूपयेत् ।। ८ ।।
गजदन्ताहिनिर्म्मोकवाजिमूत्रप्रलेपनं ।
सराजीनिम्बपत्रेण धूतकेशेन धूतकेशेन धूपयेत् ।। ९ ।।
हंसाधिका पञ्चमी स्याज्जृम्भाश्वासोद्र्ध्वधारिणी ।
मुष्टिबन्धश्च तच्चेष्टा बलिं मत्स्यादिना हरेत् ।। १० ।।
मेषश्रृड्गबलालोध्रशिलातालैः शिशुं लिपेत् ।
फट्कारी तु ग्रही षष्ठी भयमोहप्ररोदनं ।। ११ ।।
निराहरोऽह्गविक्षेणो हरेन्मत्स्यादिना बलिं ।
राजीगुग्गुलुकुष्ठे भदन्ताद्यैर्धूपलेपनैः ।। १२ ।।
सप्तमे मुक्तकेश्यार्त्तः पूतिगन्धो विजृम्भणं ।
सादः प्ररोदनङ्गासो धूपो व्याघ्रनशैर्लिपेत् ।। १३ ।।
वचागोमयगोमूत्रेः श्रीदणअडी चाष्टमे ग्रही ।
दिशो निरीक्षणं जिह्वाचालनङ्कासरोदनं ।। १४ ।।
वलिः पूर्वैव मत्स्याद्यैर्धूपलेपे च हिङ्गुला ।
वचासिद्धार्थलशुनैश्चोद्र्ध्वग्राही महाग्रही ।। १५ ।।
उद्वेजनोद्र्ध्वनिःश्वासः स्वमुष्टिद्वयखादनं ।
रक्तचन्दनकुष्ठाद्यैर्धूपयेल्लेपयेच्छिशुं ।। १६ ।।
कपिरोमनखैर्धूपो दशमी रोदनी ग्ररी ।
तच्चेष्टा रोदनं शश्वत् सुगन्धो नीलवर्णता ।। १७ ।।
धूपो निम्बेन भूतोग्रराजीसर्ज्जरसैर्ल्लिपेत् ।
बर्लि वहिर्हरेल्लाजकुल्माषकवकोदनम् ।। १८ ।।
यावत्त्रयोदशाहं स्यादेवं धूपादिका क्रिया ।
गृह्णाति मासिकं वत्सं पूतनासङ्कुली ग्रही ।। १९ ।।
काकवद्रोदनं स्वासो मूत्रगन्वोऽक्षिमीलनं ।
गोमूत्रस्नपनं त्स्य गोदन्तेन च धूपनम् ।। २० ।।
पीतवस्त्रं ददेद्रक्तस्रग्गन्धौ तैलदीपकः ।
त्रिविधं पायसम्मद्यं तिलमासञ्चतुर्व्विधम् ।। २१ ।।
करञ्जाधो यमदिशि सप्ताहं तैर्बलिं हरेत् ।
द्विमासिकञ्च मुकुटा वपुः शीतञ्च शीतलं ।। २२ ।।
छर्द्दिः स्यान्मुखशोषादिपुष्पगन्धांशुकानि च ।
अपूपमोदनं दोपः कृष्णं नीरादि धूपकम् ।। २३ ।।
तृतीये गोमुखी निद्रा सविण्मुत्रप्ररोदनम् ।
यवाः प्रियङ्गुः पलनं कुल्माषं शाकमोदनम् ।। २४ ।।
क्षीरं पूर्व्वे ददेन्मध्येऽहनि धूपश्च सर्पिषा ।
पञ्चभङ्गेन तत् स्नानं चतुर्थे पिङ्गलार्त्तिहृत् ।। २५ ।।
तनुः शीता पूतिगन्धः शोषः स म्रियते ध्रुवम् ।
पञ्चमी ललना गात्रसादः स्यान्मुखशोषणं ।। २६ ।।
अपानः पीतवर्णश्च मत्स्याद्यैर्द्दक्षइणे बलिः ।
षणअमासे पङ्कजा चेष्टा रोदनं विकृतः स्वरः ।। २७ ।।
मत्स्यमांससुराभक्तपुष्पगन्धादिभिर्बलिः ।
सप्तमे तु निराहारा पूतिगन्धादिदन्तरुक् ।। २८ ।।
पिष्टमांससुरामांसैर्बलिः स्याद्यमुनाष्टमे ।
विस्फोटशोषणाद्यं स्यात् तच्चिकित्सान्न कारयेत् ।। २९ ।।
नवमे कुम्भकर्ण्यार्त्तो ज्वरी च्छर्द्दति पालकम् ।
रोदनं मांसकुल्माषमद्याद्यैर्वैश्वके बलिः ।। ३० ।।
दशमे तापसी चेष्टा निराहारोक्षइमीलनम् ।
घण्टा पताका पिष्टोक्ता सुरामांसबलिः समे ।। ३१ ।।
राक्षस्येकादशी पीड़ा नेत्राद्यं न चिकित्सनम् ।
चञ्चला द्वादशे श्वासः त्रासादिकविचेष्टितम् ।। ३२ ।।
बलिः पूर्वऽथ मध्याह्ने कुल्माषाद्यैस्तिलादिभिः ।
यातना तु द्वितीयेऽब्दे यातनं रोदनादिकम् ।। ३३ ।।
तिलमांसमद्यमांसैर्बलिः स्नानादि पूर्ववत् ।
तृतीये रोदनी कम्पो रोदनं रक्तमूत्रकं ।। ३४ ।।
गुड़ौदनं तिलापूपः प्रतिमा तिलपिष्टजा ।
तिलस्नानं पञ्चपत्रैर्धूपो राजफलत्वचा ।। ३५ ।।
चतुर्थे चटकाशोफो ज्वरः सर्व्वाङ्गसादनम् ।
मत्स्यमांसतिलाद्यैश्च बलिः स्नानञ्च धूपनम् ।। ३६ ।।
चञ्चला पञ्चमेऽब्दे तु ज्वरस्त्रासोऽङ्गसादनम् ।
मांसौदनाद्यैश्च वलिर्मेषश्रृङ्गेण धूपनम् ।। ३७ ।।
पलाशोदुम्बराश्वत्थवटबिल्वदलाम्बुधृक् ।
षष्ठेऽब्दे धावनीशोषो वैरस्यं३ गात्रसादनम् ।। ३८ ।।
सप्ताहोभिर्बलिः पूर्वैर्धूपस्नानञ्च भङ्गकैः ।
स्प्तमे यमुनाच्छर्दिरवचोहासरोदनम् ।। ३९ ।
मांसपायसमद्याद्यैर्बलिः स्नानञ्च धूपनम् ।
अष्टमे वा जातवेदा निराहारं प्ररोदनम् ।। ४० ।।
कृशरापूपदध्याद्यैर्बलिः स्नानञ्च धूपनम् ।
कालाब्दे नवमे वाह्वोरास्फोटो गर्जनं भयम् ।। ४१ ।।
बलिः स्यात् कृशरापूपशक्तुकुल्मासपायसैः ।
दशमेऽब्दे कलहंसी दाहोऽङ्गकृशता ज्वरः ।। ४२ ।।
पौलिकापूपदध्यन्नैः पञ्चरात्रं बलिं हरेत् ।
निम्बधूपकुष्ठलेप एकादशमके ग्रही ।। ४३ ।।
देवदूती निष्ठुरवाक् बलिर्लेपादि पूर्ववत् ।
बलिका द्वादशे स्वासो बलीर्लेपादि पूर्ववत् ।। ४४ ।।
त्रयोदशे वायवी च मुखवाह्याङ्गसादनम् ।
रक्तान्नगन्धमाल्याद्यैर्बलिः पञ्चदलैः स्नपेत् ।। ४५ ।।
राजीनिस्वदलैर्धूपो यक्षिणी च चतुर्दशे ।
चेष्टा शूलं ज्वरो दाहो मांसभक्षादिकैर्बलिः ।। ४६ ।।
स्नानादि पूर्ववच्छान्त्यै मुण्डिकार्त्तिस्त्रिपञ्चके ।
तच्चेष्टासृक्श्रवः शश्वत्कुर्य्यान्मातृचिकित्सनम् ।। ४७ ।।
वानरी षोडशी भूमौ पतेन्निद्रा सदा ज्वरः ।
पायसाद्यैस्त्रिरात्रञ्च बलिः स्नानादि पूर्ववत् ।। ४८ ।।
गन्धवती सप्तदशे गात्रोद्वेगः प्ररोदनम् ।
कुल्माषाद्यैर्बलिः स्नानधूपलेपादि पूर्ववत् ।। ४९ ।।
दिनेशाः पूतना नाम वर्षेशाः सुकुमारिकाः ।
ओं नमऋ सर्वमातृभ्यो बालपीड़ासंयोगं भुञ्ज भुञ्ज चुट चुट
स्फोटय स्फोटय स्फुर स्फुर गृह्ण गृह्ण आकट्टय आकट्टय
एवं सिद्धरूपो ज्ञापयति ।
हर हर निर्दोवं कुरु कुरु बालिकां बालं स्त्रियम् पुरुषं वा
सर्वग्रहाणामुपक्रमात् ।
चामुण्डे नमो देवेयै ह्रूँ ह्रुँ ह्रीँ अपसर अपसर दुष्टग्रहान् ह्रूँ
तद्यथा गच्छन्तु गृह्यकाः अन्यत्र पन्थानं रुद्रो ज्ञापयति ।
सर्वबालग्रहेषु स्यान्मन्त्रोऽयं सर्वकामिकः ।। ५० ।।
ओं नमो भगवति चामुण्डे मुञ्च मुञ्च बलिं बालिकां वा ।
बलिं गृह्ण गृह्ण जय जय वस वस ।
सर्वत्र बलिदानेऽयं रक्षाकृत् पठ्यते मनुः ।। ५१ ।।
ब्रह्मा विष्णुः शिवः स्कन्दो गौरीलक्षअमीर्गणआदयः ।
रक्षन्तु च ज्वराभ्यान्तं मुञ्चन्तु च कुमारकम् ।। ५२ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये बालग्रहहरं बालतन्त्रं नाम नवनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 299 Chapter!-In Hindi
दो सौ बानबेवाँ अध्याय - गवायुर्वेद
धन्वन्तरि कहते हैं- सुश्रुत! राजाको गौओं और ब्राह्मणोंका पालन करना चाहिये। अब मैं 'गोशान्ति'का वर्णन करता हूँ। गौएँ पवित्र एवं मङ्गलमयी हैं। गौओंमें सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। गौओंका गोबर और मूत्र अलक्ष्मी (दरिद्रता) के नाशका सर्वोत्तम साधन है। उनके शरीरको खुजलाना, सींगोंको सहलाना और उनको जल पिलाना भी अलक्ष्मीका निवारण करनेवाला है। गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, दधि, घृत और कुशोदक यह 'षडङ्ग' (पञ्चगव्य) पीनेके लिये उत्कृष्ट वस्तु तथा दुःस्वप्रों आदिका निवारण करने वाला है। गोरोचना विष और राक्षसोंको विनाश करती है। गौओंको ग्रास देनेवाला स्वर्गको प्राप्त होता है। जिसके घरमें गौएँ दुःखित होकर निवास करती हैं, वह मनुष्य नरकगामी होता है। दूसरेकी गायको ग्रास देनेवाला स्वर्गको और गोहितमें तत्पर ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। गोदान, गो-माहात्म्य- कीर्तन और गोरक्षण से मानव अपने कुलका उद्धार कर देता है। यह पृथ्वी गौओं के श्वास से पवित्र होती है। उनके स्पर्श से पापोंका क्षय होता है। एक दिन गोमूत्र, गोमय, घृत, दूध, दधि और कुशका जल एवं एक दिन उपवास चाण्डालको भी शुद्ध कर देता है। पूर्वकाल में देवताओंने भी समस्त पापों के विनाश के लिये इस का अनुष्ठान किया था। इनमेंसे प्रत्येक वस्तुका क्रमशः तीन तीन दिन भक्षण कर के रहा जाय, उसे 'महासान्तपन व्रत' कहते हैं। यह व्रत सम्पूर्ण कामनाओं को सिद्ध करने वाला और समस्त पापों का विनाश करनेवाला है। केवल दूध पीकर इक्कीस दिन रहने से 'कृच्छ्रातिकृच्छ्र व्रत' होता है। इसके अनुष्ठान से श्रेष्ठ मानव सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्तकर पापमुक्त हो स्वर्गलोकमें जाते हैं। तीन दिन गरम गोमूत्र, तीन दिन गरम घृत, तीन दिन गरम दूध और तीन दिन गरम वायु पीकर रहे। यह 'तप्तकृच्छ व्रत' कहलाता है, जो समस्त पापों का प्रशमन करने वाला और ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराने वाला है। यदि इन वस्तुओं को इसी क्रम से शीतल करके ग्रहण किया जाय, तो ब्रह्मा जी के द्वारा कथित 'शीत कृच्छा' होता है, जो ब्रह्मलोकप्रद है।॥ १-११ ॥
एक मासतक गोन्नती होकर गोमूत्र से प्रतिदिन स्नान करे, गोरससे जीवन चलावे, गौओंका अनुगमन करे और गौओंके भोजन करनेके बाद भोजन करे। इससे मनुष्य निष्पाप होकर गोलोकको प्राप्त करता है। गोमती विद्याके जपसे भी उत्तम गोलोककी प्राप्ति होती है। उस लोकमें मानव विमानमें अप्सराओंके द्वारा नृत्य गीतसे सेवित होकर प्रमुदित होता है। गौएँ सदा सुरभिरूपिणी हैं। वे गुग्गुलके समान गन्धसे संयुक्त हैं। गौएँ समस्त प्राणियोंकी प्रतिष्ठा हैं। गौएँ परम मङ्गलमयी हैं। गौएँ परम अन्न और देवताओंके लिये उत्तम हविष्य हैं। वे सम्पूर्ण प्राणियोंको पवित्र करनेवाले दुग्ध और गोमूत्रका वहन एवं क्षरण करती हैं और मन्त्रपूत हविष्यसे स्वर्गमें स्थित देवताओंको तृप्त करती हैं। ऋषियोंके अग्निहोत्रमें गौएँ होमकार्यमें प्रयुक्त होती हैं। गौएँ सम्पूर्ण मनुष्योंकी उत्तम शरण हैं। गौएँ परम पवित्र, महामङ्गलमयी, स्वर्गकी सोपानभूत, धन्य और सनातन (नित्य) हैं। श्रीमती सुरभि पुत्री गौओंको नमस्कार है। ब्रहासुताओंको नमस्कार है। पवित्र गौओंको बारंबार नमस्कार है। ब्राह्मण और गौएँ- एक ही कुलकी दो शाखाएँ हैं। एकके आश्रयमें मन्त्रकी स्थिति है और दूसरीमें हविष्य प्रतिष्ठित है। देवता, ब्राह्मण, गौ, साधु और साध्वी स्त्रियोंके बलपर यह सारा संसार टिका हुआ है, इसीसे वे परम पूजनीय हैं। गौएँ जिस स्थानपर जल पीती हैं, वह स्थान तीर्थ है। गङ्गा आदि पवित्र नदियाँ गोस्वरूपा ही हैं। सुश्रुत। मैंने यह गौओंके माहात्म्य का वर्णन किया; अब उनकी चिकित्सा सुनो ॥ १२-२२॥
गौओंक श्रृङ्गरोगोंमें सोठ, खरेटी और जटार्मासीको सिलपर पीसकर उसमें मधु, सैन्धव और तैल मिलाकर प्रयोग करे। सभी प्रकारके कर्णरोगोंमें मञ्जिष्ठा, हींग और सैन्धव डालकर सिद्ध किया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये या लहसुनके साथ पकाया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये। दन्तशूलमें बिल्वमूल, अपामार्ग, धानकी पाटला और कुटजका लेप करे। वह शूलनाशक है। दन्तशूलका हरण करनेवाले द्रव्यों और कूटको घृतमें पकाकर देनेसे मुखरोगोंका निवारण होता है। जिह्वा रोगोंमें सैन्धव लवण प्रशस्त है। गलग्रह-रोग में सोंठ, हल्दी, दारुहल्दी और त्रिफला विहित है। हृद्रोग, वस्तिरोग, वातरोग और क्षयरोगमें गौओंको घृतमिश्रित त्रिफलाका अनुपान प्रशस्त बताया गया है। अतिसारमें हल्दी, दारुहल्दी और पाठा (नेमुक) दिलाना चाहिये। सभी प्रकारके कोष्ठगत' रोगोंमें, शाखा (पैर-पुच्छादि) गत रोगोंमें एवं कास, श्वास एवं अन्य साधारण रोगोंमें सोंठ, भारङ्गी देनी चाहिये। हड्डी आदि टूटने पर लवणयुक्त शिशुको ग्रहण करती है। इससे पीड़ित शिशु दुर्गन्ध और दन्तरोग से युक्त होता है। 'निराहारा 'के निमित्त मिष्टान्न और पूर्वोक्त पदार्थोंकी बलि दे। आठवें मासमें 'यमुना' नाम वाली ग्रही शिशुपर आक्रमण करती है। इससे पीड़ित शिशुके शरीरमें दाने (फोड़े-फुन्सियाँ) उभर आते हैं और शरीर सूख जाता है। इसकी चिकित्सा नहीं करानी चाहिये। नवम मासमें 'कुम्भकर्णी' नामवाली ग्रहीसे पीड़ित हुआ बालक ज्वर और सर्दी से कष्ट पाता है तथा बहुत रोता है। 'कुम्भकर्णी 'के शान्त्यर्थ पूर्वोक्त पदार्थ, कुल्माष (उड़द या चना) आदि पदार्थोंकी ईशानकोणमें बलि दे। दशम मासमें 'तापसी' ग्रही बालकपर आक्रमण करती है। इससे ग्रस्त बालक आहारका परित्याग कर देता है और आँखें मूँदे रहता है। 'तापसी 'के उद्देश्यसे घण्टा, पताका, पिष्टान्न आदि पदार्थों की बलि प्रदान करे। ग्यारहवीं 'राक्षसी' नामकी ग्रही है। इससे गृहीत बालक नेत्ररोगसे पीड़ित होता है।
उसकी चिकित्सा व्यर्थ होती है। बारहवें महीनेमें 'चञ्चला' ग्रहो शिशुको ग्रहण करती है। इसके द्वारा आक्रान्त बालक दीर्घ निःश्वास और भय आदि चेष्टाओंसे युक्त होता है। इस ग्रहीके शान्त्यर्थ मध्याहृके समय पूर्वदिशामें कुल्माष और तिल आदिकी बलि दे ॥ १९-३२ ॥
द्वितीय वर्षमें 'यातना' नामकी ग्रही शिशुको ग्रहण करती है। इससे शिशुको 'यातना' सहनी पड़ती है और उसमें रोदन आदि दोष प्रकट होते हैं। 'यातना' ग्रहीको तिलके गूदे और पूर्वोक्त पदार्थोंकी बलि दे। खान आदि कर्म पूर्ववत् विधिसे करना चाहिये। तृतीय वर्षमें बालकपर 'रोदिनी' अधिकार करती है। इससे ग्रस्त बालक काँपता और रोता है तथा उसके पेशाबमें रक्त आता है। इसके उद्देश्यसे गुड़, भात, तिलका पूआ और पीसे हुए तिलकी बनी प्रतिमा दे। बालकको तिलमिश्रित जलसे स्नान कराकर पञ्चपत्र और राजफलके छिलकेसे धूप दे॥ ३३-३५॥
चतुर्थ वर्षमें 'चटका' नामको राक्षसी शिशुको ग्रहण करती है। उससे ग्रस्त हुए बालकको ज्वर आता है और सारे अङ्गोंमें व्यथा होती है। चटकाको पूर्वोक्त पदार्थ एवं तिल आदिकी बलि दे और बालकको स्नान कराकर उसके लिये धूपन करे। पञ्चम वर्षमें 'चञ्चला' शिशुपर अधिकार कर लेती है। इससे पीड़ित बालक ज्वर, भय और अङ्ग-शैथिल्यसे युक्त होता है। चञ्चलाको भात आदि पदार्थोंकी बलि दे और बालकको काकड़ासिंगीसे धूपित करे। साथ ही पलाश, गूलर, पीपल, बड़ और बिल्वपत्रके जलसे उसका अभिषेक किया जाय। छठे वर्षमें 'धावनी' नामकी ग्रही बालकपर आक्रमण करती है। उससे गृहीत बालकका शरीर नीरस होकर सूखने लगता है। उसके अङ्ग अङ्गमें पीड़ा होती है। इसके उद्देश्यसे सात दिनतक पूर्वोक्त पदार्थोंकी बलि और बालकका भृङ्गराजसे स्त्रापन और धूपन करे ॥ ३६-३८ ॥
सप्तम वर्षमें 'यमुना' ग्रहीसे पीड़ित बालक सर्दी, मुक्ता तथा अत्यन्त हास एवं रोदनसे युक्त होता है। इस ग्रहीके निमित्त पायस और पूर्वोक्त पदार्थ आदिकी बलि दे एवं बालकका पूर्ववत् विधिसे खापन और धूपन करे। अष्टम वर्षमें 'जातवेदा' नामकी ग्रही बालकपर अधिकार करती है। इससे पीड़ित बालक भोजन छोड़ देता है और बहुत रोता है। जातवेदाके निमित्त कृसर (खिचड़ी), मालपूए और दही आदिकी बलि प्रदान करे। बालकको स्नान कराके धूपित भी करे। नवम वर्षमें 'काला' नामकी ग्रही बालकको पकड़ती है। इससे ग्रस्त बालक अपनी भुजाओंको कैपाता है, गर्जना करता है और भयभीत रहता है। कालाके शान्त्वर्थ कुसर, मालपूए, सत्तू, कुल्माष और पायस (खीर) की बलि दे। दसवें वर्षमें 'कलहंसी' बालकको ग्रहण करती है। इससे उसके शरीरमें जलन होती है, अङ्ग दुर्बल हो जाते हैं और वह ज्वरग्रस्त रहता है। इसके निमित्त पाँच दिनतक पूरी, मालपूए, दधि और अन्नकी बलि देनी चाहिये। बालक का निम्बपत्रोंसे धूपन और कूटका अनुलेपन करे। ग्यारहवें वर्षमें कुमारको 'देवदूती' नामकी ग्रही ग्रहण करती है। इससे वह कठोर वचन बोलता है। 'देवदूती 'के उद्देश्यसे पूर्ववत् बलिदान और लेपादिक करे। बारहवें वर्षमें 'बलिका 'से आक्रान्त बालक श्वास रोगसे युक्त होता है। इसके निमित्त भी पूर्वोक्त विधिसे बलि एवं लेपादि करे। तेरहवें वर्षमें 'वायवी' ग्रहीका आक्रमण होता है। इससे पीड़ित कुमार मुखरोग तथा अङ्गशैथिल्यसे युक्त होता है। वायवीको अन्न, गन्ध, माल्य आदिकी बलि दे और बालकको पञ्चपत्रसे स्नान करावे। राई और निम्बपत्रोंसे धूपित करे। चौदहवें वर्षमें 'यक्षिणी' बालकपर अधिकार करती है। इससे वह शूल, ज्वर, दाह आदिसे पीड़ित होता है। यक्षिणी के उद्देश्यसे पूर्वोक्त विविध भक्ष्य पदार्थोंकी बलि विहित है। इसकी शान्तिके लिये पूर्ववत् स्त्रान आदि भी करने चाहिये। पंद्रहवें वर्षमें बालकको 'मुण्डिका' ग्रहीसे कष्ट प्राप्त होता है। उससे पीड़ित बालकके सदा रक्तपात होता रहता है।
इसकी चिकित्सा नहीं करनी चाहिये ॥ ३९-४७ ॥
सोलहवीं 'वानरी' नामकी ग्रही है। इससे पीड़ित नवयुवक भूमिपर गिरता है और सदा निद्रा तथा ज्वरसे पीड़ित रहता है। वानरीको तीन दिनतक पायस आदिकी बलि दे एवं बालकको पूर्ववत् स्नान आदि कर्म कराये। सत्रहवें वर्षमें 'गन्धवती' नामकी ग्रही आक्रमण करती है। इससे ग्रस्त बालकके शरीरमें उद्वेग बना रहता है और वह जोर-जोरसे रोता है। इस ग्रहीको कुल्माष आदिकी बलि दे और पूर्ववत् स्नान, धूपन तथा लेपन आदि कर्म करे। दिनकी स्वामिनी ग्रही 'पूतना' कही जाती है और वर्ष-स्वामिनी 'सुकुमारी' ॥ ४८-५० ॥
ॐ नमः सर्वमातृभ्यो बालपीडासंयोगं भुञ्ज भुञ्ज चुट चुट स्फोटय स्फोटय स्फुर स्फुर गृह्ण गृह्णाक्रन्दयाऽऽक्रन्दय एवं सिद्धरूपो ज्ञापयति। हर हर निर्दोषं कुरु कुरु बालिकां बालं स्वियं पुरुषं वा सर्वग्रहाणामुपक्रमात्। चामुण्डे नमो देव्यै हूं हूं ह्रीं अपसर अपसर दुष्टग्रहान् हूं तद्यथा गच्छन्तु गृह्यकाः, अन्यत्र पन्थानं रुद्रो ज्ञापयति ॥ ५१-५२॥
- इस सर्वकामप्रद मन्त्रका बालग्रहोंके शान्त्त्यर्थ प्रयोग करे ॥ ५३॥
ॐ नमो भगवति चामुण्डे मुञ्च मुञ्च बालं बालिकां वा बलिं गृह्न गृह जय जय वस वस ॥ ५४॥
- इस रक्षाकारी मन्त्रका सर्वत्र बलिदानकर्ममें पाठ किया जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कार्तिकेय, पार्वती, लक्ष्मी एवं मातृकागण ज्वर तथा दाहसे पीड़ित इस कुमारको छोड़ दें और इसकी भी रक्षा करें। (इस मन्त्रसे भी बालग्रहजनित पीड़ाका निवारण होता है।) ॥ ५५ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'बालादिग्रहहर बालतन्त्र कथन' नामक दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९९ ॥
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