अग्नि पुराण दो सौ तिरासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 283 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ तिरासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 283 Chapter !

अग्नि पुराण 283 अध्याय - नाना रोगहराण्यौषधानि

धन्वन्तरिरुवाच

सिही शटी निशायुग्मं वत्सकं क्वाथसेवनं ।
शिशोः सर्व्वातिसारेषु स्तन्यदोषेषु शस्यते ।। १ ।।

श्रृङ्गीं सकृष्णातिविषां चूर्णितां मधुना लिहेत् ।
एका चातिविशा काशच्छर्द्दिज्वरहरी शिशोः ।। २ ।।

बालैः सेव्या वचा साज्या सदुग्धा वाथ तैलयुक् ।
यष्टिकां शङ्खपुष्पीं वा बालः क्षीरान्वितां पिवेत् ।। ३ ।।

वाग्रूपसम्पद्‌युक्तायुर्म्मेधाश्रीर्वर्द्धते शिशोः ।
वचाह्यग्निशिखावासाशुण्ठीकृष्णानिशागदं ।। ४ ।।

सयष्टिसैन्धवं बालः प्रातर्मेघाकरं विवेत् ।
देवदारुमहाशिग्रुफलत्रयपयोमुचां ।। ५ ।।

क्काथः सकृष्णा मृद्वीका कल्कः सर्वान् कृमीन्‌हरेत् ।
त्रिफलाभृङ्गविश्वानां रसेषु मधुसर्पिषोः ।। ६ ।।

मेषीक्षीरे च गोमूत्रे सिक्तं रोगे हितं शिशोः ।
नासारक्तहरो नस्याद्‌दुर्व्वारस इहोत्तमः ।। ७ ।।

लशुनार्द्रकशिग्रूणां रसः कर्णस्य पूरणम् ।
तैलमार्द्रकजात्यं वा शूलहा चौष्ठरोगनुत् ।। ८ ।।

जातीपत्रं फलं व्योषं कवलं मूत्रकं निशा ।
दुग्धक्काथेऽभयाकल्के सिद्धं तैलं द्वलिजार्त्तिनुत् ।। ९ ।।

धान्याम्बु नारिकेलं गोमूत्रं क्रमूकविश्वयुक् ।
क्काथितं कबलं कार्य्यमधिजिह्वाधिशान्तये ।। १० ।।

साधितं लाङ्गलीकल्के तैलं निर्गुण्डिकारसैः ।
गण्डमालागलगण्डौ नाशयेन्नस्यकर्मणा ।। ११ ।।

पल्लवैरर्क्कपूतीकस्नुहीरुग्घातजातिकैः ।
उद्वर्त्तयेत् सगोमूत्रैः सर्वत्वग्दोषनाशनैः ।। १२ ।।

वाकुची सतिला भुक्ता वत्सरात् कुष्ठनाशनी ।
पथ्या भल्लातकी तैलगुडपिण्डी तु कुष्ठजित् ।। १३ ।

पूतीकवह्निरजनी त्रिफलाव्योषचूर्णयुक् ।
तक्रं गुदाङ्गुरे पेयं भक्ष्या वा सगुडाऽभया ।। १४ ।।

फलदार्व्वीविषाणान्तु क्काथो धात्रीरसोऽथवा ।
पातव्यो रजनीकल्कः क्षौद्राक्षौद्रप्रमेहिणा ।। १५ ।।

वासागर्भो व्याधिघातक्काथ एरण्डतैलयुक् ।
वातशोणितहृत् पानात् पिप्पली स्यात् प्लीहाहरी ।। १६ ।।

सेव्या जठरिणा कृष्णा स्नुक्‌क्षीरवहुभाविता ।
पयो वा रच्यदन्त्याग्निविडङ्गव्योषकल्कयुक् ।। १७ ।।

ग्रन्थिकोग्राभया कृष्णा विडङ्गाक्ता घृते कस्थिता ।
मांसन्तक्रं ग्रहण्यर्शःपाण्डुगुल्मकृमीन् हरेत् ।। १८ ।।

फलत्रयामृता वासा तिक्तभूनिम्वजस्तथा ।
क्काथः समाक्षिको हन्यात् पाण्डुरोगं सकामलं ।। १९ ।।

रक्तपित्ती पिवेद्वासासुरसं ससितं मधु ।
वरीद्राक्षाबलाशुण्ठीसाधितं वा पयः पृथक् ।। २० ।।

बरी विदारी पथ्या च बलात्रयं सवासकं ।
श्वदंष्ट्रामधुसर्पिर्भ्यामालिहेत् क्षयरोगवान् ।। २१ ।।

पथ्याशिग्रुकरञ्जार्कत्वक्‌सारं मधुसिन्धुमत् ।
समूत्रं विद्रधिं हन्ति परिपाकाय तन्त्रजित् ।। २२ ।।

त्रिवृता जीवती दन्ती मञ्जिष्ठा शर्वरीद्वयं ।
तार्क्षजं निम्बपत्रञ्च लेपः शस्तो भगन्दरे ।। २३ ।।

रुग्घातरजनीलाक्षाचूर्णाजक्षौद्रसंयुता ।
वासोवत्तिर्व्रणे योज्या शोधनी गतिनाशनी ।। २४ ।।

शयामायष्टिनिशालोध्रपद्मकोत्पलचन्दनैः ।
समरीचैः श्रृतं तैलं क्षीरे स्याद् व्रणरोहणं ।। २५ ।।

श्रीकार्पासदलैर्भस्मफलोपलवणा निशा ।
तत्पिण्डीस्वेदनं ताम्रे सतैलं स्यात् क्षतौषधं ।। २६ ।।

कुम्भीसारं पयोयुक्तं वह्निग्धं व्रणे लिपेत् ।
तदेव नाशयेत्सेकान्नारिकेलरजोघृतम् ।। २७ ।।

विश्वाजमोदसिन्धूत्थचिञ्चात्वग्भिः समाभया ।
तक्रेणोष्णाम्बुना वाथ पीतातीसारनाशनी ।। २८ ।।

वत्सकातिविषाविश्वविल्लमुस्तश्रृतं जलं ।
सामे पुराणेऽतीसारे सासृक्‌शूले च पाययेत् ।। २९ ।।

अङ्गादग्धं सुगतं सिन्धुमुष्णाम्बुना पिवेत् ।
शूलवान्थ वा तद्धि सिन्धुहिंगुकणाभया ।। ३० ।।

कटुरोहोत्कणातह्कलाजचूर्णं मधुप्लुतं ।
वस्त्रच्छिद्रगतं वक्त्रे न्यस्तं तृष्णां विनाशयेत् ।। ३१ ।।

पाठादार्व्वीजातिदलं द्राक्षामृलफलत्रयैः ।
साधितं समधु क्काथं कवलं मुखपापहृत् ।। ३२ ।।

कृष्णातिविषतिक्तेन्द्रदारुपाठापयोमुचां ।
क्काथो मूत्रे श्रृतः क्षौद्री सर्वकण्ठगदापहः ।। ३३ ।।

पथ्यागोक्षुरदुस्पर्शराजवृक्षशिलाभिदां ।
कषायः समधुः पीतो मूत्रकृच्छ्रं व्यपोहति ।। ३४ ।।

वंशत्वग्वरुणक्काथः शर्क्कराश्मविघातनः ।
शाखोटक्काथसक्षौद्रक्षीराशी श्लीपदी भवेत् ।। ३५ ।।

मासार्कत्वक्पयस्तैलं मधुसिक्तञ्च सैन्धवं ।
पादरोगं हरेत्सर्पिर्जालकुक्कुटजं तथा ।। ३६ ।।

शुण्ठीसौवर्चलाहिङ्गुचूर्णं शूण्ठीरसैर्घृतम् ।
रुजं हरेदथ क्काथो विद्धि वद्धाग्निसाधने ।। ३७ ।।

सौवर्चलाग्निहङ्‌गूनां सदीप्यानां रसैर्युतं ।
विड़दीप्यकयुक्तं वा तक्रं गुल्मातुरः पिवेत् ।। ३८ ।।

धात्रीपटोलमुद्‌गानां क्काथः साज्यो विसर्पहा ।
शुण्ठीदारुनवाक्षीरक्काथो मूत्रान्वितोऽपरः ।। ३९ ।।

सव्योषायोरजः क्षारः फलक्काथश्च शोथहृत् ।
गुड़शिग्रुत्रिवृद्भिश्च सैन्धवानां रजोयुतः ।। ४० ।।

त्रिवृताफलकक्काथः सगुड़ स्याद्विरेचनः ।
वचाफलकषायोत्थं सैन्धवानां रजोयुतः ।। ४१ ।।

त्रिफलायाः पलशतं पृथग्भृङ्गजभावितम् ।
विङ्ङ्गं लोहचूर्णञ्च दशभागसमन्वितम् ।। ४२ ।।

शतावरीगुडुच्यग्निपलानां शतविंशतिः ।
मध्वाज्यतिलजैर्लिह्यद् बलीपलितवर्ज्जितः ।। ४३ ।।

सितामधुघृतैर्युक्ता सकृष्णा त्रिफला तथा ।
त्रिफला सर्वरोगघ्नीस मधुः सर्क्करान्विता ।। ४४ ।।

सितामधुघृतैर्युक्ता सकृष्णा त्रिफला तथा ।
पथ्याचित्रकशुण्ठ्यश्च गुडुचीमुष्लीरजः ।। ४५ ।।

सगुडं भक्षितं रोगहरं त्रिशतवर्षकृते ।
किञअचिच्चूर्णं जवापुष्पं पिण्डितं विमृजेज्जले ।। ४६ ।।

तैलं भवेद् घृताकारं किञ्चिच्चूर्ण्णं जलान्वितं ।
धूपार्थं दृश्यते चित्रं वृषदंशजरायुना ।। ४७ ।।

पुनर्म्माक्षिकधूपेन दृश्यते तद्याथा पुरा ।
कर्पूरजलकाभेकतैलं पाटलिमूलयुक् ।। ४८ ।।

पिष्ट्वा लिप्य पदे द्वे च चरेदङ्गारके नरः ।
तृणौत्थानादिकं व्यूह्य दर्शयन्वै कुतूहलं ।। ४९ ।।

विषग्रहरुजध्वंसक्षुद्रनर्म्म च कामिकं ।
तत्ते षट्‌कर्म्मकं प्रोक्तं सिद्धिद्वयसमाश्रयं ।। ५० ।।

मन्त्रध्यानौषधिकथामुद्रेज्या यत्र मुष्टयः ।
चतुर्व्वर्गफलं प्रोक्तं यः पठेत्स दिवं व्रजेत् ।। ५१ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नानारोगहराण्यौषधानि नाम त्र्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - दो सौ तिरासीवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 283 Chapter!-In Hindi

दो सौ तिरासीवाँ अध्याय - नाना रोगनाशक ओषधियोंका वर्णन

भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं- अडूसा,मुलहठी या कचूर', दोनों प्रकारकी हल्दी और इन्द्रयव-इनका क्वाथ बालकोंके सभी प्रकारके अतिसारमें तथा स्तन्य (माताके दूधके) दोषोंमें प्रशस्त है। पीपल और अतीसके सहित काकड़ाश्रृंगीका अथवा केवल एक अतीसका चूर्ण करके बालकोंको मधुके साथ चटावे। इससे खाँसी, वमन और ज्वर नष्ट होता है। बालकोंको दुग्ध, घृत अथवा तैलके साथ बचका सेवन करावे अथवा मुलहठी और शङ्खपुष्पीको दूधके साथ बालक पिये। इससे बालकोंकी वाक्शक्ति एवं रूपसम्पत्तिके साथ-साथ आयु, बुद्धि और कान्तिको भी वृद्धि होती है। वच, कलिहारी, अडूसा, सोंठ, पीपल, हल्दी, कूट, मुलहठी और सैन्धव- इनका चूर्ण बालकोंको प्रातः काल पिलावे। इसका सेवन बुद्धिवर्द्धक है। देवदारु, बड़ा सहजन, त्रिफला और नागरमोथा इनका क्वाथ अथवा पीपल और मुनक्काका कल्क सभी प्रकारके कृमिरोगोंका नाशक है। शुद्ध राँगेको त्रिफला, भृङ्गराज तथा अदरखके रस या मधु-घृतमें अथवा भेड़के मूत्र या गोमूत्रमें अञ्जन करनेसे नेत्ररोगोंमें लाभ होता है। दूर्वारसका नस्य नाकसे बहनेवाले रक्तरोग (नाशा) को शान्त करनेमें उत्तम है॥ १-७॥ 

लहसुन, अदरख और सहजनके रससे कानको भर देनेपर अथवा अदरखके रस या तैलसे कानको भर देनेपर वह कर्णशूलका नाशक तथा ओष्ठ-रोगोंको दूर करनेवाला होता है। जायफल, त्रिफला, व्योष (सोंठ, मिर्च, पीपल), गोमूत्र, हल्दी, गोदुग्ध तथा बड़ी हरके कल्कसे सिद्ध किया हुआ तिलका तैल कवल (कुल्ला) करनेसे दन्तपीड़ाका नाशक है। काँजी, नारियलका जल, गोमूत्र, सुपारी तथा सौंठ इनके क्वाथका कवल मुखमें रखनेसे जिह्वाके रोगका नाश होता है। कलिहारीके कल्क (पिसे हुए द्रव्य) में निर्गुण्डीके रसके साथ सिद्ध किया हुआ तैलका नस्य लेने (नाकमें डालने) से गण्डमाला और गलगण्डरोगका नाश होता है। सभी चर्मरोगोंको नष्ट करनेवाले आक, काटा, करञ्ज, थूहर, अमलतास और चमेलीके पत्तोंको गोमूत्रके साथ पीसकर उबटन लगाना चाहिये। वाकुचीको तिलोंके साथ एक वर्षतक खाया जाय तो वह सालभरमें कुष्ठरोगका नाश कर देती है। हरै, भिलावा, तैल, गुड़ और पिण्डखजूर- ये कुष्ठनाशक औषध हैं। पाठा, चित्रक, हल्दी, त्रिफला और व्योष (सोंठ, मिर्च, पीपल)- इनका चूर्ण तक्रके साथ पीनेसे अथवा गुड़के साथ हरीतकी खानेसे अर्शरोगका नाश होता है। प्रमेह रोगीको त्रिफला, दारुहल्दी, बड़ी इन्द्रायण और नागरमोथा इनका क्वाथ या आँवलेका रस हल्दी, कल्क और मधुके साथ पीना चाहिये। अडूसेकी जड़ गिलोय और अमलतासके क्वाथमें शुद्ध एरण्डका तेल मिलाकर पीनेसे वातरक्तका नाश होता है और पिप्पली प्लीहारोगको नष्ट करती है॥ ८-१६॥

पेटके रोगीको थूहरके दूधमें अनेक बार भावना दी हुई पिप्पलीका सेवन करना चाहिये। चित्रक, विडङ्ग तथा त्रिकटु (सोंठ, मिर्च, पीपल) के कल्कसे सिद्ध दूध अरुचिरोगका निवारण करता है। पीपलामूल, वच, हरै, पीपल और विडङ्गको धीमें मिलाकर रखे। (उसके सेवनसे) या केवल तक्क्रके एक मासतक सेवनसे ग्रहणी, अर्श, पाण्डु, गुल्म और कृमिरोगोंका नाश होता है। त्रिफला, गिलोय, अडूसा, कुटकी, चिरायता- इनका क्वाथ शहदके साथ पीनेसे कामलासहित पाण्डुरोगका नाश होता है। अडूसेके रसको मिश्री और शहद मिलाकर पीनेसे या शतावरी, दाख, खरेटी और सोंठ इनसे सिद्ध किया हुआ दूध पीनेसे रक्त-पित्तरोगका नाश होता है। क्षयरोगके रोगीको शतावरी, विदारीकंद, बड़ी हरें, तीनों खरेटी, असगन्ध, गदहपूर्ना तथा गोखरूके चूर्णको शहद और घीके साथ चाटना चाहिये ॥ १७-२१ ॥ हरें, सहजन, करञ्ज, आक, दालचीनी, पुनर्नवा, सोंठ और सैन्धव- इनका गोमूत्रके साथ योग करके लेप किया जाय तो यह विद्रधिकी गाँठको पकानेके लिये उत्तम उपाय है। निशोथ, जीवन्ती, दन्तीमूल, मञ्जिष्ठा, दोनों हल्दी, रसाञ्जन और नीमके पत्तेका लेप भगन्दरमें श्रेष्ठ है। अमलतास, हरिद्रा, लाक्षा और अडूसा- इनके चूर्णको गोघृत और शहदके साथ बत्ती बनाकर नासूरमें देवे। इससे नासूरका शोधन होकर घाव भर जाता है। पिप्पली, मुलहठी, हल्दी, लोध, पद्मकाष्ठ, कमल, लालचन्दन एवं मिर्च इनके साथ गोदुग्धमें सिद्ध किया हुआ तैल घावको भरता है। श्रीताड़, कपासकी पत्तियोंकी भस्म, त्रिफला, गोलमिर्च, खरेटी और हल्दी- इनका गोला बनाकर घावका स्वेदन करे और इन ओषधियोंके तेलको घावपर लगाये। दूधके साथ कुम्भीसार (गुग्गुलसार) को आगपर जलाकर व्रणपर लेप करे। (अथवा गुग्गुलसारको दूधमें मिलाकर आगसे जले हुए व्रणपर लेप करे।) अथवा जलकुम्भीको जलाकर दूधमें मिलाकर लगानेसे सभी प्रकारके व्रण ठीक होते हैं। इसी प्रकार नारियलके जड़की मिट्टीमें घृत मिलाकर सेक करनेसे व्रणका नाश होता है ॥ २२-२७॥

सोंठ, अजमोद, सेंधानमक, इमलीकी छाल इन सबके समान भाग हरैको तक्र या गरम जलके साथ पीनेसे अतिसारका नाश होता है। इन्द्रयव, अतीस, सोंठ, बेलगिरि और नागरमोथाका क्वाथ आमसहित जीर्ण अतिसारमें और शूलसहित रक्तातिसारमें भी पिलाना चाहिये। ठंडे थूहरमें सेंधानमक भरकर आगमें जला ले। फिर यथोचित मात्रामें उदरशूलवालेको गरम जलके साथ दे। अथवा सेंधानमक, हींग, पीपल, हरें इनका गरम जलके साथ सेवन करावे ॥ २८-३०॥

वरको वरोह, कमल और धानकी खीलका चूर्ण-इनको शहदमें भिगोकर, कपड़ेमें पोटली बनाकर, मुखमें रखकर उसे चूसे तो इससे प्यास दूर होती है। अथवा कुटकी, पीपल, मीठा कूट एवं धानका लावा मधुके साथ मिलाकर, पोटलीमें रखकर मुँहमें रखे और चूसे तो प्यास दूर हो जाती है। पाठा, दारुहल्दी, चमेलीके पत्र, मुनक्काकी जड़ और त्रिफला - इनका क्वाथ बनाकर उसमें शहद मिला दे। इसको मुखमें धारण करनेसे मुखपाक रोग नष्ट होता है। पीपल, अतीस, कुटकी, इन्द्रयव, देवदारु, पाठा और नागरमोथा- इनका गोमूत्रमें बना क्वाथ मधुके साथ लेनेपर सब प्रकारके कण्ठरोगोंका नाश होता है। हरें, गोखरू, जवासा, अमलतास एवं पाषाण-भेद-इनके क्वाथमें शहद मिलाकर पीनेसे मूत्रकृच्छ्रका कष्ट दूर होता है। बाँसका छिल्का और वरुणकी छालका क्वाथ शर्करा और अश्मरी-रोगका विनाश करता है। श्लीपद-रोगसे युक्त मनुष्य शाखोटक (सिंहोर) को छालका क्वाथ मधु और दुग्धके साथ पान करे। उड़द, मदारको पत्ती तथा दूध, तैल, मोम एवं सैंधव लवण-इनका योग पादरोगनाशक है। सोंठ, काला नमक और हींग इनका चूर्ण या सोंठके रसके साथ सिद्ध किया घी अथवा इनका क्वाथ पीनेसे मलबन्ध दोष और तत्सम्बन्धी रोग नष्ट होते हैं। गुल्मरोगी सर्जक्षार, चित्रक, हींग और अजमोद इनके रसके साथ या विडंग एवं चित्रकके साथ तक्रपान करे। आँवला, परवल और मूंग इनके क्वाथका घृतके साथ सेवन विसर्परोगका अपहरण करनेवाला है। अथवा सोंठ, देवदारु और पुनर्नवा या बंशलोचन- इनका दुग्धयुक्त क्वाथ उपकारक है। गोमूत्रके साथ सोंठ, मिर्च, पीपल, लोहचूर, यवक्षार तथा त्रिफलाका क्वाथ शोथ (सूजन) को शान्त करता है। गुड़, सहिजन एवं निशोथ, सैंधव  लवण-इनका चूर्ण (या क्वाथ) भी शोथको शान्त करता है ॥ ३१-४० ॥

निशोथ एवं गुड़के साथ त्रिफलाका क्वाथ विरेचन करनेवाला है। वच और मैनफलके क्वाथका जल वमनकारक होता है। भृङ्गराजके रसमें भावित त्रिफला सौ पल, बायविडंग और लोहचूर दस भाग एवं शतावरी, गिलोय और चिचक पचीस पल ग्रहण करके उसका चूर्ण बना ले। उस चूर्णको मधु, घृत और तेलके साथ चाटनेसे मनुष्य वली और पलितसे रहित होता है। अर्थात् उसके मुँहपर झुर्रियाँ नहीं होतीं और बाल नहीं पकते। इसके सिवा वह सम्पूर्ण रोगोंसे मुक्त होकर सौ वर्षोंतक जीवित रहता है। मधु और शर्कराके साथ त्रिफलाका सेवन सर्वरोगनाशक है। त्रिफला और पीपलका मिश्री, मधु और घृतके साथ भक्षण करनेपर भी पूर्वोक्त सभी फल या लाभ प्राप्त होते हैं। हर्रे, चित्रक, सोंठ, गिलोय और मुसलीका चूर्ण गुड़के साथ खानेपर रोगोंका नाश होता है और तीन सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त होती है। जपा-पुष्पको थोड़ा मसलकर जलमें मिला ले। उस चूर्णजलको थोड़ी-सी मात्रामें तेलमें मिला देनेपर तैल घृताकार हो जाता है। जलगोह (बिल्ली) की जरायु (गर्भकी झिल्ली) की धूप देनेसे चित्र दिखलायी नहीं देता। फिर शहदकी धूप देनेसे पूर्ववत् दिखायी देने लगता है। पाड़रकी जड़, कपूर, जॉक और मेढकका तेल-इनको पीसकर दोनों पैरोंमें लगाकर मनुष्य जलते हुए अङ्गारोंपर चल सकता है। तृणोत्थापन (तृणोंको आगमें ऊपर फेंकता- उछालता हुआ) आश्चर्यजनक खेल दिखलाता हुआ चल सकता है। विषोंका रोकना (अथवा विष एवं ग्रह-निवारण), रोगका नाश एवं तुच्छ क्रीड़ाएँ कामनापरक हैं। इहलौकिक तथा पारलौकिक दोनों सिद्धियोंके देनेवाले कर्मोंको मैंने तुम्हें बतलाया है, जो छः कर्मोंसे युक्त हैं। मन्त्र, ध्यान, औषध, कथा, मुद्रा और यज्ञ- ये छः जहाँ मुष्टि (भुजाके रूपसे सहायक) हैं, वह कार्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षरूप चतुर्वर्ग फलको देनेवाला कर्म बताया गया। इसे जो पढ़ेगा वह स्वर्गमें जायगा ॥ ४१-५१ ॥ 
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'नानारोगहारी ओषधियोंका वर्णन' नामक दो सौ तिरासौवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८३॥

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