गणेश अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् ! Ganesh Ashtottara Shatnam Stotram

गणेश अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् !

गणेश अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्, भगवान गणेश के 108 नामों का स्तोत्र है. यह स्तोत्र बाधाओं को दूर करने में बहुत प्रभावशाली माना जाता है. इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से शांति मिलती है और जीवन से बुराइयां दूर होती हैं.
गणेश जी के मंत्र को आम तौर पर 108 बार बोला जाता है. विशेष अवसरों पर, जैसे कि उत्सव, पूजन, यज्ञ, या अनुष्ठानों में, मंत्र को ज़्यादा बार भी बोला जा सकता है. गणेश मंत्र का 108 बार जप ज़्यादा प्रभावी माना जाता है.

धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, गणेश जी की पूजा करने से कई फ़ायदे होते हैं. गणेश अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र के पाठ से भी कई फ़ायदे मिलते हैं: -
  • इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से शांति मिलती है और जीवन से बुराइयां दूर होती हैं.
  • इससे स्वास्थ्य लाभ होता है और धन की वृद्धि होती है.
  • भयमुक्ती होती है.
  • छह महीने में इच्छित फल की प्राप्ति होती है.
  • विद्यार्थियों को विद्या और धन की कामना रखने वालों को धन मिलता है.
  • पुत्र की कामना रखने वालों को पुत्र की प्राप्ति होती है.
  • एक साल तक नियमित पाठ करने से सिद्धि की प्राप्ति होती है
Ganesh Ashtottara Shatnam Stotram

गणेश अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् ! Ganesh Ashtottara Shatnam Stotram

यम उवाच 

गणेश हेरम्ब गजाननेति महोदर स्वानुभवप्रकाशिन् ! 
वरिष्ठ ! सिद्धिप्रिय ! बुद्धिनाथ ! वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥१॥ 

अनेकविघ्नान्तक वक्रतुण्ड स्वसंज्ञवासिंश्च चतुर्भुजेति । 
कवीश देवान्तकनाशकारिन् ! वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥२॥

महेशसूनो गजदैत्यशत्रो वरेण्यसूनो विकट त्रिनेत्र !। 
परेश पृथ्वीधर एकदन्त वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥३॥ 

प्रमोद मोदेति नरान्तकारे षडूर्मिहन्तर्गजकर्ण ढुण्ढे ! । 
द्वन्द्वारिसिन्धो स्थिरभावकारिन् ! वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥४॥ 

विनायक ज्ञानविघातशत्रो पराशरस्यात्मज विष्णुपुत्र ! । 
अनादिपूजाऽऽखुग सर्वपूज्य ! वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥५॥

विद्येज्य लम्बोदर धूम्रवर्णं मयूरपालेति मयूरवाहिन् ! ।
सुराऽसुरैः सेवितपादपद्म वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥६॥

वरिन्महाखुध्वज शूर्पकर्ण शिवाज सिंहस्थ अनन्तवाह ! ।
दितौज विघ्नेश्वर शेषनाभे वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥७॥

अणोरणीयो महतो महीयो रवेर्ज योगेशज ज्येष्ठराज ! ।
निधीश मन्त्रेण च शेषपुत्र वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥८॥

वर-प्रदातरदितेश्च सूनो परात्पर ज्ञानद तारवक्त्र ! ।
गुहाग्रज ब्राह्मण पार्श्वपुत्र वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥९॥

सिन्धोश्च शत्रो परशुप्रयाणे शमीश पुष्यप्रिय विघ्नहारिन् ।
दूर्वाभरैरर्चित देवदेव वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥१०॥

धियः प्रदातश्च शमीप्रियेति सुसिद्धिदातश्च सुशान्तिदातः ।
अमेय-मायामित-विक्रमेति वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥११॥

द्विधा-चतुर्थीप्रिय कश्यपाच्च धनप्रद ज्ञानपदप्रकाशिन् ।
चिन्तामणे चित्तविहार-कारिन् ! वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥१२॥

यमस्य शत्रो ह्यभिमानशत्रो विधेर्जहन्तः कपिलस्य सूनो ।
विदेह स्वानन्दज योगयोग वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥१३॥

गणस्य शत्रो कपिलस्य शत्रो समस्तभावज्ञ च भालचन्द्र ! ।
अनादि-मध्यान्तमय प्रचारिन् वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥१४॥

विभो जगद्रूप गणेश भूमन् पुष्टः पते आखुगतेति बोधः ।
कर्तुश्च पातुश्च तु संहरेति वदन्तमेवं त्यजत प्रभीताः ॥१५॥

इदमष्टोत्तरशतं नाम्नां तस्य पठन्ति ये।
शृण्वन्ति तेषु वै भीताः कुरुध्वं मा प्रवेशनम् ॥१६॥

भुक्ति-मुक्तिप्रदं ढुण्ढेर्धन-धान्य-प्रवर्धनम् । 
ब्रह्मभूतकरं स्तोत्रं जपन्तं नित्यमादरात् ॥१७॥

यत्र कुत्र गणेशस्य चिह्नयुक्तानि वै भटाः । 
धामानि तत्र संभीताः कुरुध्वं मा प्रवेशनम् ॥१८॥ 

इति मुद्गलपुराणे यमदूतसंवादे गणेशाऽष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् ॥९॥

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