अग्नि पुराण दो सौ बयासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 282 Chapter !
अग्नि पुराण 282 अध्याय - वृक्षायुर्वेदः
धन्वन्तरिरुवाच
वृक्षायुर्वेदमाख्यास्ये प्लक्षश्चोत्तरतः शुभः ।
प्राग्वटो याम्यतस्त्वाम्र आप्येऽश्वत्थः क्रमेण तु ॥१
दक्षिणां दिशमुत्पन्नाः समीपे कण्टकद्रुमाः ।
उद्यानं गृहवासे स्यात्तिलान् वाप्यथ पुष्पितान् ॥२
गृह्णीयाद्रोपयेद्वृक्षान् द्विजञ्चन्द्रं प्रपूज्य च ।
ध्रुवाणि पञ्च वायव्यं हस्तं प्राजेशवैष्णवं ॥३
नक्षत्राणि तथा मूलं शस्यन्ते द्रुमरोपणे ।
प्रवेशयेन्नदीवाहान् पुष्करिण्यान्तु कारयेत् ॥४
हस्ता मघा तथा मैत्रमाद्यं पुष्यं सवासवं ।
जलाशयसमारम्भे वारुणञ्चोत्तरात्रयम् ॥५
संपूज्य वरुणं विष्णुं पर्जन्यं तत्समाचरेत् ।
अरिष्टाशोकपुन्नागशिरीषाः सप्रियङ्गवः ॥६
अशोकः कदली जम्बुस्तथा वकुलदाडिमाः ।
सायं प्रातस्तु घर्मर्तौ शीतकाले दिनान्तरे ॥७
वर्षारत्रौ भुवः शोषे सेक्तव्या रोपिता द्रुमाः ।
उत्तमं विंशतिर्हस्ता मध्यमं षोडशान्तरम् ॥८
स्थानात्स्थानान्तरं कार्यं वृक्षाणां द्वादशावरं ।
विफलाः स्युर्घना वृक्षाः शस्त्रेणादौ हि शोधनम् ॥९
विडङ्गघृतपङ्काक्तान् सेचयेच्छीतवारिणा ।
फलनाशे कुलथैश्च मासैर्मुद्गैर्यवैस्तिलैः ॥१०
घृतशीतपयःसेकः फलपुष्पाय सर्वदा ।
आविकाजशकृच्चूर्णं यवचूर्णं तिलानि च ॥११
गोमांसमुदकञ्चैव सप्तरात्रं निधापयेत् ।
उत्सेकः सर्ववृक्षाणां फलपुष्पादिवृद्धिदः ॥१२
मत्स्याम्भसा तु सेकेन वृद्धिर्भवति शाखिनः ।
विडङ्गतण्डुलोपेतं मत्स्यं मांसं हि दोहदं ।१३
सर्वेषामविशेषेण वृक्षाणां रोगमर्दनम् ॥ १४॥
इत्याग्नेये महापुराणे वृक्षायुर्वेदो नामैकाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - दो सौ बयासीवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 282 Chapter!-In Hindi
दो सौ बयासीवाँ अध्याय आयुर्वेदोक्त वृक्ष-विज्ञान
धन्वन्तरि कहते हैं- सुश्रुत! अब मैं वृक्षायुर्वेदका वर्णन करूँगा। क्रमशः गृहके उत्तर दिशामें प्लक्ष (पाकड़), पूर्वमें वट (बरगद), दक्षिणमें आम्र और पश्चिममें अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष मङ्गल माना गया है। घरके समीप दक्षिण दिशामें उत्पन्न हुए काँटेदार वृक्ष भी शुभ हैं। आवास स्थानके आसपास उद्यानका निर्माण करे अथवा सब ओरका भाग पुष्पित तिलोंसे सुशोभित करे ॥ १-२॥
ब्राह्मण और चन्द्रमाका पूजन करके वृक्षोंका आरोपण करे। वृक्षारोपणके लिये तीनों उत्तरा, स्वाती, हस्त, रोहिणी, श्रवण और मूल- ये नक्षत्र अत्यन्त प्रशस्त हैं। उद्यानमें पुष्करिणी (बावली) का निर्माण करावे और उसमें नदीके प्रवाहका प्रवेश करावे। जलाशयारम्भके लिये हस्त, मघा, अनुराधा, पुष्य, ज्येष्ठा, शतभिषा उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपदा और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र उपयुक्त हैं॥ ३-५ ॥
वरुण, विष्णु और इन्द्रका पूजन करके इस कर्मको आरम्भ करे। नीम, अशोक, पुन्नाग (नागकेसर), शिरीष, प्रियङ्गु, अशोक', कदली (केला), जम्बू (जामुन), वकुल (मौलसिरी) और अनार वृक्षोंका आरोपण करके ग्रीष्म ऋतुमें प्रातःकाल और सायंकाल, शीत ऋतुमें दिनके समय एवं वर्षा ऋतुमें रात्रिके समय भूमिके सूख जानेपर वृक्षोंको सींचे। वृक्षोंके मध्यमें बीस हाथका अन्तर 'उत्तम', सोलह हाथका अन्तर 'मध्यम' और बारह हाथका अन्तर 'अधम' कहा गया है। बारह हाथ अन्तरवाले वृक्षोंको स्थानान्तरित कर देना चाहिये। घने वृक्ष फलहीन होते हैं। पहले उन्हें काट-छाँटकर शुद्ध करे ॥ ६-९॥
फिर विडङ्ग, घृत और पङ्क-मिश्रित शीतल जलसे उनको सींचे। वृक्षोंके फलोंका नाश होनेपर कुलथी, उड़द, मूग, जौ, तिल और घृतसे मिश्रित शीतल जलके द्वारा यदि सेचन किया जाय तो वृक्षोंमें सदा फलों एवं पुष्पोंकी वृद्धि होती है। भेड़ और बकरीकी विष्ठाका चूर्ण, जौका चूर्ण, तिल और जल- इनको एकत्र करके सात दिनतक एक स्थानपर रखे। उसके बाद इससे सींचना सभी वृक्षोंके फल और पुष्पोंको बढ़ानेवाला है ॥ १०-१२॥
मछलीके जल (जिसमें मछली रहती हों) से सोंचनेपर वृक्षोंकी वृद्धि होती है। विडंगचावलके साथ यह जल वृक्षों का दोहद (अभिलषित- पदार्थ) है। इसका सेचन साधारणतया सभी वृक्ष रोगोंका विनाश करनेवाला है ॥ १३-१४॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'वृक्षायुर्वेदका वर्णन' नामक दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८२॥
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