अग्नि पुराण तीन सौ आठवाँ अध्याय ! Agni Purana 308 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ आठवाँ अध्याय ! Agni Purana 308 Chapter !

अग्नि पुराण 308 अध्याय  - त्रैलोक्यमोहनीलक्ष्म्यादि पूजा

अग्निरुवाच

वक्षः सवह्निर्वामाक्षौ दण्डी श्रीः सर्व्वसिद्धिदा ।
महाश्रिये महासिद्दे महाविद्युत्प्रभे नमः ।। १ ।।

श्रिये देवि विजये नमः । गौरि महाबले बन्ध नमः ।
हूँ महाकाये पद्महस्ते हूँ फट् श्रियै नमः । श्रियै फट्
श्रियै नमः । श्रियै फट् श्रीं नमः । श्रिये श्रीद नमः स्वाहा श्रीफट् ।।

अस्याङ्गानि नवोक्तानि तेष्वेकञ्च समाश्रयेत् ।
त्रिलक्षमेकलक्षं वा जप्त्वाक्षाव्जैस्च भूतिदः ।। २ ।।

श्रीगेहे विष्णुगेहे वा श्रियं पूज्य धनं लभेत् ।
आज्याक्तैस्तण्डुलैर्ल्लक्षं जुहुयात् खादिरानले ।। ३ ।।

राजा वश्यो भवेद्‌वृद्धिः श्रीश्च स्यादुत्तरोत्तरं ।
सर्षपाम्भोभिषेकेण नश्यन्ते शकला ग्रहाः ।। ४ ।।

विल्वलक्ष्हुता लक्ष्मीर्वित्तवृद्धिश्च जायते ।
शक्रवेश्म चतुर्द्वारं हृदये चिन्तयेदथ ।। ५ ।।

बलाकां वामनां श्यामां श्वेतपङ्कजधारिणीम् ।
ऊद्‌र्ध्ववाहुद्वयं ध्यायेत्क्रीडन्तीं द्वारि पूर्ववत् ।। ७ ।।

हरितां दोर्द्वयेनोद्‌र्ध्वमुद्वहन्तीं सिताम्बुजम् ।
ध्यायेद्विभीषिकां नाम श्रीदूतीं द्वारि पश्चिमे ।। ८ ।।

शाङ्करीमुत्तरे द्वारि तन्मध्येऽष्टदलपङ्कजम् ।
वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नस्चानिरुद्धकः ।। ९ ।।

ध्येयास्ते पद्मपत्रेषु शङ्कचक्रगदाधराः ।
अञ्जनक्षीरकाश्मीरहेमाभास्ते सुवाससः ।। १० ।।

आग्नेयादिषु पत्रेषु गुग्गुलुश्च कुरुण्टकः ।
दमकः शलिलश्चैति हस्तिना रजतप्रभाः ।। ११

हेमकुम्भधराश्चैते कर्णिकायां श्रियं स्मरेत् ।
स्वेतगन्धांशुकामेकरौम्यमालाश्त्रधारिणीं ।। १२ ।।

ध्यात्वा सपरिवारान्तामभ्यर्च्य सकलं लभेत् ।
द्रोणाव्जपुष्पश्रीवृक्षपर्णं मूद्‌र्ध्नि न धारयेत् ।। १३ ।।

ध्यात्वा सपरिवारान्तामभ्यर्च्य सकरं लभेत् ।
द्रोणाव्जपुष्पश्रीवृक्षपर्णं मूद्‌र्ध्नि न धारयेत् ।। १४ ।।

लवणामलकं वर्ज्जं नागादित्यतिथौ क्रमात् ।
पायसाशी जपेत् सूक्तं क्षियस्तेनाभिषेचयेत् ।। १५ ।।

आवाहादिविसर्गान्तां मूद्‌र्ध्नि ध्यात्वार्च्ययेत् श्रियम् ।
विल्वाज्याव्जपायसेन पृथग्‌ योगः श्रिये भवेत् ।। १६ ।।

ओं ह्रीँ महामहिषमर्हिनि ठ ठ मूलमन्त्रं महिषहिसके नमः ।
महिषशत्रुं भ्रामय हूँ फट् ठ ठ महिषं हेषय हूं महिषं
हन देवि हूँ महिषनिसूदनि फट् ।
दुर्गाहृदयमित्युक्तं साङ्गं सर्वार्थसाधकम् ।। १७ ।।

यजेद्यथोक्तं तां देवीं पीठञ्चैवाङ्गमध्यागम् ।
ओं ह्रीँ दुर्गे रक्षणि स्वाहा चेति दुर्गायै नमः । वरवर्ण्यै नमः ।
आर्य्यायै कनकप्रभायै कृत्तिकायै अभयप्रदायै कन्यकायै सुरूपायै ।।
पत्रस्थाः पूजयेदेता पूर्त्तीराद्यैः स्वरैः क्रमात् ।। १८ ।।

चक्राय शङ्खाय गदायै खड्गाय धनुषे वाणाय ।।
अष्टम्याद्यैरिमां दुर्गा लोकेशान्तां यजेदिति ।
दर्गायोगः समायुःश्रीस्वामिरक्ताजयादिकृत् ।।
ससाध्येसानमन्त्रेण तिलहोमो वशीकरः ।
जयः पद्मैस्तु दुर्व्वाभिः शान्तिः कामः पलाशजैः ।। २० ।।

पुष्टिः स्यात् काकपक्षेण मृतिद्वेषादिकं भवेत् ।
ग्रहक्षुद्रभयापत्तिं सर्वमेव मनुर्हरेत् ।। २१ ।।

ओं दुर्गे दुर्गे रक्षणि स्वाहा ।
रक्षाकरीयमुदिता जयदुर्गाङ्गसंयुता ।
श्यामां त्रिलोचनां देवीं ध्यात्वात्मानं चतुर्भुजम् ।। २२।।

शङ्खचक्राव्जशूलादित्रिशूलां रौद्ररूपिणीं ।
युद्धादौ सञ्जयेदेतां यजेत् शड्घादिके जये ।। २३ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये त्रैलोक्यमोहनीलक्ष्म्यादिपूजा नामाष्टाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ आठवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 308 Chapter!-In Hindi

तीन सौ आठवाँ अध्याय - त्रैलोक्यमोहिनी लक्ष्मी एवं भगवती दुर्गा के मन्त्रों का कथन

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! वान्त (१), वहि (र), वामनेत्र (ईकार) और दण्ड (अनुस्वार) - इनके योगसे 'श्रीं' बीज बनता है जो 'श्री' देवीका मन्त्र है और सब सिद्धियोंको देनेवाला है। ( इसका अङ्गन्यास इस प्रकार करना चाहिये-) प्रथम प्रकार) महाश्रिये महाविद्युत्प्रभे स्वाहा, हृदयाय नमः। श्रियै देवि विजये स्वाहा, शिरसे स्वाहा। गौरि महाबले बन्ध-बन्ध स्वाहा, शिखायै वषट्। धृतिः स्वाहा, कवचाय हुम्। महाकाये पद्महस्ते हूं फट्, अस्त्राय फट्। (दूसरा प्रकार) 'श्रियै स्वाहा, हृदयाय नमः। श्रीं फट्, शिरसे स्वाहा। श्रीं नमः' शिखायै वषट्। श्रियै प्रसीद नमः। कवचाय हुम्। श्रीं फट्, अस्वाय फट्।' [इसी तरह अन्यान्य प्रकार भी तन्त्र ग्रन्थोंमें कहे गये हैं। ॥ १-२॥

- इस प्रकार 'श्री' मन्त्रके नी अङ्गन्यास बतलाये गये हैं। उनमेंसे किसी एकका आश्रय ले। पद्माक्षकी मालासे पूर्वोक्त मन्त्रका तीन लाख या एक लाख बार जप ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला है। साधक लक्ष्मी अथवा विष्णुके मन्दिरमें श्रीदेवीका पूजन करके धन प्राप्त कर सकता है। खदिरकाष्ठसे प्रज्वलित अग्रिमें घृतमिश्रित तण्डुलोंकी एक लाख आहुतियाँ दे। इससे राजा वशीभूत हो जाता है तथा लक्ष्मीकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। श्रीमन्त्रसे अभिमन्त्रित सर्षपजलसे अभिषेक करनेपर सब प्रकारकी ग्रहबाधा शान्त होती है। एक लाख बिल्वफलोंका होम करनेसे लक्ष्मीकी प्राप्ति और धनकी वृद्धि होती है॥ ३-५३ ॥

साधक चार द्वारोंसे युक्त निम्नाङ्कित 'शक्रवेश्म' का चिन्तन करे। पूर्वद्वारपर क्रीडामें संलग्र दोनों भुजाओंको ऊपर उठाये हुए श्वेत कमलको धारण करनेवाली श्यामवर्णा वामनाकृति बलाकीका ध्यान करे। दक्षिणद्वारपर ऊपर उठाये हुए एक हाथमें रक्तकमल धारण करनेवाली चेताङ्गी वनमालिनीका चिन्तन करे। पश्चिमद्वारपर दोनों हाथोंको ऊपर उठाकर श्वेत पुण्डरीकको धारण करनेवाली हरितवर्णा विभीषिका नामवाली श्रीदूतीका ध्यान करे। उत्तरद्वारपर शाङ्करीको धारणा करे। 'शक्रवेश्म 'के मध्यमें अष्टदल कमलका निर्माण करे। कमलदलोंपर क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्धका ध्यान करे। उनकी अङ्गकान्ति क्रमशः अञ्जन, दुग्ध, केसर और सुवर्णके समान है। वे सुन्दर वस्त्रोंसे विभूषित हैं। उस अष्टदल कमलके आग्नेय आदि दलोंपर गुग्गुलु, कुरण्टक, दमक और सलिल नामक दिग्गजोंकी धारणा करे। ये चारों स्वर्ण-कलशोंको धारण करनेवाले हैं। कमलकी कर्णिकामें श्रीदेवीका स्मरण करे। वे चार भुजाओंसे युक्त हैं। उनकी अङ्गकान्ति सुवर्णके समान है। उनकी ऊपर उठी हुई दोनों भुजाओंमें कमल है तथा दक्षिणहस्तमें अभयमुद्रा और वामहस्तमें वरमुद्रा सुशोभित हो रही है। वे शुभ्र एवं सुवासित वस्त्र तथा गलेमें एक श्वेत माला धारण करती हैं। उन श्रीदेवीका ध्यान एवं सपरिवार पूजन करके मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है ॥ ६-१४ ॥

पूर्वोक्त उपासनाके समय द्रोणपुष्प, कमल और बिल्वपत्रको सिरपर धारण न करे। पञ्चमी और सप्तमीके दिन क्रमशः लवण और आँवलेका परित्याग कर दे। साधक खीरका भोजन करके श्रीसूक्तका जप करे तथा श्रीसूक्तसे ही श्रीदेवीका अभिषेक करे। आवाहनसे लेकर विसर्जनपर्यन्त सभी उपचार अर्पण श्रीसूक्तकी ऋचाओंसे करता हुआ ध्यानपूर्वक श्रीदेवीका पूजन करे। बिल्व, घृत, कमल और खीर ये वस्तुएँ एक साथ या अलग-अलग भी श्रीदेवीके निमित्त होममें उपयुक्त हैं। यह होम लक्ष्मीकी प्राप्ति एवं वृद्धि करनेवाला है॥ १५-१७॥ 

विषं (म), हि, मज्जा (ष), काल (म), अग्नि (र), अत्रि (द), निष्ठ (इ), नि, स्वाहा (मर्दिषमर्दिनि स्वाहा) यह भगवती महिषमर्दिनी (महालक्ष्मी) का अध्यक्षर-मन्त्र कहा गया है।॥ १८ ॥

'ॐ ह्रीं महामहिषमर्दिनि स्वाहा।'- यह मूलमन्त्र है। इसका पञ्चाङ्गन्यास इस प्रकार करे- 'महिषमर्दिनि हूं फट्, हृदयाय नमः। महिषशत्रूत्सादिनि हुं फट्, शिरसे स्वाहा। महिषं भीषय हुं फट्, शिखायै वषट्। महिषं हन हन देवि हुं फट्, कवचाय हुम्। महिषसूदनि हुं फट्, अस्त्राय फट् ।' यह अङ्गॉसहित 'दुर्गाहृदय' कहा गया है, जो सम्पूर्ण कामनाओंको सिद्ध करनेवाला है। दुगदिवीका निम्नाङ्कित प्रकारसे पीठ एवं अष्टदल- कमलपर पूजन करे ॥ १९-२० ॥

'ॐ ह्रीं दुर्गे दुर्गे रक्षणि स्वाहा'- यह दुर्गाका मन्त्र है। अष्टदलपद्मपर दुर्गा, वरवर्णिनी,आर्या, कनकप्रभा, कृत्तिका, अभयप्रदा, कन्यका और सुरूपा इन शक्तियोंके क्रमशः आदिके सस्वर अक्षरोंमें बिन्दु लगाकर उन्हीं बीजमन्त्रोंसे युक्त नाममन्त्रोंद्वारा यजन करे। यथा- 'दुं दुर्गायै नमः' इत्यादि। इनके साथ क्रमशः चक्र, शङ्ख, गदा, खङ्ग, बाण, धनुष, अङ्कुश और खेट- इन अस्त्रोंकी भी अर्चना करे। अष्टमी आदि तिथियोंपर लोकेश्वरी दुर्गाकी पूजा करे। दुर्गाकी यह उपासना पूर्ण आयु, लक्ष्मी, (आत्मरक्षा) एवं युद्धमें विजय प्रदान करनेवाली है। साध्यके नामसे युक्त मन्त्रसे तिलका होम 'वशीकरण' करनेवाला है। कमलोंके हवनसे 'विजय' प्राप्त होती है। शान्तिकी कामना करनेवाला दूर्वासे हवन करे। पलाश-समिधाओंसे पुष्टि, काकपक्षके हवनसे मारण एवं विद्वेषणकर्म सिद्ध होते हैं। यह मन्त्र सभी प्रकारकी ग्रहबाधा एवं भयका हरण करता है॥ २१-२६ ॥ 

'ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षणि स्वाहा'- यह अङ्गसहित 'जय दुर्गा' बतलायी गयी है। यह साधककी रक्षा करती है। 'मैं श्यामाङ्गी, त्रिनेत्रभूषिता, चतुर्भुजा, शङ्ख, चक्र, शूल एवं खङ्गधारिणी रौद्ररूपिणी रणचण्डीस्वरूपा हूँ'- ऐसा ध्यान करे। युद्धके प्रारम्भमें इस 'जयदुर्गा 'का जप करे। विजयके लिये खङ्ग आदिपर दुर्गाका पूजन करे ॥ २७-२९॥

'ॐ नमो भगवति ज्वालामालिनि गृधगणपरिवृते चराचररक्षिणि स्वाहा' - युद्धके निमित्त इस मन्त्रका जप करे। इससे योद्धा शत्रुओंपर विजय प्राप्त करता है ॥ ३०-३१॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'लक्ष्मी आदिकी पूजाका वर्णन' नामक तीन सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०८ ॥

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