अग्नि पुराण तीन सौ छठा अध्याय ! Agni Purana 306 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ छठा अध्याय - नारसिंहादिमन्त्राः
अग्निरुवाच
स्तम्भो विद्वेषणोच्चाट उत्सादो भ्रममारणे ।
व्याधिश्चोति स्मृतं क्षुद्रं तन्मोक्षो वक्ष्यते श्रृणु ।। १ ।।
ओं नमो बगवते उन्मत्तरुद्राय भ्रम भ्रामय अमुकं
वित्रासय उद्रभ्रामय रौद्रेण रूपेण हूँ फट् ठ ।
श्मशाने निशि जप्तेन त्रिलक्षं मधुना हुनेत् ।
चिताग्नौ धूर्त्तसमिद्भिर्भ्राम्यते सततं रिपुः ।। २ ।।
हेमगैरिकया कृष्णा प्रतिमा हैमसूचिभिः ।
जप्त्वा विध्येच्च तत्कण्ठे हृदि वा म्रियते रिपुः ।। ३ ।।
खरबालचिताभस्म ब्हह्मदण्डी च मर्कटी ।
गृहे वा मूर्ध्नि तच्चूर्णं जप्तमुत्सादकृत् क्षिपेत् ।। ४ ।।
भृग्वाकाशौ सदीप्ताग्निर्भृगुर्वह्निश्च विचक्राय शिवः ।
एवं सहस्रारे हूं फट् आचक्राय स्वाहा हृदयं विचक्राय शिवः ।
शिखाचक्रायाथ कवचं विचक्रायाथ नेत्रकम् ।। ५ ।।
सञ्चक्रायास्त्रमुदिष्टं ज्यालाचक्राय पूर्ववत् ।
शार्ङ्ग सुदर्शनं क्षुद्रग्रहहृत् सर्व्वसाधनम् ।। ६ ।।
मूर्द्धाक्षिमुखहृद्गुह्यपादे ह्यस्याक्षरान्न्यसेत् ।
चक्राब्जासनमग्न्याभं दंष्ट्रिणञ्च चतुर्भुजम् ।। ७ ।।
शङ्कचक्रगदापद्मशलाकाङ्कुशपाणिनम् ।
चापिनं पिङ्गकेशाक्षमरव्याप्तत्रिपिष्टपं ।। ८ ।।
नाभिस्तेनाग्निना विद्धा नश्यन्ते व्याधयो ग्रहाः ।
पीतञ्चक्रं गदा रक्ताः स्वाराः श्याममवान्तरं ।। ९ ।।
नेमिः श्वेता वहिः कृष्णवर्णरेखा च पार्थिवी ।
मध्येतरेमरे वर्णानेवं चक्रद्वयं१ लिखेत् ।। १० ।।
आदावानीय कुम्भोदं गोचरे सन्निधाय च ।
दत्त्वा सुदर्शनं तत्र याम्ये चक्रे हुनेत् क्रमात् ।। ११ ।।
आज्यापामार्गसमिधो ह्यक्षतं तिलसर्षणौ ।
पायसं गव्यमाज्यञ्च सहस्राष्टकसंख्यया ।। १२ ।।
हुतशेषं क्षिपेत् कुम्भे प्रतिद्रव्यं विधानवित् ।
प्रस्थानेन कृतं पिण्डं कुम्भे तस्मिन्निवेशयेत् ।। १३ ।।
विष्णवादि सर्वं तत्रैव न्यसेत् तत्रैव दक्षिणे ।
नमो विष्णुजनेभ्यः सर्वशान्तिकरेभ्यः प्रतिगृह्णन्तु शान्तये नमः ।।
दद्यादनेन मन्त्रेण हुतशेपाम्भसा वलि ।। १४ ।।
फलके कल्पिते पात्रे पलाशं क्षीरशाखिनः ।
गव्यपूर्णे निवेश्यैव दिक्ष्वेव होमयेद् द्विजः ।। १५ ।।
सदक्षिणमिदं होमद्वयं भूतादिनाशनम् ।
गव्याक्तपत्रलिखितैर्निष्पर्णैः क्षुद्रमुद्धृतम् ।। १६ ।।
द्वर्वाभिरायुषे पद्मौः श्रिये पुत्रा उडुम्बरैः ।
गोसिद्ध्यै सर्पिंषा गोष्ठे मेधायै सर्वशाखिना ।। १७ ।।
ओं क्षौं नमो भगवते नारसिंहाय ज्वालामालिने दीप्तदंष्ट्रायाग्निनेत्राय
स्र्वक्षोघ्नाय सर्वभूतविनाशाय सर्व्वज्वरविनाशाय दह पच२ रक्ष हूं फट् ।
मन्त्रोयं नारसिंहस्य सकलाघनिवारणः ।
जप्यादिना हरेत् क्षुद्रग्रहमारीविषामयान् ।। १८ ।।
चुर्णमण्डूकवयसा जलाग्निस्तम्भकृद्भवेत् ।। १९ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नारसिंहादिमन्त्रा नाम षष्ठाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ छठा अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 306 Chapter In Hindi
तीन सौ छठा अध्याय - श्री नरसिंह आदि के मन्त्र
अग्निदेव कहते हैं-मुने ! स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन, उत्सादन, भ्रमण, मारण तथा व्याधि ये 'क्षुद्र 'संज्ञक अभिचारिक कर्म हैं। इनसे छुटकारा कैसे प्राप्त हो? यह बात बताऊँगा; सुनो - ॥ १ ॥
'ॐ नमो भगवते उन्मत्तरुद्राय भ्रम भ्रम भ्रामय भ्रामय अमुकं वित्रासय वित्रासय उद्भामय उद्भामय रुद्र रौद्रेण रूपेण हूं फट् स्वाहा॥ २॥
श्मशान भूमिमें रातको इस मन्त्रका तीन लाख जप करे। फिर चिताको आगमें धतूरेकी समिधाओंद्वारा हवन करे। इस प्रयोगसे शत्रु सदा भ्रान्त होता- चक्करमें पड़ा रहता है। सुनहरे गेरूसे शत्रुकी प्रतिमा बनाकर उक्त मन्त्रका जप करे। फिर मन्त्रजप से अभिमन्त्रित की हुई सोने की सूइयों से उस प्रतिमा के कण्ठ अथवा हृदयको बाँधे। इस प्रयोगसे शत्रुकी मृत्यु हो जाती है। गधेका बाल (अथवा खराश्वा- मयूरशिखा नामक ओषधिके पत्ते), चिताका भस्म, ब्रह्मदण्डी (ब्रह्मदारु या तूतकी लकड़ी) तथा मर्कटी (करंजभेद)- इन सबको जलाकर भस्म (चूर्ण) बना ले। उस भस्म या चूर्णको उक्त मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके उत्सादनका प्रयोग करने वाला पुरुष शत्रुके घरपर अथवा उसके मस्तकपर फेंक दे ॥ ३-५ ॥
भृगु (स) आकाश (ह), दीप्त (दीर्घ आकारयुक्त) रेफसहित भृगु (स) अर्थात् (सहस्त्रा), फिर र, वर्म (हुम्) और फट् इस प्रकार सब मिलकर मन्त्र बना 'सहस्त्रार हुं फट्।' इसका अङ्गन्यास इस प्रकार है- 'आचक्राय स्वाहा, हृदयाय नमः। विचक्राय स्वाहा, शिरसे स्वाहा। सुचक्राय स्वाहा, शिखायै वषट्। श्रीचक्राय स्वाहा, कवचाय हुम्। संचक्राय स्वाहा, नेत्रत्रयाय वौषट्। ज्वालाचक्राय स्वाहा, अस्वाय फट्।' ये न्यास पूर्ववत् कहे गये हैं।' अङ्गन्यासपूर्वक जपा हुआ सुदर्शनचक्र मन्त्र पूर्वोक्त 'क्षुद्र 'संज्ञक अभिचारों तथा ग्रहबाधाओं को हर लेनेवाला और समस्त मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है॥ ६-८॥
उक्त सुदर्शन-मन्त्रके छः अक्षरोंका क्रमशः मूर्धा, नेत्र, मुख, हृदय, गुह्य तथा चरण- इन छः अङ्गोंमें न्यास करे। इसके बाद चक्रस्वरूप भगवान् विष्णुका ध्यान करे- 'भगवान् चक्राकार कमलके आसनपर विराजमान हैं। उनकी आभा अग्रिसे भी अधिक तेजस्विनी है। उनके मुखमें दाढ़े हैं। वे चार भुजाधारी होते हुए भी अष्टबाहु हैं। वे अपने हाथोंमें क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, मुसल, अङ्कुश, पाश और धनुष धारण करते हैं। उनके केश पिङ्गलवर्णके और नेत्र लाल हैं। उन्होंने अरोंसे त्रिलोकीको व्याप्त कर रखा है। चक्रकी नाभि (नाहा) उस अग्निसे आविद्ध (व्याप्त) है। उसके चिन्तनमात्रसे समस्त रोग तथा अरिष्टग्रह नष्ट हो जाते हैं। सम्पूर्ण चक्र पीतवर्षका है। उसके सुन्दर अरे रक्तवर्णके हैं। उन अरोंका अवान्तरभाग श्यामवर्णका है। चक्रकी नेमि श्वेतवर्णकी है। उसमें बाहरकी ओरसे कृष्णवर्णकी पार्थिवी रेखा है। अरोंसे युक्त जो मध्यभाग है, उसमें समस्त अकारादि वर्ण हैं।' इस प्रकार दो चक्र-चिह्न अङ्कित करे ॥ ९-१२॥
आदि (उत्तरवर्ती) चक्रपर कलश का जल ले अपने आगे समीपमें ही स्थापित करे। दूसरे दक्षिण चक्रपर सुदर्शन की पूजा करके वहाँ अग्रिमें क्रमशः घी, अपामार्ग की समिधा, अक्षत, तिल, सरसों, खीर और गोघृत- सबकी आहुतियाँ दे। प्रत्येक वस्तुकी एक हजार आठ आहुतियाँ पृथक् पृथक् देनी चाहिये ॥ १३-१४ ॥
विधि-विधानका ज्ञाता विद्वान् प्रत्येक द्रव्य हुतशेष भाग कलशमें डाले। तदनन्तर एक प्रस्थ (सेर) अन्नद्वारा निर्मित पिण्ड उस कलशके भीतर रखे। फिर विष्णु आदि देवोंके लिये सब देय वस्तु वहीं दक्षिण भागमें स्थापित करे ॥ १५॥
इसके बाद 'सर्वशान्तिकर विष्णुजनों (भगवान् विष्णुके पार्षदों) को नमस्कार है। वे शान्तिके लिये यह उपहार ग्रहण करें। उनको नमस्कार है।' इस मन्त्रको पढ़कर हुतशेष जलसे बलि समर्पित करे। किसी काष्ठ-फलकपर या कलशमें अथवा दूधवाले वृक्षकी लकड़ीसे बनवाये हुए दधिपूर्ण काष्ठपात्रमें बलिकी वस्तु रखकर प्रत्येक दिशामें अर्पित करे। यह करके ही द्विजोंके द्वारा होम कराना चाहिये। दक्षिणासहित दो बार किया हुआ यह होम भूत-प्रेत आदिका नाशक होता है॥ १६-१८॥
दही लगे हुए पत्तेपर लिखित मन्त्राक्षरोंद्वारा किया गया होम क्षुद्र रोगों का नाशक होता है। दूर्वा से होम किया जाय तो वह आयुकी, कमलोंकी आहुति दी जाय तो वह श्री (ऐश्वर्य)- की और गूलर-काष्ठसे हवन किया जाय तो वह पुत्रकी प्राप्ति करानेवाला होता है। गोशालामें घीके द्वारा आहुति देनेसे गौओंकी प्राप्ति एवं वृद्धि होती है। इसी प्रकार सम्पूर्ण वृक्षोंकी समिधासे किया गया होम बुद्धिकी वृद्धि करनेवाला होता है॥ १९-२०॥
'ॐ श्रीं नमो भगवते नारसिंहाय ज्वालामालिने दीप्त दंष्ठायाग्ग्रिनेत्राय सर्वरक्षोघ्नाय सर्वभूतविनाशाय सर्वज्वरविनाशाय दह दह पच पच रक्ष रक्ष हूं फट् ॥ २१॥'
- यह भगवान् नरसिंह का मन्त्र समस्त पापों का निवारण करने वाला है। इस का जप आदि किया जाय तो यह क्षुद्र महामारी, विष एवं रोगों का हरण कर सकता है। चूर्णीभूत मण्डूक वयस् (औषध- विशेष) से हवन किया जाय तो वह जलस्तम्भन और अग्रि स्तम्भन करने वाला होता है॥ २१-२२॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'नरसिंह आदिके मन्त्रोंका कथन' नामक तीन सौ छठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३०६॥
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