अग्नि पुराण दो सौ अस्सीवाँ अध्याय ! Agni Purana 280 Chapter !
अग्नि पुराण 280 अध्याय - सर्वरोगहराण्यौषधानि
धन्वन्तरिरुवाच
शारीरमानसागन्तुसहजा व्याधयो मताः ।
शारीरा ज्वरकुष्ठाद्याः क्रोधाद्या मानसा मताः ।। १ ।।
आगन्तवो विघातोत्थाः सहजाः क्षुज्जरादयः ।
शारीरागन्तुनाशाय सूर्य्यवारे घृतं गुड़म् ।। २ ।।
लवणं सहिरण्यञ्च विप्रायापूपमर्पयेत् ।
चन्द्रे चाभ्यङ्गदो विप्रे सर्वरोगैः प्रमुच्यते ।। ३ ।।
तैलं शनैश्चरे दद्यादाश्विने गोरसान्नदः ।
घृतेन पयसा लिङ्गं संस्नाप्य स्याद्रुगुज्झितः ।। ४ ।।
गायत्र्या हावयेद्वह्नौ दूर्वान्त्रिमधुराप्लुताम् ।
यस्मिन् भे व्याधिमाप्नोति तस्मिन् स्नानं बलिः शुभे ।। ५ ।।
मानसानां रुजादीनां विष्णोः स्तोत्रं हरं भवेत् ।
वातपित्तकफा दोषा धातवश्च तथा श्रृणु ।। ६ ।।
भुक्तं पक्काशयादन्नं द्विधा याति च सुश्रुत ।
अंशेनैकेन किट्टत्वं रसताञ्चापरेण च ।। ७ ।।
किट्टभागो मलस्तत्र विण्मूत्रस्वेददूषिकाः ।
नासामलह्कर्णमलं तथा देहमलञ्च यत् ।। ८ ।।
रसभागाद्रसस्तत्र समाच्छोणिततां व्रजेत् ।
मांसं रक्तात्ततो मेदो मेदसोऽस्थ्नश्च सम्भवः ।। ९ ।।
अस्थनो मज्जा ततः शुक्रं शुक्राद्रागस्तथौजसः ।
देशमार्त्ति बलंशक्तिं कालं प्रकृतिमेव च ।। १० ।।
ज्ञात्वा चिकित्सितं कुर्य्याद्भेषजस्य तथा बलम् ।
तिथिं रिक्तान्त्यजेद् भौमं मन्द्भन्दारुणोग्रकम् ।। ११ ।।
हरिगोद्विजचन्द्रार्क्कसुरादीन् प्रतिपूज्य च ।
श्रृणु मन्त्रमिमं विद्वन् भेषजारम्भमाचरेत् ।। १२ ।।
ब्रह्मदक्षाश्विरुद्रेन्द्रभूचन्द्रार्क्काऽनिलानलाः ।
ऋषयश्चौषधिग्रामा भूतसकङ्घाश्च पान्तु ते ।। १३ ।।
रसायनमिवर्षीणां देवानाममृतं यथा ।
सुधेवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते ।। १४ ।।
बातश्लेष्मातको देशो वहुवृक्षो वहूदकः ।
अनूपइतिविख्यातो जाङ्गलस्तद्विवर्ज्जितः ।। १५ ।।
किञ्चिद्वृक्षोदको देशस्तथा साधारणः स्मृतः ।
जाङ्गलः पित्तबहुलो मध्यः साधारणः स्मृतः ।। १६ ।।
सूक्ष्मः शीतश्चलो वायुः पित्तमुष्णं कटुत्रयम् ।
स्थिराम्लस्निग्धमधुरं बलाशञ्च प्रचक्षते ।। १७ ।।
वृद्धिः समानैरेतेषां विपरीतैर्विपर्य्ययः ।
रसाः स्वाद्वम्ललवणाः श्लेष्मला वायुनाशनाः ।। १८ ।।
कटुतिक्तकषायाश्य वातलाः श्लेष्मनाशनाः ।
कट्वम्ललवणा ज्ञेयास्तथा पित्तविवर्द्धनाः ।। १९ ।।
तिक्तस्वादुकषायाश्च तथा पित्तविनाशनाः ।
रसस्यैतद्गुणं नास्ति विपाकस्यैतदिष्यते ।। २० ।।
वीर्य्योष्णाः कफवातघ्नाः शीताः पित्तविनाशनाः ।
प्रभावतस्तथा कर्म्म ते कुर्वन्ति च सुश्रुत ।। २१ ।।
शिशिरे च वसन्ते च निदाघे च तथा क्रमात् ।
चयप्रकोपप्रशमाः कफस्य तु प्रकीर्त्तिताः ।। २२ ।।
निदाघवर्षारात्रौ च तथा शरदि सुश्रुत ।
चयप्रकोपप्रशमाः पवनस्य प्रकीर्त्तिताः ।। २३ ।।
मेघकाले च शरदि हेमन्ते च यथाक्रमात् ।
चयप्रकोपप्रशमास्तथा पित्तस्य कीर्त्तिताः ।। २४ ।।
वर्षादयो विसर्गास्तु हेमन्ताद्यास्तथा त्रयः ।
शिशिराद्यास्तथादानं ग्रीष्मान्ता ऋतवस्त्रयः ।। २५ ।।
सौम्यो विसर्गस्त्वादानमाग्नेयं परिकीर्त्तितम् ।
वर्षादीस्त्रीनृतून् सोमश्चरन् पर्य्यायशो रसान् ।। २६ ।।
जनयत्यम्ललवणमधुरांस्त्रीन् यथाक्रमम् ।
शिशिरादीनृतूनर्कश्चरन् पर्य्यायशो रसान् ।। २७ ।।
विवर्द्धयेत्तथा तिक्तकषायकटुकान् क्रमात् ।
यथा रजन्यो वर्द्धन्ते बलमेकं हि वर्द्धते ।। २८ ।।
क्रमशोऽथ मनुष्याणां हीयमानासु हीयते ।
रात्रिभुक्तदिनानाञ्च वयसश्च तथैव च ।। २९ ।।
आदिमध्यावसानेषु कफपित्तसमीरणाः ।
प्रकोपं यान्ति कोपादौ काले तेषाञ्चयः स्मृतः ।। ३० ।।
प्रकोपोत्तरके काले रामस्तेषां प्रकीर्त्तितः ।
अतिभोजनतो विप्र तथा चाभोजनेन च ।। ३१ ।।
रोगा हि सर्वे जायन्ते वेगोदीरणधारणैः ।
अन्नेन कुक्षेर्द्वावंशावेकं पानेन पूरयेत् ।। ३२ ।।
आश्रयं पवनादीनां तथैकमवशेषयेत् ।
व्याधेर्न्निदानस्य तथा विपरीतमथौषधम् ।। ३३ ।।
कर्तव्यमेतदेवात्र मया सारं प्रकीर्त्तितम् ।
नाभेरुद्र्ध्वमधश्चैव गुदश्रोण्योस्तथैव च ।। ३४ ।।
बलाशपित्तवातानां देहे स्थानं प्रकीर्त्तितं ।
तथापि सर्वगाश्चैते देहे वायुर्विशेषतः ।। ३५ ।।
देहस्य मध्ये हृदयं स्थानं तन्मनसः स्मृतम् ।
कृशोऽल्पकेशश्चपलो बहुवाग्विषमानलः ।। ३६ ।।
व्योमगश्च तथा स्वप्ने वातप्रकृतिरुच्यते ।
अकालपलितः क्रोधी प्रस्वेदी मधुरप्रियः ।। ३७ ।।
स्वप्ने च दीप्तिमत्प्रेक्षी पित्तप्रकृतिको नरः ।
तामसा राजसाश्चैव सात्विकाश्च तता स्मृता ।। ३८ ।।
शुद्धाम्बुदर्शी स्वप्ने च कफप्रकृतिको नरः ।
तामसा राजसाश्चैव सात्विकाश्च तथा स्मृताः ।। ३९
मनुष्या मुनिशार्दूल वातपित्तकफात्मकाः ।
रक्तपित्तं व्यवायाच्च गुरुकर्म्मप्रवर्त्तनैः ।। ४० ।।
ककदन्नभोजनाद्वायुर्देहे शोकाच्च कुप्यति ।
विदाहिना तथोल्कानामुष्णान्नाध्वनिसेविनां१ ।। ४१ ।।
पित्तं प्रकोपमायाति भयेन च तथा कद्विज ।
अत्यम्बुपानगुर्व्वन्नभोजिनां भुक्तशायिनाम ।। ४२ ।।
श्लेष्मा प्रकोपमायाति तथा ये चालसा जनाः ।
वाताद्युत्थानि रोगाणि ज्ञात्वा शाम्यानि लक्ष्णैः ।। ४३ ।।
अस्थिभङ्गः कषायत्वमास्ये शुष्कास्यता तथा ।
जृम्भणं लोमहर्षश्च वातिकव्याधिलक्षणम् ।। ४४ ।।
नखनेत्रशिराणान्तु पीतत्वं कटुता मुखे ।
तृष्णा दाहोष्णता चैव पित्तव्याधिनिदर्शनम् ।। ४५ ।।
आलस्यञ्च प्रसेकश्च गुरुता मधुरास्यता ।
उष्णाभिलाषिता चेति श्लेष्मिकव्याधिलक्षणम् ।। ४६ ।।
स्निग्धोष्णमन्नमभ्यङ्गस्तैलपानादि वातनुत् ।
आज्यं क्षीरांसिताद्यं च चन्द्ररश्म्यादि पित्तनुत् ।। ४७ ।।
सक्षौद्रं त्रिफलातैलं व्यायामादि कफापहम् ।
सर्वरोगप्रशान्त्यै स्याद्विष्णोर्ध्यानञ्च चपूजनम् ।। ४८ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये सर्वरोगहराण्यौषधानि नामाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - दो सौ अस्सीवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 280 Chapter!-In Hindi
दो सौ अस्सीवाँ अध्याय - सर्वरोगहर औषधोंका वर्णन
भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं- सुश्रुत! शारीर, मानस, आगन्तुक और सहज- ये चार प्रकारको व्याधियाँ हैं। ज्वर और कुष्ठ आदि 'शारीर' रोग हैं, क्रोध आदि 'मानस' रोग हैं, चोट आदिसे उत्पन्न रोग 'आगन्तुक' कहे जाते हैं तथा भूख, बुढ़ापा आदि 'सहज' (स्वाभाविक) रोग हैं। 'शारीर' तथा 'आगन्तुक' व्याधिके नाशके लिये रविवारको ब्राह्मणकी पूजा करके उसे घृत, गुड़ नमक और सुवर्णका दान करे। जो सोमवारको ब्राह्मणके लिये उबटन देता है, वह सब रोगोंसे छूट जाता है। शनिवारको तैलका दान करे। आश्विनके महीनेमें गोरस गायका घी, दूध और दही तथा अन्न देनेवाला सब रोगोंसे छुटकारा पा जाता है। घृत तथा दूधसे शिवलिङ्गको खान करानेसे मनुष्य रोगहीन हो जाता है। त्रिमधुर (शर्करा, गुड़, मधु) में डुबायी हुई दूर्वाका गायत्री मन्त्रसे हवन करनेपर मनुष्य सब रोगोंसे छूट जाता है। जिस नक्षत्रमें रोग पैदा हो, उसी शुभ नक्षत्रमें स्नान करे तथा बलि दे। भगवान् विष्णुका स्तोत्र 'मानस-रोग' आदिको हर लेनेवाला है। अब वात, पित्त एवं कफ-इन दोषोंका तथा रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र आदि धातुओंका वर्णन सुनो ॥ १-६ ॥
सुश्रुत ! खाया हुआ अन्न पक्वाशयसे दो भागोंमें विभक्त हो जाता है। एक अंशसे वह किट्ट होता है और दूसरे अंशसे रस। किट्टभाग मल है, जो विष्ठा, मूत्र तथा स्वेदरूपमें परिणत होता है। वही नेत्रमल, नासामल, कर्णमल तथा देहमल कहलाता है। रस अपने समस्त भागसे रुधिररूपमें परिणत हो जाता है। रुधिरसे मांस, मांससे मेद, मेदसे अस्थि, अस्थिसे मज्जा, मज्जासे शुक्र, शुक्रसे राग (रंग या वर्ण) तथा ओजस् उत्पन्न होता है। चिकित्सकको चाहिये कि देश, काल, पीड़ा, बल, शक्ति, प्रकृति तथा भेषजके बलको समझकर तदनुकूल चिकित्सा करे। औषध प्रारम्भ करनेमें रिक्ता (४,९,१४) तिथि, भौमवार एवं मन्द, दारुण तथा उग्र नक्षत्रको त्याग देवे। विष्णु, गौ, ब्राहाण, चन्द्रमा, सूर्य आदि देवोंकी पूजा करके रोगीके उद्देश्यसे निम्नाङ्कित मन्त्रका उच्चारण करते हुए औषध प्रारम्भ करे-॥७-१२॥
ब्रह्मदक्षाश्चिरुद्रेन्द्रभूचन्द्रार्कानिलानलाः।
ऋषयश्रौषधीग्रामा भूतसंघाश्च पान्तु ते ॥
रसायनमिवर्षीणां देवानाममृतं यथा।
सुधैवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते ॥
'ब्रह्मा, दक्ष, अश्विनीकुमार, रुद्र, इन्द्र, भूमि, चन्द्रमा, सूर्य, अनिल, अनल, ऋषि, ओषधिसमूह तथा भूतसमुदाय-ये तुम्हारी रक्षा करें। जैसे ऋषियोंके लिये रसायन, देवताओंके लिये अमृत तथा श्रेष्ठ नागोंके लिये सुधा ही उत्तम एवं गुणकारी है, उसी प्रकार यह औषध तुम्हारे लिये आरोग्यकारक एवं प्राणरक्षक हो' ॥ १३-१४॥
देश- बहुत वृक्ष तथा अधिक जलवाला देश 'अनूप' कहलाता है। वह बात और कफ उत्पन्न करनेवाला होता है। जांगल देश 'अनूप' देशके गुण-प्रभावसे रहित होता है। थोड़े वृक्ष तथा थोड़े जलवाला देश 'साधारण' कहा जाता है। जांगल देश अधिक पित्त उत्पन्न करनेवाला तथा साधारण देश मध्यमपित्तका उत्पादक है॥ १५-१६ ॥
वात, पित्त, कफके लक्षण- वायु रूक्ष, शीत तथा चल है। पित्त उष्ण है तथा कटुत्रय (सोंठ, मिर्च, पीपली) पित्तकर हैं। कफ स्थिर, अम्ल, खिग्ध तथा मधुर है। समान वस्तुओंके प्रयोगसे इनकी वृद्धि तथा असमान वस्तुओंके प्रयोगसे हानि होती है। मधुर, अम्ल एवं लवण रस कफकारक तथा वायुनाशक हैं। कटु, तिक्त एवं कषाय रस वायुकी वृद्धि करते हैं तथा कफनाशक हैं। इसी तरह कटु, अम्ल तथा लवण रस पित्त बढ़ानेवाले हैं। तिक्त, स्वादु (मधुर) तथा कषाय रस पित्तनाशक होते हैं। यह गुण या प्रभाव रसका नहीं, उसके विपाकका माना गया है। उष्णवीर्य कफनाशक तथा शीतवीर्य पित्तनाशक होते हैं। सुश्रुत। ये सब प्रभावसे ही वैसा कार्य करते हैं ॥ १७-२१ ॥
शिशिर, वसन्त तथा शरमें क्रमशः कफके चय, प्रकोप तथा प्रशमन बताये गये हैं। अर्थात् कफका चय शिशिर ऋतुमें, प्रकोप वसन्त- ऋतुमें तथा प्रशमन ग्रीष्म ऋतुमें होता है। सुश्रुत ! वायुका संचय ग्रीष्ममें, प्रकोप वर्षा तथा रात्रिमें और शमन शरमें कहा गया है। इसी प्रकार पित्तका संचय वर्षामें, प्रकोप शरमें तथा शमन हेमन्तमें कहा गया है। वर्षासे हेमन्तपर्यन्त (वर्षा, शरद्, हेमन्त ये) तीन ऋतुएँ 'विसर्ग-काल' कही गयी हैं तथा शिशिरसे ग्रीष्मपर्यन्त तीन ऋतुओंको (औषध लेनेके निमित्त) 'आदान (काल)' कहा गया है। विसर्ग कालको 'सौम्य' और आदानकालको 'आग्रेय' कहा गया है। वर्षा आदि तीन ऋतुओंमें चलता हुआ चन्द्रमा ओषधियोंमें क्रमशः अम्ल, लवण तथा मधुर रसोंको उत्पन्न करता है। शिशिर आदि तीन ऋतुओंमें विचरता हुआ सूर्य क्रमशः तिक्त, कषाय तथा कटु रसोंको बढ़ाता है। रातें ज्यों-ज्यों बढ़ती हैं, त्यों-त्यों ओषधियोंका बल बढ़ता है॥ २२-२८ ॥
जैसे-जैसे रातें घटती हैं, वैसे-वैसे मनुष्योंका बल क्रमशः घटता है। रातमें, दिनमें तथा भोजनके बाद, आयुके आदि, मध्य और अवसान कालमें कफ, पित्त एवं वायु प्रकुपित होते हैं। प्रकोपके आदिकालमें इनका संचय होता है तथा प्रकोपके बाद इनका शमन कहा गया है। विप्रवर! अधिक भोजन और अधिक उपवाससे तथा मल-मूत्र आदिके वेगोंको रोकनेसे सभी रोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये पेटके दो भागोंको अन्नसे तथा एक भागको जलसे पूरा करे। अवशिष्ट एक भागको वायु आदिके संचरणके लिये रिक्त रखे। व्याधिका निदान तथा विपरीत औषध करना चाहिये, इन सबका सार यही है, जो मैंने बतलाया है ॥ २९-३३॥
नाभिके ऊपर पित्तका स्थान है तथा नीचे श्रोणी एवं गुदाको वातका स्थान कहा गया है। तथापि ये सभी समस्त शरीरमें घूमते हैं। उनमें भी वायु विशेषरूपसे सम्पूर्ण शरीरमें संचरण करती है। (इस विषयका सुस्पष्ट वर्णन सुश्रुतमें इस प्रकार है- दोषस्थानान्यत ऊर्ध्वं वक्ष्यामः। तत्र समासेन वातः ओणिगुदसंश्रयः, तदुपर्यधो नाभेः पक्वाशयः, पक्कामाशयमध्यं पित्तस्य, आमाशयः श्लेष्मणः। (सुश्रुत, सूत्र-स्थान अध्याय २१, सूत्र) 'इसके बाद दोषोंके स्थानोंका वर्णन करूँगा- उनमें संक्षेपसे (रहस्य यह है कि) वायुका स्थान श्रोणि एवं गुदा है, उसके ऊपर एवं नाभि (ग्रहणी) के नीचे पक्वाशय है, पक्वाशय एवं आमाशयके मध्यमें पित्तका स्थान है। श्लेष्माका स्थान आमाशय है') ॥ ३४-३५ ॥
देहके मध्यमें हृदय है, जो मनका स्थान है। जो स्वभावतः दुर्बल, थोड़े बालवाला, चञ्चल, अधिक बोलनेवाला तथा विषमानल है जिसकी जठराग्रि कभी ठीकसे पाचनक्रिया करती है, कभी नहीं करती तथा जो स्वप्रमें आकाशमें उड़नेवाला है, वह वात प्रकृतिका मनुष्य है। समय (अवस्था)- से पूर्व ही जिसके बाल पकने-झरने लगे, जो क्रोधी हो, जिसे पसीना अधिक होता हो, जो मीठी वस्तुएँ खाना पसंद करता हो और स्वप्रमें अग्निको देखनेवाला हो, वह पित्त प्रकृतिका है। जो दृढ़ अङ्गोंवाला, स्थिरचित्त, सुन्दर, कान्तियुक्त, चिकने केश तथा स्वप्रमें स्वच्छ जलको देखनेवाला है, वह कफ प्रकृतिवाला मनुष्य कहा जाता है। इसी प्रकार तामस, राजस तथा सात्त्विक तीन प्रकारके मनुष्य होते हैं॥ ३६-३९ ॥
मुनिश्रेष्ठ! सभी मनुष्य वात, पित्त और कफवाले हैं। मैथुनसे और भारी काममें लगे रहनेसे रक्तपित्त होता है। कदन्नके भोजनसे तथा शोकसे वायु कुपित होती है। द्विजोत्तम । जलन पैदा करनेवाले पदार्थों तथा कटु, तिक्त, कषायरससे युक्त पदार्थोंके सेवनसे, मार्गमें चलनेसे तथा भयसे पित्त प्रकुपित होता है। अधिक जल पीनेवालों, भारी अन्न भोजन करनेवालों, खाकर तुरंत सो जानेवालों तथा आलसियोंका कफ प्रकुपित होता है। उत्पन्न हुए वातादि रोगोंको लक्षणोंसे जानकर उनका शमन करे ॥ ४०-४३ ॥
अस्थिभङ्ग (हड्डियोंका टूटना या व्यथित होना), मुखका कसैला स्वाद होना, मुँह सूखना, जैभाई आना तथा रोएँ खड़े हो जाना- ये वायुजनित रोगके लक्षण हैं। नाखून, आँखें एवं नस नाड़ियोंका पीला हो जाना, मुखमें कड़वापन प्रतीत होना, प्यास लगना तथा शरीरमें दाह या गर्मी मालूम होना ये पित्तव्याधिके लक्षण हैं।॥ ४४-४५ ॥
आलस्य, प्रसेक (मुँहमें पानी आना), भारीपन, मुँहका मीठा होना, उष्णकी अभिलाषा (धूपमें या आगके पास बैठनेकी इच्छा होना या उष्णपदार्थोंको ही खानेकी कामना)- ये कफज व्याधिके लक्षण हैं। स्निग्ध और गरम गरम भोजन करनेसे, तेलकी मालिशसे तथा तैल-पान आदिसे वातरोगका निवारण होता है। घी, दूध, मिश्री आदि एवं चन्द्रमाकी किरण आदि पित्तको दूर करता है। शहदके साथ त्रिफलाका तैल लेने तथा व्यायाम आदिसे कफका शमन होता है। सब रोगोंकी शान्तिके लिये भगवान् विष्णुका ध्यान एवं पूजन सर्वोत्तम औषध है ॥४६-४८ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'सर्वरोगहर औषधियोंका वर्णन' नामक दो सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८० ॥
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