अग्नि पुराण दो सौ तिरसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 263 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ तिरसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 263 Chapter !

अग्नि पुराण 263 अध्याय - उत्पात शान्तिः

पुष्कर उवाच

श्रीसूक्तं प्रतिवेदञ्च क्षेयं लक्षअमीविवर्द्धनं ।
हिरण्यवर्णा हरिणीमृचः पञ्चदश श्रियः ।। १ ।।

रथेष्वक्षेषु वाजेति चतस्रो यजुषि श्रियः ।
स्रावन्तीयं तथा साम श्रीसूक्तं सामवेदके ।। २ ।।

श्रियं धातर्मयि धेहि प्रोक्तमाथर्वणे तथा ।
श्रीसूक्तं यो जपेद्‌भक्त्या हत्वा श्रीस्तस्य वै भवेत् ।। ३ ।।

पद्मानि चाथ विल्वानि हुत्वाज्यं वा लिलान् श्रियः ।
एकन्तु पौरुषं सूक्तं प्रतिवेदन्तु सर्वदं ।। ४ ।।

सूक्तेन दद्यान्निष्पापो ह्येकैकया१ जलाञ्जलिं ।
स्नात एकैकया पुष्पं विष्णोर्द्दत्वाघहा भवेत् ।। ५ ।।

स्नात एकैकया दत्वा फलं स्यात् सर्वकामभाक् ।
महापापोपपापान्तो भवेज्जप्त्वा तु पैरुषं ।। ६ ।।

कृच्छ्रैर्विशुद्धो जप्त्वा च हुत्वा स्नात्वाऽथ सर्वभाक् ।
अष्टादशभ्यः सान्तिभ्यस्तिस्रोऽन्याः शान्तयो वराः ।। ७ ।।

अमृता चाभ्या सौम्या सर्व्वोत्पातविमर्द्दनाः ।
अमृता सर्वदैवत्या अभ्या ब्रह्मदैवता ।। ८ ।।

सौम्या च सर्वदैवत्या एका स्यात्सर्व्वकामदा ।
अभयायामणिः कार्य्यो वरुणस्य भृगूत्तम ।। ९ ।।

शतकाण्डोऽमृतायाश्च सौम्यायाः शङ्खजो मणिः ।
तद्दैवत्यास्तथा मन्त्राः सिद्धौ स्यान्मणिबन्धनं ।। १० ।।

दिव्यान्तरीक्षभौमादिसमुत्पातार्दनाइमाः ।
द्विव्यान्तरीक्षभौमन्तु अद्भुतं त्रिविधं श्रृणु ।। ११ ।।

ग्रहर्क्षवैकृतं दिव्यमान्तरीक्षन्निबोध मे ।
उल्कापातश्च दिग्दाहः परिवेशस्तथैव च ।। १२ ।।

गन्धर्वनगरञ्चैव वृष्टिश्च विकृता च या ।
चरस्थिरभवं भूमौ भूकम्पमपि भूमिजं ।। १३ ।।

सप्ताहाभ्यन्तरे वष्टावद्भुतं निष्फलं भवेत् ।
शान्तिं विना त्रिभिर्वर्षैरद्भुतं भयकृद्भवेत् ।। १४ ।।

देवतार्च्चाः प्रनृत्यन्ति वेपन्ते प्रज्वलन्ति च ।
आरठन्ति च रोदन्ति प्रस्विद्यन्तेहसन्ति च ।। १५ ।।

अर्च्चाविकारोपशमोऽभ्यर्च्य हुत्वा प्रजापतेः ।
अनग्निर्दीप्यते यत्र राष्ट्रे च भृशनिस्वनं ।। १६ ।।

न दीप्यते चेन्धनवांस्तद्राष्ट्रं पीड्यते नृपैः ।
अग्निवैकृत्यशमनमग्निमन्त्रैश्च भार्गव ।। १७ ।।

अकाले फलिता वृक्षाः क्षीरं रक्तं स्रवन्ति च ।
वृक्षोत्पातप्रशमनं शिवं पूज्य च कारयेत् ।। १८ ।।

अतिवृष्टिरनावृष्टिर्दुर्भिक्षायोभयं मतं ।
अनृतौ त्रिदिनारब्घवृष्टिर्ज्ञेया भयाय हि ।। १९ ।।

वृष्टिवैकृत्यनाशः स्यात्पर्जन्येन्द्वर्कपूजनात् ।
नगरादपसर्पन्ते समीपमुपयान्ति च ।। २० ।।

नद्यो ह्रदप्रश्रवणा विरसाश्च भवन्ति च ।
सलिलाशयवैकृत्ये जप्तव्यो वारुणो मनुः ।। २१ ।।

अकालप्रसवा नार्य्यः कालतो वाप्रजास्तथा ।
विकृतप्रसवाश्चैव युग्मप्रसवनादिकं ।। २२ ।।

स्त्रीणां प्रसववैकृत्ये स्त्रीविप्रादि प्रपूजयेत् ।
वड़वा हस्तिनी गौर्वा यदि युग्मं प्रसूयते ।। २३ ।।

विजात्यं विकृतं वापि षड्‌भिर्मासैर्म्रियेत् वै ।
विकृतं वा प्रसूयन्ते परचक्रभयं भवेत् ।। २४ ।।

होमः प्रसूतिवैकृत्ये जपो विप्रादिपूजनं ।
यानि यानान्ययुक्तानि युक्तानि न वहन्ति च ।। २५ ।।

आकाशे तूर्यनादाश्च महद्भयमुपस्थितं ।
प्रविशन्ति यदा ग्राममारण्या मृगपक्षिणः ।। २६ ।।

अरण्यं यान्ति वा ग्राम्याः जलं यान्ति स्थलोद्भवाः ।
स्थलं वा जलजा यान्ति राजाद्वारादिके शिवाः ।। २७ ।।

प्रदोषे कुक्कुटो वासे शिवा चार्कोदये भवेत् ।
गृहङ्कपोतः प्रविशेत् क्रव्याद्वा मूर्दिध्न लीयते ।। २८ ।।

मधुरां मक्षिकां कुर्य्यांत् काको मैथुनगो दृशि ।
प्रासादतोरणोद्यानद्वारप्राकारवेश्मनां ।। २९ ।।

अनिमित्तन्तु पतनं दृढ़ानां राजमृत्यवे ।
रजसा वाथ कधूमेन दिशो यत्र समाकुलाः ।। ३० ।।

केतूदयोपरागौ च छिद्रता शशिसूर्ययोः ।
ग्रहर्क्षविकृतिर्यत्र तत्रापि भयमादिशेत् ।। ३१ ।।

अग्निर्यत्र न दीप्येत स्त्रवन्ते चोदकुम्भकाः ।
मृतिर्भयं शून्य्तादिरुत्पातानां फलम्भवेत् ।। ३२ ।।

द्विजदेवादिपूजाब्यः शान्तिर्जप्यैस्तु होमतः ।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये उत्पातशन्तिर्नाम त्रिषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण दो सौ तिरसठवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 263 Chapter In Hindi

दो सौ तिरसठवाँ अध्याय - नाना प्रकारके उत्पात और उनकी शान्तिके उपाय

पुष्कर कहते हैं- परशुराम ! प्रत्येक वेदके 'श्रीसूक्त 'को जानना चाहिये। वह लक्ष्मीकी वृद्धि करने वाला है। 'हिरण्यवर्णा हरिर्णी' इत्यादि पंद्रह ऋचाएँ ऋग्वेदीय श्री सूक्त हैं। 'रथे०' (२९-४३) 'अक्षराजाय०', (३०।१८) 'बाजः०', (१८।३४) एवं 'चतस्त्रः०' (१८।३२)- ये चार मन्त्र यजुर्वेदीय श्रीसूक्त हैं।' श्रावन्तीय साम' सामवेदीय श्रीसूक्त है तथा 'श्रियं धातर्मयि धेहि' यह अथर्ववेदका श्रीसूक्त कहा गया है। जो भक्तिपूर्वक श्रीसूक्तका जप एवं होम करता है, उसे निश्चय ही लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। श्रीदेवीकी प्रसन्नताके लिये कमल, बेल, घी अथवा तिलकी आहुति देनी चाहिये ॥ १-३ ॥

प्रत्येक वेदमें एक ही 'पुरुषसूक्त' मिलता है, जो सब कुछ देनेवाला है। जो स्रान करके 'पुरुषसूक्त 'के एक-एक मन्त्रसे भगवान् श्रीविष्णुको एक-एक जलाञ्जलि और एक-एक फूल समर्पित करता है, वह पापरहित होकर दूसरोंके भी पापका नाश करनेवाला हो जाता है। स्नान करके इस सूक्तके एक-एक मन्त्रके साथ श्रीविष्णुको फल समर्पित करके पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंका भागी होता है। 'पुरुषसूक्त 'के जपसे महापातकों और उपपातकोंका नाश हो जाता है। कृच्छ्रव्रत करके शुद्ध हुआ मनुष्य स्त्रानपूर्वक 'पुरुषसूक्त 'का जप एवं होम करके सब कुछ पा लेता है॥ ४-६३ ॥ 

अठारह शान्तियोंमें समस्त उत्पातोंका उपसंहार करनेवाली अमृता, अभया और सौम्या ये तीन शान्तियाँ सर्वोत्तम हैं।' अमृता शान्ति' सर्वदैवत्या, 'अभया' ब्रह्मदैवत्या एवं 'सौम्या' सर्वदैवत्या है। इनमेंसे प्रत्येक शान्ति सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली है। भृगुश्रेष्ठ! 'अभया' शान्तिके लिये वरुणवृक्षके मूलभागकी मणि बनानी चाहिये। अमृता' शान्तिके लिये दुर्वामूलकी मणि एवं 'सौम्या' शान्तिके लिये शङ्खमणि धारण करे। इसके लिये उन- उन शान्तियोंके देवताओंसे सम्बद्ध मन्त्रोंको सिद्ध करके मणि बाँधनी चाहिये। ये शान्तियाँ दिव्य, आन्तरिक्ष एवं भौम उत्पातोंका शमन करनेवाली हैं। 'दिव्य', 'आन्तरिक्ष' और 'भौम' यह तीन प्रकारका अद्भुत उत्पात बताया जाता है, सुनो। ग्रहों एवं नक्षत्रोंकी विकृतिसे होनेवाले उत्पात 'दिव्य' कहलाते हैं। अब 'आन्तरिक्ष' उत्पातका वर्णन सुनो। उल्कापात, दिग्दाह, परिवेश, सूर्यपर घेरा पड़ना, गन्धर्व नगरका दर्शन एवं विकारयुक्त वृष्टि-ये अन्तरिक्ष-सम्बन्धी उत्पात हैं। भूमिपर एवं जंगम प्राणियों से होने वाले उपद्रव तथा भूकम्प ये 'भौम' उत्पात है। इन त्रिविध उत्पातंकि दीखने के बाद एक सप्ताहके भीतर यदि वर्षा हो जाय तो वह 'अद्भुत' निष्फल हो जाता है। यदि तीन वर्षतक अद्भुत उत्पातकी शान्ति नहीं की गयी तो वह लोकके लिये भयकारक होता है। जब देवताओंकी प्रतिमाएँ नाचती, काँपती, जलती, शब्द करती, रोती, पसीना बहाती या हँसती हैं, तब प्रतिमाओंके इस विकारकी शान्तिके लिये उनका पूजन एवं प्राजापत्य होम करना चाहिये। जिस राष्ट्रमें बिना जलाये ही घोर शब्द करती हुई आग जल उठती है और इन्धन डालनेपर भी प्रज्वलित नहीं होती, वह राष्ट्र राजाओंके द्वारा पीड़ित होता है॥ ७-१६ ॥ 

भृगुनन्दन ! अग्नि-सम्बन्धी विकृति की शान्ति के लिये अग्निदैवत्य मन्त्रों से हवन बताया गया है। जब वृक्ष असमय में ही फल देने लगें तथा दूध और रक्त बहावें तो वृक्षजनित भौम उत्पात होता है। वहाँ शिवका पूजन करके इस उत्पात की शान्ति करावे। अतिवृष्टि और अनावृष्टि दोनों ही दुर्भिक्षा का कारण मानी गयी हैं। वर्षा ऋतुके सिवा अन्य ऋतुओंमें तीन दिनतक अनवरत वृष्टि होनेपर उसे भयजनक जानना चाहिये। पर्जन्य, चन्द्रमा एवं सूर्यके पूजनसे वृष्टि सम्बन्धी वैकृत्य (उपद्रव) का विनाश होता है। जिस नगरसे नदियाँ दूर हट जाती हैं या अत्यधिक समीप चली आती हैं और जिसके सरोवर एवं झरने सूख जाते हैं, वहाँ जलाशयोंके इस विकार को दूर करने के लिये वरुण देवता-सम्बन्धी मन्त्रका जप करना चाहिये। जहाँ स्त्रियाँ असमयमें प्रसव करें, समयपर प्रसव न करें, विकृत गर्भको जन्म दें या युग्म-संतान आदि उत्पन्न करें, वहाँ स्त्रियों के प्रसव-सम्बन्धी वैकृत्यके निवारणार्थ साध्वी स्त्रियों और ब्राह्मण आदिका पूजन करे ॥ १७-२२ ॥ 

जहाँ घोड़ी, हथिनी या गौ एक साथ दो बच्चों को जनती हैं या विकारयुक्त विजातीय संतानको जन्म देती हैं, छः महीनोंके भीतर प्राणत्याग कर देती हैं अथवा विकृत गर्भका प्रसव करती हैं, उस राष्ट्रको शत्रुमण्डल से भय होता है। पशुओंके इस प्रसव-सम्बन्धी उत्पात की शान्ति के उद्देश्य से होम, जप एवं ब्राह्मणोंका पूजन करना चाहिये। जब अयोग्य पशु सवारीमें आकर जुत जाते हैं,

योग्य पशु यानका वहन नहीं करते हैं एवं आकाशमें तूर्यनाद होने लगता है, उस समय महान् भय उपस्थित होता है। जब वन्यपशु एवं पक्षी ग्राममें चले जाते हैं, ग्राम्यपशु वन में चले जाते हैं, स्थलचर जीव जल में प्रवेश करते हैं, जलचर जीव स्थलपर चले जाते हैं, राजद्वारपर गीदड़ियाँ आ जाती हैं, मुर्गे प्रदोषकालमें शब्द करें, सूर्योदय के समय गोदड़ियाँ रुदन करें, कबूतर घरमें घुस आवें, मांसभोजी पक्षी सिरपर मँडराने लगें, साधारण मक्खी मधु बनाने लगें, कौए सबकी आँखोंक सामने मैथुनमें प्रवृत्त हो जायें, दृढ़ प्रासाद, तोरण, उद्यान, द्वार, परकोटा और भवन अकारण ही गिरने लगें, तब राजा को मृत्यु होती है। जहाँ धूल या धुएँ से दशों दिशाएँ भर जायें, केतुका उदय, ग्रहण, सूर्य और चन्द्रमा में छिद्र प्रकट होना ये सब ग्रहों और नक्षत्रोंके विकार हैं। ये विकार जहाँ प्रकट होते हैं, वहाँ भयकी सूचना देते हैं। जहाँ अग्रि प्रदीप्त न हो, जलसे भरे हुए घड़े अकारण ही चूने लगें तो इन उत्पातों के फल मृत्यु, भय और महामारी आदि होते हैं। ब्राह्मणों और देवताओं की पूजा से तथा जप एवं होमसे इन उत्पातोंकी शान्ति होती है॥ २३-३३॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'उत्पात शान्तिका कथन' नामक दो सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६३॥

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