अग्नि पुराण दो सौ नवासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 289 Chapter !
अग्नि पुराण दो सौ नवासीवाँ अध्याय - अश्वचिकित्सा
शालिहोत्र उवाच
अश्वानां लक्षणं वक्ष्ये चिकित्साञ्चैव सुश्रुत् ।
हीनदन्तो विदन्तश्च कराली कृष्णतालुकः ।।१ ।।
कृष्णजिह्वश्च यमजो जातमुष्कश्च यस्तथा ।
द्विशफश्च तथा श्रृङ्गी त्रिवर्णो व्याघ्रवर्णकः ।।२ ।।
शरवर्णो भस्मवर्णो जातवर्णश्च काकुदी ।
श्वित्री च काकसादी च खरसारस्तथैव च ।।३ ।।
वानराक्षः कृष्णशटः कृष्णगुह्यस्तथैव च ।
कृष्णप्रोथश्च यश्च तित्तिरिसन्निभः ।।४ ।।
विषमः श्वेतपादश्च ध्रुवावर्त्तविवर्जितः ।
अशुभावर्त्तसंयुक्तो वर्जनीयस्तुरङ्गमः ।।५ ।।
रन्ध्रोपरन्ध्रयोर्द्वौ द्वौ द्वौ द्वौ मस्तकवक्षसोः ।
प्रयाणो च ललाटे च कण्ठावर्त्ताः शुभा दश ।।६ ।।
सृक्कण्याञ्च ललाटे च कर्णमूले निगालके ।
बाहुमूले गले श्रेष्ठा आवर्त्तास्त्वशुभाः परे ।।७ ।।
शुकेन्द्रगोपचन्द्राभा ये च वायससन्निभाः ।
सुवर्णवर्णाः स्निग्धाश्च प्रशस्यास्तु सदैव हि ।।८ ।।
दीर्घग्रीवाक्षिकूटाश्च ह्रस्वकर्णाश्च शोभनाः ।
राज्ञान्तुरङ्गमा यत्र विजयं वर्जयेत्ततः ।।९ ।।
पालितस्तु हयो दन्तो शुभदो दुःखदोऽन्यथा ।
क्षियः पुत्रास्तु गन्धर्व्वा वाजिनो रत्नमुत्तमम् ।।१० ।।
अश्वमेधे तु तुरगः पवित्रत्वात्तु हूयते ।
वृषो निम्बवृहत्यौ च गुडूची च समाक्षिका ।।११ ।।
सिंहा गन्धकरी पिण्डी स्वेदश्च शिरसस्तथा ।
हिङ्गु पुष्करमूलञ्च नागरं साम्लवेतसं ।।१२ ।।
पिप्पलीसैन्धवयुतं शूलघ्नं चोष्णवारिणा ।
नागरातिविषा मुस्ता सानन्ता विल्वमालिका ।।१३ ।।
क्काथमेषां पिवेद्वाजी सर्व्वातीसारनाशनम् ।
प्रियङ्गुसारिवाभ्याञ्च युक्तमाजं श्रृतं पयः ।।१४ ।।
पर्य्याप्तशर्करं पीत्वा श्रमाद्वाजी विमुच्यते ।
द्रोणिकायान्तु दातव्या तैलवस्तिस्तुरङ्गमे ।।१५ ।।
कोष्ठजा च शिरा वेध्या तेन तस्य सुखं भवेत् ।
दाड़िमं त्रिफला व्योषं गुड़ञ्च समभाविकम् ।।१६ ।।
पिण्डमेतत् प्रदातव्यमश्वानां काशनाशनम् ।
प्रियङ्गुलोध्रमधुभिः पिवेद्वृषरसं हयः ।।१७ ।।
क्षीरं वा पञ्चकोलाद्यं काशनाद्धि प्रमुच्यते ।
प्रस्कन्धेषु च सर्व्वेषु श्रेय आदौ विशोधनम् ।।१८ ।।
अभ्यङ्गोद्वर्त्तनैः स्नेहं नस्यवर्त्तिक्रमः स्मृतः ।
ज्वरितानां तुरङ्गाणां पयसैव क्रियाक्रमः ।।१९ ।।
लोध्रकन्धरयोर्मूलं मातुलाङ्गाग्निनागराः ।
कुष्ठहिङ्गुवचारास्नालेपोयं शोथनाशनः ।।२० ।।
मञ्जिष्ठा मधुकं द्राक्षावृहत्यौ रक्तचन्दनम् ।
त्रपुषीवीजमूलानि श्रृङ्गाटककशेरुकम् ।।२१ ।।
अजापयः श्रृतमिदं सुशीतं शर्करान्वितं ।
पीत्वा नीरशनो वाजी रक्तमेहात् प्रमुच्यते ।।२२ ।।
मन्याहनुनिगालस्थशिराशोथो गलग्रहः ।
अभ्यङ्गः कटुतैलेन तत्र तेष्वेव शस्यते ।।२३ ।।
गलग्रहगदी शोथः प्रायशो गलदेशके ।
प्रत्यक्पुष्पी तथा वह्निः सैन्धवं सौरसो रसः ।।२४ ।।
कृष्णाहिङ्गुयुतैरेभिः कृत्वा नस्यं न सीदति ।
निशे ज्योतिष्मती पाठा कृष्णा कुष्ठं वचा मधु ।।२५ ।।
जिह्वास्तम्भे च लोपोऽयं गुड़मूत्रयुतो हितः ।
तिलैर्यष्ट्या रजन्या च निम्बपत्रैश्च योजिता ।।२६ ।।
क्षौद्रेण शोधनी पिण्डी सर्पिषा व्रणरोपणी ।
अभिघातेन खञ्जन्ति ये ह्यश्वास्तीव्रवेदनाः ।।२७ ।।
परिषेकक्रिया तेषां तैलेनाशु रुजापहा ।
दोषकोपाभिघाताभ्यां पक्कभिन्ने ब्रणक्रमः ।।२८ ।।
अश्वत्थोडुम्बरप्लक्षमधूकवटकल्कनैः ।।२९ ।।
प्रभूतसलिलः क्काथः सुखोष्णो व्रणशोधनः ।
शताह्वा नागरं रास्ना मञ्जिष्ठाकुष्ठसैन्धवैः ।।३० ।।
देवदारुवचायुग्मरजनीरक्तवन्दनैः ।
तैलसिद्धं कषायेण गुडूच्याः पयसा सह ।।३१ ।।
म्रक्षणे वस्तिनश्ये च योज्यं सर्वत्र लिङ्गिने ।
रक्तस्रावो जलौकाभिर्न्नेत्रान्ते नेत्ररोगिणः ।।३२ ।।
खादिरोडुम्बराश्वत्थकषायेण च साधनम् ।
थात्रीदुरालभातिक्ताप्रियङ्गुकुङ्कुमैः ।।३३ ।।
गुडूच्या च कृतः कल्को हितो युक्तावलम्बिने ।
उत्पाते च शिले श्राव्ये शुष्कशेफे तथैव च ।।३४ ।।
क्षिप्रकारिणि दोषे च सद्यो विदलमिष्यते ।
गोशकृन्मञ्जिकाकुष्ठरजनीतिलसर्षपैः ।।३५ ।।
गवां मूत्रेण पिष्टैश्च मर्द्दनं कण्डुनाशनम् ।
शीतो मधुयुतः क्काथो नाशिकायां सशर्करः ।।३६ ।।
रक्तपित्तहरः पानादश्वकर्णैस्तथैव च ।
सप्तमे सप्तमे देयमश्वानां लवणं दिने ।।३७ ।।
तथा भुक्तवतान्देया अतिपाने तु वारुणी ।
दीवनीयैः समधुरैर्मृद्वीकाशर्करायुतैः ।।३८ ।।
सपिप्पलीकैः शरदि प्रतिपानं सपद्मकैः ।
विड़ङ्गापिप्पलीधान्यशताह्वालोध्रसैनधवैः ।।३९ ।।
सचित्रकैस्तुरङ्गाणं प्रतिपानं हिमागमे ।
लोध्रपिरियङ्गुकामुस्तापिप्पलीविश्वभेषजै ।।४० ।।
सक्षौद्रैः प्रतिपानं स्याद्वसन्ते कफनाशनम् ।
प्रियङ्गुपिप्पलीलोध्रयष्ट्याक्षैः समहौषधैः ।।४१ ।।
निदाघे सगुड़ा देया मदिरा प्रतिपानके ।
लोध्रकाष्ठं सलवणं पिप्पल्यो विश्वभेषजम् ।।४२ ।।
प्रावृड्भिन्नपुरीषाश्च पिवेयुर्वाजिनो घृतम् ।
पिवेयुर्वाजिनस्तैलं कफवाय्वधिकास्तु ये ।।४३ ।।
प्रावृड्भिन्नपुरीषाश्च पिवेयुर्वाजिनो घृतम् ।
पिवेयुर्वाजिनस्तैलं कफवाय्वधिकास्तु ये ।।४४ ।।
स्रेहव्यापद्भ्वो येषां कार्य्यं तेषां विरूक्षणम् ।
त्र्यहं यवागू रूक्षा स्याद् भोजनं तक्रसंयुतम् ।।४५ ।।
शरन्निदाघ्योः सर्पिस्तैलं शीतवसन्तयोः ।
वर्षासु शिशिरे चैव वस्तौ यमकमिष्यते ।।४६ ।।
गुर्वभिष्यन्दिभक्तानि व्यायामं स्नानमातपम् ।
वायुवर्जञ्च वाहस्य स्नेहपीतस्य वर्जितम् ।।४७ ।।
स्नानं पानं शकृत्क्रूष्ठमश्वानां सलिलागमे ।
अत्यर्थं दुर्द्दिने काले पानमेकं प्रशस्यते ।।४८ ।।
युक्तशीतातपे काले द्विःपानं स्नपनं सकृत् ।
ग्रीष्मे त्रिस्नानपानं स्याच्चिरं तस्यावगाहनम् ।।४९ ।।
निस्तुषाणां प्रदातव्या यवानां चतुराढकी ।
चणकव्रीहिमौद्गानि कलायं वापि दापयेत् ।।५० ।।
अहोरात्रेण चार्द्धस्य यवसस्य तुला दश ।
अष्टौ शुष्कस्य दातव्याश्चतस्रोऽथ वुषस्य वा ।।५१ ।।
दूर्वा पित्तं यवः कासं वुषश्च श्लेष्मसञ्चयम् ।
नाशयत्यर्जुनः श्वासं तथा मानो बलक्षयम् ।।५२ ।।
वातिकाः पैत्तिकाश्चैव श्लेष्मजाः सान्निपातिकाः ।
न रोगाः पीडयिष्यन्ति दूर्वाहारन्तुरङ्गमम् ।।५३ ।।
द्वौ रज्जुबन्धौ दुष्टानां पक्षयोरुभयोरपि ।
पश्चाद्धनुस्च कर्त्तर्व्यो दूरकीलव्यपाश्रयः ।।५४ ।।
वासेयुस्त्वास्तृते स्थाने कृतधूपनभूमयः ।
यत्नोपन्यस्तयवसाः सप्रदीपाः सुरक्षिता ।।५५ ।।
कृकवाक्कजकपयो धार्य्याश्चाश्वगृहे मृगाः ।।५६ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अश्वायुर्वेदो नामोननवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - दो सौ नवासीवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 289 Chapter!-In Hindi
दो सौ नवासीवाँ अध्याय अश्व-चिकित्सा
शालिहोत्र कहते हैं- सुश्रुत अब मैं अश्वोंके लक्षण एवं चिकित्साका वर्णन करता हूँ। जो अश्व हीनदन्त, विषमदन्तयुक्त या बिना दाँतका, कराली (दोसे अधिक दन्तपङ्क्तियोंसे युक्त, कृष्णतालु, कृष्णवर्णको जिह्वासे युक्त, युग्मज (जुड़वाँ पैदा), जन्मसे ही बिना अण्डकोषका, दो खुरोंवाला, शृङ्गयुक्त, तीन रङ्गोंवाला, व्याघ्रवर्ण, गर्दभवर्ण, भस्मवर्ण, सुवर्ण या अग्निवर्ण, ऊँचे ककुदवाला, श्वेतकुष्ठग्रस्त, कौवे जिसपर आक्रमण करते हों, जो खरसार अथवा वानरके समान नेत्रोंवाला हो या जिसके अयाल, गुह्याङ्ग तथा नथुने कृष्णवर्णक हों, यवके दूँड़के समान कठोर केश हों, जो तीतरके समान रंगवाला हो, विषमाङ्ग हो, श्वेत चरणवाला हो तथा जो ध्रुव (स्थिर) आवर्तोंसे रहित हो तथा अशुभ आवर्तोंसे युक्त हो, ऐसे अश्वका परित्याग करना चाहिये ॥ १-५॥
नाक तथा नाकके पास (ऊपर) दो-दो, मस्तक एवं वक्षःस्थलमें दो-दो तथा प्रयाण (पीठ और पिछले भाग), ललाट और कण्ठदेशमें (भी दो-दो)- इस प्रकार अश्वोंके दस आवर्त (भँवरी-चिह्न) शुभ माने गये हैं। ओष्ठ-प्रान्तमें, ललाटमें, कानके मूलमें, निगालक (गर्दन) में, अगले पैरंरॉके ऊपर मूलमें तथा गलेमें स्थित आवर्त श्रेष्ठ कहे जाते हैं। शेष अङ्गकि आवर्त अशुभ होते हैं। शुक, इन्द्रगोप (बीरवधूटी), एवं चन्द्रमाके समान कान्तिसे युक्त, काकवर्ण, सुवर्णवर्ण तथा चिकने घोड़े सदैव प्रशस्त माने जाते हैं। जिन राजाओंके पास लंबी ग्रीवावाले, भीतरकी ओर धँसी आँखवाले, छोटे कानवाले, किंतु देखनेमें मनोहर घोड़े हों, वहाँ विजयकी अभिलाषा छोड़ दे। घोड़े-हाथी यदि पाले जायें तो शुभप्रद होते हैं; परंतु यदि उचित पालन न हो तो दुःखप्रद होते हैं। घोड़े लक्ष्मीके पुत्र, गन्धर्वरूपमें पृथ्वीके उत्तम रत्न हैं। अश्वमेधमें पवित्र होनेके कारण ही अश्वका उपयोग किया जाता है॥ ६-१०॥
मधुके साथ अडूसा, नीमको छाल, बड़ी कटेरी और गिलोय इनकी पिण्डी तथा सिरका स्वेद-ये नासिकामलको नाश करनेवाले हैं। हींग, पीकरमूल, सोंठ, अम्लवेत, पीपल तथा सैन्धवलवण- ये गरम जलके साथ देनेपर शूलका नाश करते हैं। सोंठ, अतीस, मोथा, अनन्तमूल या दूब और बेल-इनका काथ घोड़ेको पिलाया जाय तो वह उसके सभी प्रकारके अतिसारको नष्ट करता है। प्रियङ्गु, कालीसर तथा पर्याप्त शर्करासे युक्त बकरीका गरम किया हुआ दूध पी लेनेपर घोड़ेकी थकावट दूर हो जाती है। अश्वको द्रोणीमें तैलबस्ति देनी चाहिये अथवा कोष्ठमें उत्पन्न शिराओंका वेधन करना चाहिये। इससे उसको सुख प्राप्त होता है॥ ११-१५॥
अनारको छाल, त्रिफला, त्रिकटु तथा गुड़- इनको सम मात्रामें ग्रहण करके इनका पिण्ड बनाकर घोड़ेको दे। यह अश्वोंकी कृशताको दूर करनेवाला है। घोड़ा प्रियङ्गु, लोध तथा मधुके साथ अडूसेके रस या पञ्चकोलादि (पीपल, पीपलामूल, चष्य, चीता तथा सोंठ) युक्त दुग्धका पान करे तो वह कासरोगसे मुक्त हो जाता है। प्रस्कन्ध (छलाँग आदि दौड़) से हुए सभी प्रकारके कष्टमें पहले शोधन श्रेयस्कर होता है। तदनन्तर अभ्यङ्ग, वद्वर्तन, स्नेहन, नस्य और वर्तिकाका प्रयोग श्रेष्ठ माना जाता है। ज्वरयुक्त अश्वोंकी दुग्धसे ही चिकित्सा करे। लोधमूल, करञ्जमूल, बिजौरा नीबू, चित्रक, सोंठ, कूट, वच एवं रात्रा-इनका लेप शोथ, (सूजन) का नाश करने वाला है। घोड़ेको निराहार रखकर मजीठ, मुलहठी, मुनक्का, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, लाल चन्दन, खरिके मूल और बीज, सिंहाड़ेके बीज और कसेरु-इनसे युक्त बकरीका दूध पकाकर अत्यन्त शीतल करके शक्करके साथ पिलानेसे वह घोड़ा रक्तप्रमेहसे छुटकारा पाता है॥ १६-२२॥
मन्या, ठुड्डी तथा ग्रीवाकी शिराओंके शोथ तथा गलग्रहरोगमें उन-उन स्थानोंपर कटुतैलका अभ्यङ्ग प्रशस्त है। गलग्रहरोग और शोथ प्रायः गलदेशमें ही होते हैं। चिरचिरा, चित्रक, सैन्धव तथा सुगन्ध घासका रस, पीपल और हींगके साथ इनका नस्य देनेसे अश्व कभी विषादयुक्त नहीं होता है। हल्दी, दारुहल्दी, मालकांगनी, पाठा, पीपल, कूट, बच तथा मधु-इनका गुड़ एवं गोमूत्रके साथ जिह्वापर लेप जिह्वास्तम्भमें हितकर है। तिल, मुलहठी, हल्दी और नीमके पत्तोंसे निर्मित पिण्डी मधुके साथ प्रयोग करनेपर व्रणका शोधन और घृतके साथ प्रयुक्त होनेपर घावको भरती है। जो घोड़े अधिक चोटके कारण तीव्र वेदनासे युक्त होकर लँगड़ाने लगते हैं, उनके लिये तैलसे परिषेक-क्रिया शीघ्र ही रोगनाश करनेवाली होती है। वात, पित्त, कफ दोषोंके द्वारा अथवा क्रोधके कारण चोट पा जानेसे पके, फूटे स्थानोंके व्रणके लिये यह क्रम है। पीपल, गूलर, पाकर, मुलहठी, बट और बेल-इनका अत्यधिक जलमें सिद्ध क्वाथ थोड़ा गरम हो तो वह व्रणका शोधन करनेवाला है। सौंफ, सोंठ, रात्रा, मजीठ, कूट, सैन्धव, देवदारु, वच, हल्दी, दारुहल्दी, रक्तचन्दन- इनका स्नेह क्वाथ करके गिलोयके जलके साथ या दूधके साथ उद्वर्तन, बस्ति अथवा नस्यरूपमें प्रयोग सभी लिङ्गित दोषोंमें करना चाहिये। नेत्ररोगयुक्त अश्वके नेत्रान्तमें जॉकद्वारा अभिस्रावण कराना चाहिये। खैर, गूलर और पीपलको छालके क्वाथसे नेत्रोंका शोधन होता है ॥ २३-३२ ॥
युक्तावलम्बी अश्वके लिये आँवला, जवासा, पाठा, प्रियङ्गु, कुङ्कुम और गिलोय इनका समभाग ग्रहण करके निर्मित किया हुआ कल्क हितकर है। कर्णसम्बन्धी दोषमें एवं उपद्रवमें, शिल (अनियमित वृत्ति) में, शुष्क शेपमें (लिङ्ग सूखनेकी दशामें) और शीघ्र (हानि) करनेवाले दोषमें तत्काल वेधन करना चाहिये। गायका गोबर, मजीठ, कूट, हल्दी, तिल और सरसों इनको गोमूत्रमें पीसकर मर्दन करनेसे खुजलीका नाश होता है। शालकी छालका क्वाथ शीतल हो जानेपर मधु और शर्करासहित नासिकामें डालनेसे एवं उसी प्रकार पिलानेसे घोड़ेका रक्तपित्त नष्ट होता है। घोड़ोंको सातवें सातवें दिन नमक देना चाहिये ॥ ३३-३७ ॥
अश्वोंके अधिक भोजन हो जानेपर वारुणी (मदिरा), शरद् ऋतुमें जीवनीयगण 'के द्रव्य (जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्द्मपर्णी (वनमूँग), माषपर्णी (वनठरद), जीवन्ती तथा मुलहठी), मधु, दाख, शक्कर, पिपली और पद्माखसहित प्रतिपानमें देना चाहिये। हेमन्त ऋतुमें अश्वोंको वायबिडंग, पीपल, धनियाँ, सौंफ, लोध, सैन्धवलवण और चित्रकसे समन्वित प्रतिपान देना चाहिये। वसन्त ऋतुमें लोध, प्रियङ्गु, मोथा, पीपल, सोंठ और मधुसे युक्त प्रतिपान कफनाशक माना गया है। ग्रीष्म ऋतुमें प्रतिपानके लिये प्रियङ्ग, पीपल, लोध, मुलहठी, सॉठ और गुड़के सहित मदिरा दे। वर्षा ऋतुमें अश्वोंके लिये प्रतिपान तैल, लोध, लवण, पीपल और सोंठसे समन्वित होना चाहिये। ग्रीष्म ऋतुमें बढ़े हुए पित्तके प्रकोपसे पीड़ित, शरत्कालमें रक्तघनत्वसे युक्त अश्वको एवं प्रावृट् (वर्षाके प्रारम्भ) में जिन घोड़ोंका गोबर फूट गया है, उन्हें घृत पिलाना चाहिये। कफ एवं वातकी अधिकता होनेपर अश्वोंको तैलपान कराना चाहिये। जिनके शरीरमें स्नेहतत्त्वके प्राबल्यसे कोई कष्ट उत्पन्न हो, उनका रुक्षण करना चाहिये। मट्ठाके साथ भोजन तथा तीन दिनतक यवागू पिलानेसे अश्वोंका रुक्षण होता है। अश्वोंके बस्तिकर्मके लिये शरद् ग्रीष्ममें घृत,हेमन्त वसन्तमें तैल तथा वर्षा एवं शिशिर ऋतुओंमें घृत-तैल दोनोंका प्रयोग करना चाहिये। जिन घोड़ोंको स्नेह (तैल घृतादि) पान कराया गया है, उनके लिये (गुरु-भारी) या अभिष्यन्दी (कफकारक) भोजन- भात आदि, व्यायाम, स्नान, धूप तथा वायुरहित स्थान वर्जित हैं। वर्षा ऋतुमें घोड़ेको दिनमें एक बार स्नान और पान कराये, किंतु घोर दुर्दिनके समय केवल पान ही प्रशस्त है। समशीतोष्ण ऋतुमें दो बार और एक बार स्नान विहित है। ग्रीष्म ऋतुमें तीन बार स्नान और प्रतिपान उचित होता है। पूर्णजलमें बहुत देरतक स्नान कराना चाहिये ॥ ३८-४९ ॥
घोड़ेको प्रतिदिन चार आढ़क भूसासे रहित जौ खिलावे। उसको चना, धान, मूंग या मटर भी खानेको दे। अश्वको (एक) दिन-रातमें पाँच सेर दूब खिलावे। सूखी दूब होनेपर आठ सेर अथवा भूसा हो तो चार सेर देना चाहिये। दूर्वा पित्तका, जौ कासका, भूसी कफाधिक्यका, अर्जुन श्वासका एवं मानकन्द बलक्षयका नाश करता है। दूर्वाभोजी अश्वको कफज, वातज, पित्तज और संनिपातज रोग पीड़ित नहीं कर सकते। दुष्ट घोड़ोंके आगे-पीछे दोनों ओर दो रज्जुबन्धन करने चाहिये। गर्दनमें भी बन्धन करना चाहिये। घोड़े आस्तरणयुक्त और धूपित स्थानमें बसाने चाहिये। जहाँ कि उपायपूर्वक घासें रखी हों। (वह अश्वशाला) प्रदीपसे आलोकित तथा सुरक्षित होनी चाहिये। घुड़सालमें मयूर, अज, वानर और मृगोंको रखना चाहिये ॥ ५०-५६ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'अश्व-चिकित्साका कथन' नामक दो सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८९ ॥
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