अग्नि पुराण दो सौ अड़सठवाँ अध्याय ! Agni Purana 268 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ अड़सठवाँ अध्याय ! Agni Purana 268 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ अड़सठवाँ अध्याय - नीराजना विधिः

पुष्कर उवाच

कर्म्म सांवत्सरं राज्ञां जन्मर्क्षे पूजयेच्च तं ।
मासि मासि च संक्रान्तौ सूर्य्यसोमादिदेवताः ।। १ ।।

अगस्त्यस्योदयेऽगस्त्यञ्चातुर्म्मास्यं हरिं यजेत् ।
शयनोत्थापने पञ्चदिनं कुर्य्यात्समुत्सवम् ।। २ ।।

प्रोष्ठपादे सिते पक्षे प्रतिपत्प्रभृतिक्रमात् ।
शिबिरात् पूर्वदिग्भागे शक्रार्थं भवनञ्चरेत् ।। ३ ।।

तत्र शक्रध्वजं स्थाप्य शचीं शक्रञ्च पूजयेत् ।
अष्टम्यां वाद्यघोषेण तान्तु यष्टिं प्रवेशयेत् ।। ४ ।।

एकादश्यां सोपवासो द्वादश्यां केतुमुत्थितम् ।
यजेद्वस्त्रादिसंवीतं घटस्थं सुरपं शचीं ।। ५ ।।

वर्द्धस्वेन्द्र जितामित्र वृत्रहन् पाकशासन ।
देव देव महाभाग त्वं हि भूमिष्ठतां गतः ।। ६ ।।

त्वं प्रभुः शाश्वतश्चैव सर्व्वभूतहिते रतः ।
अनन्ततेजा वै राजो यशोजयविवर्द्धनः ।। ७ ।।

तेजस्ते वर्द्धयन्त्वेते देवाः शक्रः सुवृष्टिकृत् ।
ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च कार्त्तिकेयो विनायकः ।। ८ ।।

आदित्या वसवो रुद्राः साध्याश्च भृगवो दिशः ।
मरुद्गणा लोकपाला ग्रहा यक्षादिनिम्नगाः ।। ९ ।।

समुद्रा श्रीर्मही गौरी चण्डिका च सरस्वती ।
प्रवर्त्तयन्तु ते तेजो जय शक्र शचीपते ।। १० ।।

तव चापि जयान्नित्यं मम सम्पद्यतां शुभं ।
प्रसीद राज्ञां विप्राणां प्रजानामपि सर्वशः ।। ११ ।।

भवत्प्रसादात् पृथिवी नित्यं शस्यवती भवेत् ।
शिवं भवतु निर्व्विघ्नं शाम्यन्तामीतयो भृशं ।। १२ ।।

मन्त्रेणेन्द्रं समभ्यर्च्च्य जितभूः स्वर्गमाप्नुयात् ।
भद्रकालीं पटे लिख्य पूजयेदाश्विने जये ।। १३ ।।

शुक्लपक्षे तथाष्टम्यामायुधं कार्म्मुकं ध्वजम् ।
छत्रञ्च राजलिङ्गानि शस्त्राद्यं कुसुमादिभिः ।। १४ ।।

जाग्रन्निशि बलिन्दद्याद् द्वितीयेऽह्नि पुनर्यजेत् ।
भद्रकालि महाकालि दुर्गे दुर्गार्त्तिहारिणि ।। १५ ।।

त्रैलोक्यविजये चण्डि मम शान्तौ जये भव ।
नीराजनविधिं वक्ष्ये ऐशान्याम्मन्दिरं चरेत् ।। १६ ।।

तोरणत्रितयं तत्र गृहे देवान् यजेत् सदा ।
चित्रान्त्यक्त्वा यदा स्वातिं सविता प्रतिपद्यते ।। १७ ।।

ततः प्रभृति कर्त्तव्यं यावत् स्वातौ रविः स्थितः ।
ब्रह्मा विष्णुश्च शम्भुश्च शक्रश्चैवानलानिलौ ।। १८ ।।

विनायकः कुमारश्च वरुणो धनदो यमः ।
विश्वे देवा वैश्रवसो गजाश्चाष्टौ च तान् यजेत् ।। १९ ।।

कुमुदैरावणौ पद्मः पुष्पदन्तश्च वामनः ।
सुप्रतीकोऽञ्चनो नीलः पूजा कार्य्या गृहादिके ।। २० ।।

पुरोधा जुहुयादाज्यं समित्सिद्धार्थकं तिलाः ।
कुम्बा अष्टौ पूजिताश्च तैः स्नाप्याश्वगजोत्तमाः ।। २१ ।।

अश्वाः स्नाप्या ददेत् पिण्डान् ततो हि प्रथमं गजान् ।
निष्क्रामयेत्तोरणैस्तु गोपुरादि न लङ्घयेत् ।। २२ ।।

विक्रमेयुस्ततः सर्वे राजलिङ्गं गृहे यजेत् ।
वारुणे वरुणं प्रार्च्य रात्रौ भूतबलिं ददेत् ।। २३ ।।

विशाखायां गते सूर्य्ये आश्रमे निवसेन्नृपः ।
अलङ्कुर्य्याद्दिने नस्मिन् वाहनन्तु विशेषतः ।। २४ ।।

पूजिता राजलिङ्गाश्च कर्त्तव्या नरहस्तगाः ।
हस्तिनन्तुरगं छत्रं खड्गं चापञ्च दुन्दुभिम् ।। २५ ।।

ध्वजं पताकां धर्म्मज्ञ कालज्ञस्त्वभिभन्त्रयेत् ।
अमिमन्त्रय ततः सर्व्वन् कुर्य्यात् कुञ्जरघूर्गतान् ।। २६ ।।

कुञ्जरोपरिगौ स्यातां सांवत्सरपुरोहितौ ।
मन्त्रितांश्च समारुह्य तोरणेन विनिर्गमेत् ।। २७ ।।

निष्क्रम्य नागमारुह्य तोरणेनाथ निर्गमेत् ।
बलिं विभज्य विधिवद्राजा कुञ्जरधूर्गतः ।। २८ ।।

उन्मूकानान्तु निचयमादीपितदिगन्तरं ।
राजा प्रदक्षइणं कुय्यात्त्रीन् वारान् सुसमाहितः ।। २९ ।।

चतुरङ्गबलोपेतः सर्वसैन्येन नादयन् ।
एवं कृत्वा गृहं गच्छेद्विसर्जितजलाञ्जलिः ।। ३० ।।

शान्तिर्न्नीराजनाख्येयं वृद्धये रिपुमर्द्दनी ।

इत्यादि महा पुराणे आग्नेये नीराजनाविधिर्नामाष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ अड़सठवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 268 Chapter In Hindi

दो सौ अड़सठवाँ अध्याय - सांवत्सर-कर्म; इन्द्र-शचीकी पूजा एवं प्रार्थना; राजा के द्वारा भद्रकाली तथा अन्यान्य देवताओं के पूजन की विधि; वाहन आदि का पूजन तथा नीराजना

पुष्कर कहते हैं- अब मैं राजाओंक करने योग्य सांवत्सर-कर्म का वर्णन करता हूँ। राजा को अपने जन्मनक्षत्र में नक्षत्र देवताका पूजन करना चाहिये। वह प्रत्येक मास में, संक्रान्ति के समय सूर्य और चन्द्रमा आदि देवताओं की अर्चना करे। अगस्त्य- ताराका उदय होनेपर अगस्त्यकी एवं चातुर्मास्यमें श्रीहरिका यजन करे। श्री हरि के शयन और उत्थापनकाल में, अर्थात् हरिशयनी एकादशी और हरिप्रबोधिनी एकादशी के अवसरपर, पाँच दिनतक उत्सव करे। भाद्रपदके शुक्ल पक्ष में, प्रतिपदा तिथि को शिबिर के पूर्वदिग्भाग में इन्द्र पूजा के लिये भवन निर्माण करावे। उस भवनमें इन्द्रध्वज (पताका) की स्थापना करके वहाँ प्रतिपदा से लेकर अष्टमीतक शची और इन्द्रकी पूजा करे। अष्टमीको वाद्य घोषके साथ उस पताका में ध्वजदण्ड का प्रवेश करावे। फिर एकादशी को उपवास रखकर द्वादशीको ध्वजका उत्तोलन करे। फिर एक कलशपर वस्वादि से युक्त देवराज इन्द्र एवं शचीकी स्थापना कर के उनका पूजन करे ॥ १-५॥

(इन्द्रदेवकी इस प्रकार प्रार्थना करे)

'शत्रुविजयी वृत्रनाशन पाकशासन! महाभाग देवदेव! आपका अभ्युदय हो। आप कृपापूर्वक इस भूतलपर पधारे हैं। आप सनातन प्रभु, सम्पूर्ण भूतोंके हितमें तत्पर रहनेवाले, अनन्त तेजसे सम्पन्न, विराट् पुरुष तथा यश एवं विजयकी वृद्धि करनेवाले हैं। आप उत्तम वृष्टि करनेवाले इन्द्र हैं, समस्त देवता आपका तेज बढ़ायें। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कार्तिकेय, विनायक, आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण, साध्यगण, भृगुकुलोत्पन्न महर्षि, दिशाएँ, मरुद्गण, लोकपाल, ग्रह, यक्ष, पर्वत, नदियाँ, समुद्र, श्रीदेवी, भूदेवी, गौरी, चण्डिका एवं सरस्वती ये सभी आपके तेजको प्रदीप्त करें। शचीपते इन्द्र ! आपकी जय हो। आपकी विजयसे मेरा भी सदा शुभ हो। आप नरेशों, ब्राह्मणों एवं सम्पूर्ण प्रजाओंपर प्रसन्न होइये। आपके कृपाप्रसादसे यह पृथ्वी सदा सस्यसम्पन्न हो। सबका विघ्नरहित कल्याण हो तथा ईतियाँ पूर्णतया शान्त हों।' इस अभिप्रायवाले मन्त्रसे इन्द्रकी अर्चना कर नेवाला भूपाल पृथ्वी पर विजय प्राप्त करके स्वर्गको प्राप्त होता है॥ ६-१२॥

आश्विन मासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथि को किसी पटपर भद्रकालीका चित्र अङ्कित करके राजा विजयकी प्राप्तिके लिये उसकी पूजा करे। साथ ही आयुध, धनुष, ध्वज, छत्र, राजचिह्न (मुकुट, छत्र तथा चैवर आदि) तथा अस्त्र-शस्त्र आदिकी पुष्प आदि उपचारोंसे पूजा करे। रात्रिके समय जागरण करके देवीको बलि अर्पित करे। दूसरे दिन पुनः पूजन करे। (पूजा के अन्त में इस प्रकार प्रार्थना करे) 'भद्रकालि, महाकालि, दुर्ग तिहारिणि दुर्गे, त्रैलोक्यविजयिनि चण्डिके! मुझे सदा शान्ति और विजय प्रदान कीजिये ' ॥ १३-१५ ॥ 

अब मैं 'नीराजन 'की विधि कहता हूँ। ईशानकोणमें देवमन्दिरका निर्माण करावे। वहाँ तीन दरवाजे लगाकर मन्दिरके गर्भगृहमें सदा देवताओंकी पूजा करे। जब सूर्य चित्रा नक्षत्र को छोड़कर स्वाती नक्षत्र में प्रवेश करते हैं, उस समयसे प्रारम्भ करके जबतक स्वातीपर सूर्य स्थित रहें, तबतक देवपूजन करना चाहिये। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, अग्नि, वायु, विनायक, कार्तिकेय, वरुण, विश्रवाके पुत्र कुबेर, यम, विश्वे देव एवं कुमुद, ऐरावत, पद्म, पुष्पदन्त, वामन, सुप्रतीक, अञ्जन और नील-इन आठ दिग्गजों की गृह आदिमें पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर पुरोहित घृत, समिधा, श्वेत सर्षप एवं तिलोंका होम करे। आठ कलशों की पूजा करके उनके जलसे उत्तम हाथियोंको स्रान कराये। तदनन्तर घोड़ोंको स्नान कराये और उन सबके लिये ग्रास दे। पहले हाथियोंको तोरणद्वारसे बाहर निकाले; परंतु गोपुर आदिका उल्लङ्घन न करावे। तदनन्तर सब लोग वहाँ से निकलें और राजचिह्नों की पूजा घर में ही की जाय। शतभिषा नक्षत्रमें वरुणका पूजन करके रात्रिके समय भूतोंको बलि दे। जब सूर्य विशाखा नक्षत्रपर जाय, उस समय राजा आश्रममें निवास करे। उस दिन वाहनोंको विशेष रूप से अलंकृत करना चाहिये। राजचिह्नोंकी पूजा करके उन्हें उनके अधिकृत पुरुषोंके हाथोंमें दे। धर्मज्ञ परशुराम! फिर कालज्ञ ज्यौतिषी हाथी, अश्व, छत्र, खड्ग, धनुष, दुन्दुभि, ध्वजा एवं पताका आदि राजचिह्नों को अभिमन्त्रित करे। फिर उन सबको अभिमन्त्रित करके हाथीकी पीठपर रखे। ज्योतिषी और पुरोहित भी हाथीपर आरूढ़ हों। इस प्रकार अभिमन्त्रित वाहनोंपर आरूढ़ होकर तोरण-द्वारसे निष्क्रमण करें। इस प्रकार राजद्वारसे बाहर निकलकर राजा हाथीकी पीठपर स्थित रहकर विधिपूर्वक बलि-वितरण करे। फिर नरेश सुस्थिरचित्त होकर चतुरङ्गिणी सेनाके साथ सर्वसैन्यसमूहके द्वारा जयघोष कराते हुए दिग्दिगन्तको प्रकाशित करनेवाले जलते मसालोंके समूहकी तीन बार परिक्रमा करे। इस प्रकार पूजन करके राजा जनसाधारणको विदा करके राजभवनको प्रस्थान करे। मैंने यह समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाली 'नीराजना' नामक शान्ति बतलायी है, जो राजाको अभ्युदय प्रदान करनेवाली है ॥ १६-३१ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेप महापुराणमें 'नीराजनाविधिका वर्णन' नामकदो सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६८ ॥

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