अग्नि पुराण तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 321 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय - अघोरास्त्रादि शान्ति कल्पः
ईश्वर उवाच
अस्त्रयागः पुरा कार्य्यः सर्वकर्म्मसु सिद्धिदः ।
मध्ये पूज्यं शिवाद्यस्त्रं वज्रादीन् पूर्वतः क्रमात् ।। १ ।।
पञ्चचक्रं दश करं रणादौ पूजितं जये ।
ग्रहपूजा रविर्मध्ये पूर्व्वाद्याः सोमकादयः ।। २ ।।
सर्व्व एकादशस्थास्तु ग्रहाः स्युः ग्रहपूजनात् ।
अस्त्रशान्तिं प्रवक्ष्यामि सर्वोत्पातविनाशिनीं ।। ३ ।।
ग्रहरोगादिशमनीं मारीशत्रुविमर्द्दनीं ।
विनायकोपतप्तिघ्नमघोरास्त्रं जपेन्नरः ।। ४ ।।
लक्षं ग्रहादिनाशः स्यादुत्पाते तिलहोमकम् ।
दिव्ये लक्षं तदर्द्धेन व्योमजोत्पातनाशनं ।। ५ ।।
घृतेन लक्षपातेन उत्पाते भूमिजे हितम् ।
घृतगुग्गुलुहोमे च सर्व्वोत्पातादिमर्द्दनम् ।। ६ ।।
दूर्वाक्षताज्यहोमेन व्याधयोऽथ घृतेन च ।
सहस्रेण तु दुःस्वप्ना विनश्यन्ति न संशयः ।। ७ ।।
अयुताद् ग्रहदोषघ्नो जवाघृतविमिश्रितात् ।
विनायकार्त्तिशमनमयुतेन घृतस्य च ।। ८ ।।
भूतवेतालशान्तिस्तु गुग्गुलोरयुतेन च ।
महावृक्षस्य भङ्गे तु व्यालकङ्के गृहे स्थिते ।। ९ ।।
आरण्यानां प्रवेशे च दूर्वाज्याक्षतहावनात् ।
उल्कापाते भूमिकम्पे तिलाज्येनाहुताच्छिवम् ।। १० ।।
रक्तस्रावे तु वृक्षाणामयुताद् गुग्गुलोः शिवं ।
अकाले फलपुष्पणां राष्ट्रभङ्गे च मारणे ।। ११ ।।
द्विपदादेर्यदा मारी लक्षार्द्धाच्च तिलाज्यतः ।
हस्तिमारीप्रशान्त्यर्थ करिणीदन्तवर्द्धने ।। १२ ।।
हस्तिन्यां मददृष्टौ च अयुताच्छान्तिरिष्यते ।
अकाले गर्भपाते तु जातं यत्र विनश्यति ।। १३ ।।
विकृता यत्र जायन्ते यात्राकालेऽयुतं हुनेत् ।
तिलाज्यलक्षहोमन्तु उत्तमासिद्धिसाधने ।। १४ ।।
मध्यमायां तदर्द्धेन तत्पादादधमासु च ।
यथा जपस्तथा होमः संग्रामे विजयो भवेत ।
अघोरास्त्रं जपेन्न्यस्य ध्यात्वा पञ्चास्यमूर्ज्जितम् ।। १५ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अघोरास्त्रादिशान्तिकल्पो नामैकविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 321 Chapter In Hindi
तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय अघोरास्त्र आदि शान्ति-विधान का कथन
महादेवजी कहते हैं- स्कन्द ! पहले समस्त कर्मोंमें 'अस्त्रयाग' करना चाहिये। यह सिद्धि प्रदान करनेवाला है। मध्यभागमें शिव, विष्णु आदिके अस्त्रकी पूजा करनी चाहिये तथा पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः इन्द्रादि दिक्पालोंके वज्र आदि अस्त्रोंका पूजन करना चाहिये। भगवान् शंकरके पाँच मुख तथा दस हाथ हैं। उनके इस स्वरूपका ध्यान करते हुए युद्धसे पूर्व पूजा कर ली जाय तो विजयकी प्राप्ति होती है। ग्रहपूजा करते समय नवग्रहचक्रके मध्यमें सूर्यदेवकी तथा पूर्वादि दिशाओंमें सोम आदिकी अर्चना करनी चाहिये। ग्रहोंकी पूजा करनेसे सभी ग्रह एकादश (ग्यारहवें) स्थानमें स्थित होते हैं और उस स्थानमें स्थितकी भाँति उत्तम फल देते हैं॥ १-२ ॥
अब मैं समस्त उत्पातोंका नाश करनेवाली 'अस्त्रशान्ति' का वर्णन करूँगा। यह शान्ति ग्रहरोग आदिको शान्त करनेवाली तथा महामारी एवं शत्रुका मर्दन करनेवाली है। विघ्नकारक गोंके द्वारा उत्पादित उत्पातको भी शान्त करती है। मनुष्य 'अघोरास्त्र'का जप करे। एक लाख जप करनेसे ग्रहबाधा आदिका निवारण होता है और तिलसे दशांश होम कर दिया जाय तो उत्पातोंका नाश होता है। एक लाख जप-होमसे दिव्य उत्पातका तथा आधे लक्ष जप-होमसे आकाशज उत्पातका विनाश होता है। घीकी एक लाख आहुति देनेसे भूमिज उत्पातके निवारणमें सफलता प्राप्त होती है। घृतमिश्रित गुग्गुलके होमसे सम्पूर्ण उत्पात आदिका शमन हो जाता है। दूर्वा, अक्षत तथा घीकी आहुति देनेसे सारे रोग दूर होते हैं। केवल घीकी एक सहस्त्र आहुतिसे बुरे स्वप्र नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है।
वही आहुति यदि दस हजारकी संख्यामें दी जाय तो ग्रहदोषका शमन होता है। घृतमिश्रित जौकी दस हजार आहुतियोंसे विनायकजनित पीड़ाका निवारण होता है। दस हजार घीकी आहुतिसे तथा गुग्गुलकी भी दस सहल आहुतिसे भूत-वेताल आदिको शान्ति होती है। यदि कोई बड़ा भारी वृक्ष आँधी आदिसे स्वतः उखड़कर गिर जाय, घरमें सर्पका कङ्काल हो तथा वनमें प्रवेश करना पड़े तो दूर्वा, घी और अक्षतके होमसे विघ्नकी शान्ति होती है। उल्कापात या भूकम्प हो तो तिल और घीसे होम करनेसे कल्याण होता है। वृक्षोंसे रक्त बहे, असमयमें फल-फूल लगें, राष्ट्रभङ्ग हो, मारणकर्म हो, जब मनुष्य-पशु आदिके लिये महामारी आ जाय तो तिलमिश्रित घीसे अर्धलक्ष आहुति देनी चाहिये। इससे दोषोंका शमन होता है। यदि हाथीके लिये महामारी उपस्थित हो, हथिनीके दाँत बढ़ जायें अथवा हथिनीके गण्डस्थलसे मद फूटकर बहने लगे तो इन सब दोषोंको शान्ति के लिये दस हजार आहुतियाँ देनी चाहिये। इससे अवश्य शान्ति होती है॥ ३-१२॥
जहाँ असमयमें गर्भपात हो या जहाँ बालक जन्म लेते ही मर जाता हो तथा जिस घरमें विकृत अङ्गवाले शिशु उत्पन्न होते हों तथा जहाँ समय पूर्ण होनेसे पूर्व ही बालकका जन्म होता हो, वहाँ इन सब दोषोंके शमनके लिये दस हजार आहुतियाँ देनी चाहिये। सिद्धि- साधनमें तिलमिश्रित घीसे एक लाख हवन किया जाय तो वह उत्तम है, मध्यम सिद्धिके साधनमें अर्धलक्ष और अधम सिद्धिके लिये पचीस हजार आहुति देनी चाहिये। जैसा जप हो, उसके अनुसार ही होम होना चाहिये। इससे संग्राममें विजय प्राप्त होती है। न्यासपूर्वक तेजस्वी पञ्चमुखका ध्यान करके 'अघोरास्त्र का जप करना चाहिये ॥ १३-१६॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'अघोरास्त्र आदि विविध शान्तिका कथन' नामक तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३२१॥
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