अग्नि पुराण दो सौ पैंसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 265 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ पैंसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 265 Chapter !

अग्नि पुराण 265 अध्याय - दिक्पालादिस्नानम्

अग्निरुवाच

सर्वार्थसाधनं स्नानं वक्ष्ये शान्तिकरं श्रृणु ।
स्नापयेच्य सरित्तीरे ग्रहान् विष्णु विचक्षणः ।। १ ।।

देवालये ज्वरार्त्त्यादौ विनायकग्रहार्द्दिते ।
विद्यार्थिनो ह्रदे गेहे जयकामस्य तीर्थके ।। २ ।।

पद्मिन्यां स्नापयेन्नारीं गर्भो यस्याः स्नवेत्तथा ।
अशोकसन्निधौ स्नायाज्जातो यस्या विनश्यति ।। ३ ।।

पुष्पार्थिनाञ्च पुष्पाढ्ये पुत्रार्थिनाञ्च सागरे ।
गृहसौभाग्यकामानां सर्वेषां विष्णुसन्निधौ ।। ४ ।।

वैष्णवे रेवतीपुष्ये सर्वेषां स्नानमुत्तमं ।
स्नानकामस्य सप्ताहम्पूर्वमुत्सादनं स्मृतं ।। ५ ।।

पुनर्न्नवां रोचनाञ्च शताङ्गं गुरुणी त्वचं ।
मधूकं रजनी द्वे च तगरन्नागकेशरम् ।। ६ ।।

अम्बरीञ्चैव मञ्जिष्ठां मांसीयासकमर्दनैः ।
प्रियङ्गुसर्षपं कुष्ठम्बलाम्ब्राह्मीञ्च कुङ्कुमं ।। ७ ।।

पञ्चगव्यं शक्तुमिश्रं उद्वर्त्त्य स्नानमाचरेत् ।
मण्डले कर्णिकायाञ्च विष्णुं ब्राह्मणमर्च्चयेत् ।। ८ ।।

दक्षएवामे हरं पूर्वं पत्रे पूर्वादिके क्रमात् ।
लिखेदिन्द्रादिकान्देवान् सायुधान् सहबान्धवान् ।। ९ ।।

स्नानमण्डलकान् दिक्षु कुर्य्याच्चैव वादिक्षु च ।
विष्णुब्रह्मेशशक्रादींस्तदस्त्राण्यर्घ्य होमयेत् ।। १० ।।

एकैकस्य त्वष्टशतं समिधस्तु तिलान् घृतं ।
भद्रः सुभद्रः सिद्धार्थः कलसाः पुष्टिवर्द्धनाः ।। ११ ।।

अमोघश्चित्रबानुश्च पर्ज्जन्योऽथ सुदर्शनः ।
स्थापयेत्तु घटानेतान् साश्विरुद्रमरुद्‌गणान् ।। १२ ।।

विश्वे देवास्तथा दैत्या वसवो मुनयस्तथा ।
आवेशयन्तु सुप्रीतास्तथान्या अपि देवताः ।। १३ ।।

ओषधीर्न्निक्षिपेत् कुम्भे जयन्तीं विजयां जयां ।
शतावरीं शतपुष्पां विष्णुक्रान्तापराजिताम् ।। १४ ।।

उयोतिष्मतीमतिबलाञ्चन्दनोशीरकेशरं ।
कस्तूरिकाञ्च कर्पूरं बालकं पत्रकं त्वचं ।। १५ ।।

जातीफलं लवङ्गञ्च मृत्तिकां पञअचगव्यकं ।
भद्रपीठे स्थितं साध्यं स्नापयेयुर्द्विजा बलात् ।। १६ ।।

राजाभिषेकमन्त्रोक्तदेवानां होमकाः पृथक् ।
पूर्णाहुतिन्ततो दत्वा गुरवे दक्षिणां ददेत् ।। १७ ।।

इन्द्रोऽभिषिक्तो गुरुणा पुरा दैत्यान् जघान् ह ।
लिक्पालस्नानङ्कथितं संग्रामादौ जयादिकं ।। १८ ।।

इत्यादि महा पुराणे आग्नेये दिक्‌पालादिस्नानं नाम पञ्चषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण दो सौ पैंसठवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 265 Chapter In Hindi

दो सौ पैंसठवाँ अध्याय - दिक्याल स्त्रान की विधि का वर्णन

पुष्कर कहते हैं- परशुराम ! अब मैं सम्पूर्ण अर्थोको सिद्ध करनेवाले शान्तिकारक स्रानका वर्णन करता हूँ, सुनो। बुद्धिमान् पुरुष नदीतटपर भगवान् श्रीविष्णु एवं ग्रहोंको स्नान करावे। ज्वरजनित पीड़ा आदिमें तथा विघ्नराज एवं ग्रहोंकि कष्टसे पीड़ित होनेपर उस पीड़ासे छूटनेवाले पुरुषको देवालयमें खान करना चाहिये। विद्याप्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवाले छात्रको किसी जलाशय अथवा घरमें ही स्नान करना चाहिये तथा विजयकी कामनावाले पुरुषके लिये तीर्थजलमें खान करना उचित है। जिस नारीका गर्भ स्खलित हो जाता हो, उसे पुष्करिणीमें नान कराये। जिस स्त्रीके नवजात शिशुको जन्म लेते ही मृत्यु हो जाती हो, वह अशोकवृक्षके समीप स्रान करे। रजोदर्शनकी कामना करनेवाली स्त्री पुष्पोंसे शोभायमान उद्यानमें और पुत्राभिलाषिणी समुद्रमें खान करे। सौभाग्यकी कामनावाली स्त्रियोंको घरमें स्नान करना चाहिये। परंतु जो सब कुछ चाहते हों, ऐसे सभी स्वी-पुरुषोंको भगवान् विष्णुके अर्चाविग्रहोंके समीप नान करना उत्तम है। श्रवण, रेवती एवं पुष्य नक्षत्रोंमें सभीके लिये स्नान करना प्रशस्त है ॥ १-४॥

काम्यस्नान करनेवाले मनुष्यके लिये एक सप्ताह पूर्वसे ही उबटन लगानेका विधान है। पुनर्नवा (गदहपूर्णा), रोचना, सताङ्ग (तिनिश) एवं अगुरु वृक्षकी छाल, मधूक (महुआ), दो प्रकारकी हल्दी (सोंठहल्दी और दारुहल्दी), तगर, नागकेसर, अम्बरी, मञ्जिष्ठा (मजीठ), जटामांसी, यासक, कर्दम (दक्ष-कर्दम), प्रियंगु, सर्षप, कुष्ठ (कूट), बला, ब्राह्मी, कुङ्कुम एवं सकुमिश्रित पञ्चगव्य इन सबका उबटन करके स्नान करे॥५-७॥ 

तदनन्तर ताम्रपत्रपर अष्टदल पद्म-मण्डलका निर्माण करके पहले उसकी कर्णिका (के मध्यभाग) में श्रीविष्णुका, उनके दक्षिणभागमें ब्रह्माका तथा वामभागमें शिवका अजून और पूजन करे। फिर पूर्व आदि दिशाओंके दलोंमें क्रमशः इन्द्र आदि दिक्पालोंको आयुधों एवं बन्धु- बान्धवोंसहित अङ्कित करे। तदनन्तर पूर्वादि दिशाओं और अग्नि आदि कोणोंमें भी आठ खान-मण्डलोंका निर्माण करे। उन मण्डलोंमें विष्णु, ब्रह्मा, शिव एवं इन्द्र आदि देवताओंका उनके आयुधोंसहित पूजन करके उनके उद्देश्यसे होम करे। प्रत्येक देवताके निमित्त समिधाओं, तिलों या घृतोंकी १०८ (एक सौ आठ) आहुतियाँ दे। फिर भद्र, सुभद्र, सिद्धार्थ, पुष्टिवर्धन, अमोघ, चित्रभानु, पर्जन्य एवं सुदर्शन- इन आठ कलशोंकी स्थापना करे और उनके भीतर अश्विनीकुमार, रुद्र, मरुद्गण, विश्वेदेव, दैत्य, वसुगण तथा मुनिजनों एवं अन्य देवताओंका आवाहन करे। उनसे प्रार्थना करे कि 'आप सब लोग प्रसन्नतापूर्वक इन कलशोंमें आविष्ट हो जायें।' इसके बाद उन कलशोंमें जयन्ती, विजया, जया, शतावरी, शतपुष्पा, विष्णुक्रान्ता नामसे प्रसिद्ध अपराजिता, ज्योतिष्मती, अतिबला, उशीर, चन्दन, केसर, कस्तूरी, कपूर, वालक, पत्रक (पत्ते), त्वचा (छाल), जायफल, लवङ्ग आदि ओषधियाँ तथा मृत्तिका और पञ्चगव्य डाले। तत्पश्चात् ब्राह्मण साध्य मनुष्यको भद्रपीठपर बैठाकर इन कलशोंके जलसे बलपूर्वक स्रान करावे। राज्याभिषेकके मन्त्रोंमें उक्त देवताओंके उद्देश्यसे पृथक् पृथक् होम करना चाहिये। तत्पश्चात् पूर्णाहुति देकर आचार्यको दक्षिणा दे। पूर्वकालमें देवगुरु बृहस्पतिने इन्द्रका इसी प्रकार अभिषेक किया था, जिससे वे दैत्योंका वध करनेमें समर्थ हो सके। यह मैंने संग्राम आदिमें विजय आदि प्रदान करनेवाला 'दिक्पालखान' कहा है॥ ८-१८ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'दिक्पाल खानकी विधिका वर्णन' नामक दो सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६५॥

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