अग्नि पुराण दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 287 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 287 Chapter !

अग्नि पुराण 287 अध्याय - गज चिकित्सा

पालकाप्य उवाच

गजलक्षअम चिकित्साञ्च लोमपाद वदामि ते ।
दीर्घहस्ता महोच्छ्‌वासाः प्रशस्तास्ते सहिष्णवः ।। १ ।।

विंशत्यष्टादशनखाः शीतकालमदाश्च ये ।
दक्षिणञ्चोन्नतन्दन्तं वृंहितं जलदोपमं ।। २ ।।

कर्णौ च विपुलौ येषां सूक्ष्मविन्द्वन्वितत्वचौ ।
ते धार्य्या न तथा धार्य्या वामना ये च सङ्कुशाः ।। ३ ।।

हस्तिन्यः पार्श्वगर्भिण्यो ये च मूढा मतङ्गजाः ।
वर्णं सत्वं बलं रूपं कान्तिः संहननञ्जवः ।। ४ ।।

सप्तस्थितो गजश्वेदृक् सङ्‌ग्रामेरीञ्जयेत्स च ।
कुञ्जराः परमा शोभा शिविरस्य बलस्य च ।। ५ ।।

आयत्तं कुञ्जरैश्चैव विजयं पृथिवीक्षितां ।
पाकलेषु च सर्वेषु कर्त्तव्यमनुवासनं ।। ६ ।।

घृततैलपरीपाकं स्थानं वातविवर्जितं ।
स्कन्धेषु च क्रिया कार्य्या तथा पालकवन्नृपाः ।। ७ ।।

गोमूत्रं पाण्डुरोगेषु रजनीभ्यां घृतन्द्विज ।
आनाहे तैलसिक्तस्य निषेकस्तस्य शस्यते ।। ८ ।।

लवणैः पञ्चभिर्म्मिश्रा प्रतिपानाय वारुणी ।
विडङ्गत्रिफलाव्योषसैन्धवैः कवलान् कृतान् ।। ९ ।।

मृर्च्छासु भोजयेन्नागं क्षौद्रन्तोयञ्च पाययेत् ।
अब्यङ्ग शिरसः शुले नस्यञ्चैव प्रशस्यते ।। १० ।।

नागानां स्नेहपुटकः पादरोगानुपक्रमेत् ।
पश्चात् कल्ककषायेण शोधनञ्च विधीयते ।। ११ ।।

शिखितित्तिरिलावानां पिप्पलीमरिचान्वितैः ।
रसैः सम्भोज्येन्नागं वेपथुर्यस्य जायते ।। १२ ।।

बालविल्वं तथा लोध्रं धातकी सितया सह ।
अतीसारविनाशाय पिण्डीं भुञ्जीत कुञ्जरः ।। १३ ।।

नस्यं करग्रहे देयं घृतं लवणसंयुतम् ।
मागधीनागराजाजीयवागूर्मुस्तसाधिता ।। १४ ।।

उत्कर्णके तु दातव्या वारहञ्च तथा रसम् ।
दशमूलकुलत्थाम्लकाकमाचीविपाचितम् ।। १५ ।।

तैलमूषणसंयुक्तं गलग्रहगदापहम् ।
अष्टभिर्लवणैः पिष्टैः प्रसन्नाः पाययेद्घृतम् ।। १६ ।।

मूत्रभङ्गेऽथ वा वीजं क्कथितं त्रपूषस्य च ।
त्वग्दोषेषु पिवेन्निम्बं वृषं वा क्कथितं द्विपः ।। १७ ।।

गवां मूत्रं विड़ङ्गानि कृमिकोष्ठेषु शस्यते ।
श्रृङ्गवेरकणाद्राक्षाशर्कराभिः श्रृतं पयः ।। १८ ।।

क्षतक्षयकरं पानं तथा मांसरसः शुभः ।
मुद्‌गोदनं व्योषयुतमरुचौ तु प्रशस्यते ।। १९ ।।

त्रिवृद्व्योषाग्निदन्त्यर्कश्यामाक्षीरे भपिप्पली ।
एतैर्गुल्महरः स्नेहः कृतश्चैव तथापरः ।। २० ।।

भेदनद्रावणाभ्यङ्गस्नेहपानानुवासनैः ।
सर्वानेव समुत्पन्नान् विद्रवान् समुपाहरेत् ।। २१ ।।

यष्टिकं मुद्‌गसूपेन शारदेन तथा पिवेत् ।
बालविल्वैस्तथा लेपः कटुरोगेषु शस्यते ।। २२ ।।

विडङ्गेन्द्रयवौ हिङ्गु सरलं रजनीद्वयम् ।
पूर्वाह्णे पाययेत् पिण्डात् पिण्डान् सर्वशूलोपशान्तये ।। २३ ।।

प्रधानभोजने तेषां यष्टिकब्रीहिशालयः ।
मध्यमौ यवगोधूमौ यवगोधूमौ शेषा दन्तिनि चाधमाः ।। २४ ।।

यवश्चैव तथैवेक्षुर्नागानां बलवर्द्धनः ।
नागानां यवसं शुष्कं तथा धातुप्रकोपणं ।। २५ ।।

मदक्षीणस्य नागस्य पयःपानं प्रशस्यते ।
दीपनीयैस्तथा द्रव्यैः श्रृतो मांसरसः शुभः ।। २६ ।।

चायसः कुक्कुरश्चोभौ काकोलूककुलो हरिः ।
भवेत् क्षौद्रेण संयुक्तः पिण्डो युद्धे महापदि ।। २७ ।।

कटुमत्स्यविड़ङ्गानि क्षारः कोषातकी पयः ।
हरिद्राचेति धूपोयं कुञ्जरस्य जयावहः ।। २८ ।।

पिप्पलीतण्डुलास्तैलं माध्वीकं माक्षइकम् तथा ।
नेत्रयोः परिषेकोयं दीपनीयः प्रशस्यते ।। २९ ।।

पुरीषञ्जतनेत्रस्तु तथा पारावतस्य च ।
क्षीरवृक्षकरीषाश्च प्रसन्नायेष्टमञ्जनं ।। ३० ।।

अनेनाञ्जिनेत्रस्तु करोति कदनं रणे ।
उत्‌पलानि च नीलानि सुस्तन्तगरमेव च ।। ३१ ।।

तण्डुलोदकपिष्टानि नेत्रनिर्वापनं परम् ।
नखवृद्धौ नखच्छेदस्तैलसेकश्च मास्यपि ।। ३२ ।।

शय्यास्थानं भवेच्चास्य करीषैः पांशुभिस्तथा ।
शरन्निदाघयोः सेकः सर्पिषा च तथेष्यते ।। ३३ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये गजचिकित्सा नाम सप्ताशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 287 Chapter!-In Hindi

दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय - गज-चिकित्सा

पालकाप्यने कहा- लोमपाद। मैं तुम्हारे सम्मुख हाथियोंके लक्षण और चिकित्साका वर्णन करता हूँ। लम्बी सूँड़वाले, दीर्घ श्वास लेनेवाले, आघातको सहन करनेमें समर्थ, बीस या अठारह नखोंवाले एवं शीतकालमें मदकी धारा बहानेवाले हाथी प्रशस्त माने गये हैं। जिनका दाहिना दाँत उठा हो, गर्जना मेघके समान गम्भीर हो, जिनके कान विशाल हों तथा जो त्वचापर सूक्ष्म-बिन्दुओंसे चित्रित हों, ऐसे हाथियोंका संग्रह करना चाहिये; किंतु जो ह्रस्वाकार और लक्षणहीन हों, ऐसे हाथियोंका संग्रह कदापि नहीं करना चाहिये। पार्श्वगर्भिणी हस्तिनी और मूढ़ उन्मत्त हाथियोंको भी न रखे। वर्ण, सत्त्व, बल, रूप, कान्ति, शारीरिक संगठन एवं वेग इस प्रकारके सात गुणोंसे युक्त गजराज सम्मुख युद्धमें शत्रुओंपर विजय प्राप्त करता है। गजराज ही शिबिर और सेनाकी परम शोभा हैं। राजाओंकी विजय हाथियोंके अधीन है॥ १-५॥

हाथियोंके सभी प्रकारके ज्वरोंमें अनुवासन देना चाहिये। घृत और तैलके अभ्यङ्गके साथ स्नान वात रोगको नष्ट करनेवाला है। राजाओंको हाथियों के स्कन्धरोगोंमें पूर्ववत् अनुवासन देना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ! पाण्डुरोगमें गोमूत्र, हरिद्रा और घृत दे। बद्धकोष्ठ (कब्जियत) में तैलसे पूरे शरीरका मर्दन करके स्रान कराना या क्षरण कराना प्रशस्त है। हाथीको पञ्चलवण (कालानमक, सेंधानमक, संचर नोन, समुद्रलवण और काचलवण) युक्त वारुणी मदिराका पान करावे। मूच्छा रोगमें हाथीको वायविडंग, त्रिफला, त्रिकटु और सैन्धव लवणके ग्रास बनाकर खिलाये तथा मधुयुक्त जल पिलाये। शिरश्शूलमें अभ्यङ्ग और नस्य प्रशस्त है। हाथियोंके पैरके रोगोंमें तैलयुक्त पोटलीसे मर्दनरूप चिकित्सा करे। तदनन्तर कल्क और कषायसे उनका शोधन करना  चाहिये। जिस हाथीको कम्पन होता हो, उसको पीपल और मिर्च मिलाकर मोर, तीतर और बटेरके मांसके साथ भोजन करावे अतिसाररोगके शमनके लिये गजराजको नेत्रबाला, बेलका सूखा गूदा, लोध, धायके फूल और मिश्रीकी पिंडी बनाकर खिलावे। करग्रह (सूँडके रोग) में लवणयुक्त घृतका नस्य देना चाहिये। 

उत्कर्णक रोगमें पीपल, सोंठ, कालाजीरा और नागरमोथासे साधित यवागू एवं वाराहीकंदका रस दे। दशमूल, कुलथी, अम्लवेत और काकमाचीसे सिद्ध किया हुआ तैल मिर्चके साथ प्रयोग करनेसे गलग्रह- रोगका नाश होता है। मूत्रकृच्छ्र-रोगमें अष्टलवणयुक्त सुरा एवं घृतका पान करावे अथवा खरिके बीजोंका क्वाथ दे। हाथीको चर्मदोषमें नीम या अडूसेका क्वाथ पिलावे। कृमियुक्त कोष्ठको शुद्धिके लिये गोमूत्र और वायविडंग प्रशस्त हैं। सोंठ, पीपल, मुनक्का और शर्करासे भूत जलका पान क्षतदोषका क्षय करनेवाला है तथा मांस-रस भी लाभदायक है। अरुचिरोगमें सोंठ, मिर्च एवं पिप्पलीयुक्त मूँग भात प्रशंसित है। निशोथ, त्रिकटु, चित्रक, दन्ती, आक, पीपल, दुग्ध और गजपीपल- इनसे सिद्ध किया हुआ खेह गुल्मरोगका अपहरण करता है। इसी प्रकार (गजचिकित्सक) भेदन, द्रावण, अभ्यङ्ग, नेहपान और अनुवासनके द्वारा सभी प्रकारके विद्रधिरोगों का विनाश करे ॥ ६-२१ ॥

हाथीके कटुरोगोंमें मूँगकी दाल या मूंगके साथ मुलहठी मिलावे और नेत्रबाला एवं बेलकी छालका लेप करे। सभी प्रकारके शूलोंका शमन करनेके लिये दिनके पूर्वभागमें इन्द्रयव, हींग, धूपसरल, दोनों हल्दी और दारुहल्दीकी पिंडी दे। हाथियोंके उत्तम भोजनमें साठी चावल, मध्यम भोजनमें जौ और गेहूँ एवं अधम भोजनमें अन्य भक्ष्य-पदार्थ माने गये हैं। जौ और ईख हाथियोंका बल बढ़ानेवाले हैं तथा सूखा तृण उनके धातुको प्रकुपित करनेवाला है। मदक्षीण हाथीको दुग्ध पिलाना प्रशस्त है तथा दीपनीय द्रव्योंसे पकाया हुआ मांसरस भी लाभप्रद है। गुग्गुल, गठिवन, करकोल्यादिगण और चन्दन - इनका मधुके साथ प्रयोग करे। इससे पिण्डोद्रेक- रोगका नाश होता है। 

कुटकी, मत्स्य, वायविडंग, लवण, कोशातकी (झिमनी) का दूध और हल्दी- इनका धूप हाथियोंके लिये विजयप्रद है। पीपल और चावल तथा तेल, माध्वीक (महुआ या अङ्गरके रससे निर्मित सुरा) तथा मधु-इनका नेत्रोंमें परिषेक दीपनीय माना गया है। गौरैया चिड़िया और कबूतरकी बीट, गूलर, सूखा गोबर एवं मदिरा-इनका मञ्जन हाथियोंको अत्यन्त प्रिय है। हाथीके नेत्रोंको इससे अञ्जित करनेपर वह संग्रामभूमिमें शत्रुओंको मसल डालता है। नीलकमल, नागरमोथा और तगर- इनको चावलके जलमें पीस ले। यह हाथियोंके नेत्रोंको परम शान्ति प्रदान करता है। नख बढ़नेपर उनके नख काटने चाहिये और प्रतिमास तैलका सेक करना चाहिये। हाथियोंका शयन-स्थान सूखे गोबर और धूलसे युक्त होना चाहिये। शरद् और ग्रीष्म ऋऋतुमें इनके लिये घृतका सेक उपयुक्त है॥ २२-३३॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'गज चिकित्साका कथन' नामक दो सौ सत्तासीषाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८७॥

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