अग्नि पुराण तीन सौ सैंतालीसवाँ अध्याय - Agni Purana 347 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ सैंतालीसवाँ अध्याय - Agni Purana 347 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ सैंतालीसवाँ अध्याय - काव्य दोष विवेकः

अग्निरुवाच

उद्वेगजनको दोषः सभ्यानां स च सप्तधा ।
वक्तृवाचकवाच्यानामेकद्वित्रिनियोगतः ।। १ ।।

तत्र वक्ता कविर्नाम प्रथते स च भेदतः ।
सन्दिहानोऽविनीतः सन्नज्ञो ज्ञाता चतुर्व्विंधः ।। २ ।।

निमित्तपरिभाषाभ्यामर्थसंस्पर्शिवाचकम् ।
तद्‌भेदो पदवाक्ये द्वे कथितं लक्षणं द्व्योः ।। ३ ।।

असाधुत्वाप्रयुक्तत्वे द्वावेव पदनिग्रहौ ।
शब्दशास्त्रविरुद्धत्वमसाधुत्वं विदुर्बुधाः ।। ४ ।।

व्युत्पन्नैरनिबद्धत्वमप्रयुक्तत्वमुच्यते ।
छान्दसत्वमविस्पष्टत्वञ्च कष्टत्वमेव च ।। ५ ।।

तदसामयिकत्वञ्च ग्राम्यत्वञ्चेति पञ्चधा ।
छान्दसत्वं न भाषायामविस्पष्टमबोधतः ।। ६ ।।

गूढ़ार्थता विपर्य्यस्तार्थता संशयितार्थता ।
अविस्पष्टार्थता भेदास्तत्र गूढ़ार्थतेति सा ।। ७ ।।

यत्रार्थो दुःखसंवेद्यो विपर्य्यस्तार्थ्ता पुनः ।
विवक्षितान्यशब्दार्थप्रतिपत्तिर्मलीमसा ।। ८ ।।

अन्यार्थत्वासमर्थत्वे एतामेवोपसर्पतः ।
सन्दिह्यमानवाच्यत्वमाहुः संशयितार्थतां ।। ९ ।।

दोषत्वमनुबध्नाति सज्जनोद्वेजनादृते ।
असुखोच्चार्य्यमाणत्वं कष्टत्वं समयाच्युतिः ।। १० ।।

असामयितता नेयामेताञ्च मुनयो जगुः ।
ग्राम्यता तु जघन्यार्थप्रतिपत्तिः शलीकृता ।। ११ ।।

वक्तव्यग्राम्यवाच्यस्य वचनात्स्मरणादपि ।
तद्वाचकपदेनाभिसाम्याद्भवति सा त्रिधा ।। १२ ।।

दोषः साधारणः प्रातिस्विकोऽर्थस्य स तु द्विधा ।
अनेकभागुपालम्भः साधारण इति स्मृतः ।। १३ ।।

क्रियाकारकयोर्भ्रंशो विसन्धिः पुनरुक्तता ।
व्यस्तसम्बन्धता चेति पञ्च साधारणा मताः ।। १४ ।।

अक्रियत्वं त्रियाभ्रंशो भ्रष्टकारकता पुनः ।
सर्त्त्र्यादिकारकाभावो विसन्धिः सन्धिदूषणम् ।। १५ ।।

विगतो वा विरुद्धो वा सन्धिः स भवति द्विधा ।
सन्धेर्व्विरुद्धता कष्टपादादर्थान्तरागमात् ।। १६ ।।

पुनरुक्तत्वमाभीक्ष्ण्यादभिधानं द्विधैव तत् ।
अर्थावृत्तिः पदावृत्तिरर्थावृत्तिरपि द्विधा ।। १७ ।।

प्रयुक्त वरशब्देन तथा शब्दान्तरेण च ।
नावर्त्तते पदावृत्तौ वाच्यमावर्त्तते पदम् ।। १८ ।।

व्यस्तसम्बन्धता सुष्ठुसम्बन्धो व्यवधानतः ।
सम्बन्धान्तरनिर्भाषात् सम्बन्धान्तरजन्मनः ।। १९ ।।

अभावेपि तयोरन्तर्व्यवधानात्त्त्रिधैव सा ।
अन्तरा पदवाक्याभ्यां पुनर्द्विधा ।। २० ।।

वाच्यमर्थार्थ्यमानत्वात्तद्‌द्विधा पदवाक्ययोः ।
व्युत्पादितपूर्व्ववाच्यं व्युत्पाद्यञ्चेति भिद्यते ।। २१ ।।

इष्टव्याघातकारित्वं हेतोः स्यादसमर्थता ।
असिद्धत्वं विरुद्धत्वमनैकान्तिकता तथा ।। २२ ।।

एवं सत्प्रतिपक्षत्वं कालातीतत्वसङ्करः ।
पक्षे सपक्षे नास्तित्वं विपक्षेऽस्तित्वमेव तत् ।। २३ ।।

काव्येषु परिषद्यानां न भवेदप्यरुन्तुदम् ।
एकादशनिरर्थत्वं दुष्करादौ न दुष्यति ।। २४ ।।

दुःखीकरोति दोषज्ञान् गूढार्थत्वं न दुष्करे ।
न ग्राम्यतोद्वेगकारी प्रसिद्धेर्ल्लोकशास्त्रयोः ।। २५ ।।

क्रियाभ्रंशेन लक्ष्मास्ति क्रियाध्याहारयोगतः ।
भ्रष्टकारकताक्षेपबलाध्याहृतकारके ।। २६ ।।

प्रगृह्यो गृह्यते नैव क्षतं विगतसन्धिना ।
कष्टपाठाद्विसन्धित्वं दुर्व्वचादौ न दुर्भगम् ।। २७ ।।

अनुप्रासे पदावृत्तिर्व्यस्तसम्बन्धता शुभा ।
नार्थसंग्रहणे दोषो व्युत्क्रमाद्यैर्न्न लिप्यते ।। २८ ।।

विभक्तिसंज्ञालिङ्गानां यत्रोद्वेगो न धीमतां ।
संख्यायास्तत्र भिन्नत्वमुप्मानोपमेययोः ।। २९ ।।

अनेकस्य तथैकेन बहूनां बहुभिः शुभा ।
कवीनां समुदाचारः समयो नाम गीयते ।। ३० ।।

सामान्यश्च विशिष्टश्च धर्म्मवद्भवति द्विधा ।
सिद्धसैद्धान्तिकानाञ्च कवीनाञ्चाविवादतः ।। ३१ ।।

यः प्रसिध्यति सामान्य इत्यसौ समयो मतः ।
सर्व्वे सिद्धान्तिका येन सञ्चरन्ति निरत्ययं ।। ३२ ।।

कियन्त एव वा येन सामान्यस्तेन स द्विधा ।
छेदसिद्धान्ततोऽन्यः स्यात् केषाञ्चिद्‌ भ्रान्तितो यथा ।। ३३ ।।

तर्कज्ञानां मुनेः कस्य कस्यचित् क्षणभङ्गिका ।
भूतचैतन्यता कस्य ज्ञानस्य सुप्रकाशता ।। ३४ ।।

प्रज्ञातस्थूलताशबप्दानेकान्तत्वं तथार्हतः ।
शैववैष्णवशाक्तेयसौरसिद्धान्तिनां मतिः ।। ३५ ।।

जगतः कारणं ब्रह्म साङ्‌ख्यानां सप्रधानकं ।
अस्मिन् सरस्वतीलोके सञ्चरन्तः परस्परम् ।। ३६ ।।

बध्नन्ति व्यतिपश्यन्तो यद्विशिष्टः स उच्यते ।
परिग्रहादप्यसतां सतामेवापरिग्रहात् ।। ३७ ।।

भिद्यमानस्य तस्यायं द्वैविध्यमुपगीयते ।
प्रत्यज्ञादिप्रमाणैर्यद्बाधितं तदसद्विदुः ।। ३८ ।।

कविभिस्तत् प्रतिग्राह्यं ज्ञानस्य द्योतमानता ।
यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् ।। ३९ ।।

अज्ञानाज्ज्ञानतस्त्वेकं ब्रह्मैव परमार्थसत् ।
विष्णुः स्वर्गादिहेतुः स शब्दालङ्काररूपवान् ।। ४० ।।

अपरा च परा विद्या तां ज्ञात्वा मुच्यते भवात् ।। ४१ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अलङ्कारे काव्यदोषविवेको नाम सप्तचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ सैंतालीसवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 347 Chapter In Hindi

तीन सौ सैंतालीसवाँ अध्याय काव्य दोष-विवेक

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ। 'दृश्य' और 'श्रव्य' काव्य में यदि 'दोष" हो तो वह सहृदय सभ्यों (दर्शकों और पाठकों) के लिये उद्वेगजनक होता है। वक्ता, वाचक एवं वाच्य इनमेंसे एक-एकके नियोगसे, दो-दोके नियोगसे और तीनोंके नियोगसे सात प्रकारके दोष होते हैं। इनमें 'वक्ता' कविको माना गया है, जो संदिहान, अविनीत, अज्ञ और ज्ञाताके भेदसे चार प्रकारका है। निमित्त और परिभाषा (संकेत) के अनुसार अर्थका स्पर्श करनेवाले शब्दको 'वाचक' कहते हैं। उसके दो भेद हैं- 'पद' और 'वाक्य'। इन दोनोंके लक्षणोंका वर्णन पहले हो चुका है। पददोष दो प्रकारके होते हैं- असाधुत्व और अप्रयुक्तत्व। व्याकरणशास्वसे विरुद्ध पदमें विद्वानोंने 'असाधुत्व' दोष माना है। काव्यकी व्युत्पत्तिसे सम्पन्न विद्वानोंद्वारा जिसका कहीं उल्लेख न किया गया हो, उसमें 'अप्रयुक्तत्व' दोष कहा जाता है। अप्रयुक्तत्वके भी पाँच भेद होते हैं- छान्दसत्व, अविस्पष्टत्व, कष्टत्व, असामयिकत्व एवं ग्राम्यत्व। जिसका लोकभाषामें प्रयोग न हो, वह 'छान्दसत्व' दोष एवं जो बोधगम्य न हो, वह 'अविस्मष्टत्व' दोष कहलाता है। अविस्पष्टत्वके भेद निम्नलिखित हैं- गूढार्थता, विपर्यस्तार्थता तथा संशयितार्थता। जहाँ अर्थका क्लेशपूर्वक ग्रहण हो, वहाँ 'गूढार्थता' दोष होता है। जो विवक्षितार्थसे भित्र शब्दार्थके ज्ञानसे दूषित हो उसे 'विपर्यस्तार्थता' कहते हैं। 

अन्यार्थत्व एवं असमर्थत्व ये दोनों दोष भी 'विपर्यस्तार्थता' का ही अनुगमन करते हैं। जिसमें अर्थ संदिग्ध होता है, उसको 'संशयितार्थता' कहते हैं। यह सहृदयके लिये उद्वेगकारक न होनेपर दोष नहीं माना जाता। सुखपूर्वक उच्चारण न होना 'कष्टत्वदोष' माना जाता है। जो रचना समय कविजन निर्धारित मर्यादासे च्युत हो, उसमें 'असामयिकता' मानी जाती है। उस असामयिकताको मुनिजन 'नेया' कहते हैं। जिसमें निकृष्ट एवं दूषित अर्थकी प्रतीति होती है, उसमें 'ग्राम्यतादोष' होता है। निन्दनीय ग्राम्यार्थक कथनसे, उसके स्मरणसे तथा उसके वाचक पदके साथ समानता होनेसे 'ग्राम्यदोष' तीन प्रकारका है। 'अर्थदोष' साधारण और प्रातिस्वितकके भेदसे दो प्रकारका होता है। जो दोष अनेकवर्ती होता है, उसको 'साधारण' माना गया है। क्रियाभ्रंश, कारकभ्रंश, विसंधि, पुनरुक्तता एवं व्यस्त-सम्बन्धताके भेदसे 'साधारण दोष पाँच प्रकारके होते हैं। क्रियाहीनताको 'क्रियाभ्रंश' कर्त्ता आदि कारकके अभावको 'कारकभ्रंश' एवं संधिदोषको 'विसंधि' कहते हैं ॥ १-१५॥ विसंधि दोष दो प्रकारका होता है- 'संधिका अभाव' एवं 'विरुद्ध संधि'। विरुद्ध पदार्थान्तरकी प्रतीति होने से विरुद्ध संधिको कष्टकर माना गया है। बार-बार कथनको 'पुनरुक्तत्व' दोष कहते हैं। वह भी दो प्रकार का होता है- 'अर्थावृत्ति' एवं 'पदावृत्ति'। 'अर्थावृत्ति' भी दो प्रकारकी होती है-काव्यमें प्रयुक्त अभीष्ट या विवक्षित शब्द के द्वारा एवं शब्दान्तर के द्वारा 'पदावृत्ति' में अर्थको आवृत्ति नहीं होती, पदमात्र की ही आवृत्ति होती है। जहाँ व्यवधान से भली-भाँति सम्बन्ध हो, वहाँ 'व्यस्त सम्बन्धता' दोष होता है। 

सम्बन्धान्तरकी प्रतीति से, सम्बन्धान्तरजन्य होने से तथा इन दोनों के अभाव में भी अन्तर्व्यवधान से व्यस्त-सम्बन्धता के तीन भेद हो जाते हैं। बीचमें पद अथवा वाक्यसे व्यवधान होने के कारण उक्त भेदों में से प्रत्येक के दो-दो भेद और होते हैं। पद और वाक्य में अर्थ और अर्थ्यमान के भेद से वाच्यार्थ के दो भेद होते हैं। पदगत वाच्य 'व्युत्पादित' और 'व्युत्पाद्य 'के भेदसे दो प्रकारका माना जाता है। यदि हेतु अभीष्टसिद्धिमें व्याघातकारी हो तो यह उसका दोष माना गया है। यह 'हेतुदोष' ग्यारह प्रकारका होता है- असमर्थत्व, असिद्धत्व, विरुद्धत्व, अनेकान्तिकता, सत्प्रतिपक्षत्व, कालातीतत्व, संकर, पक्षमें अभाव, सपक्षमें अभाव, विपक्षमें अस्तित्व और ग्यारहवाँ निरर्थत्व। वह इष्टव्याघातकारित्व दोष काव्य और नाटकोंमें तथा सहृदय सभासदोंमें (श्रोताओं, दर्शकों और पाठकोंमें) मार्मिक पीड़ा उत्पन्न करनेवाला है। निरर्थत्वदोष दुष्कर चित्रबन्धादि काव्यमें दूषित ' नहीं माना जाता। पूर्वोक्त गूढार्थत्वदोष दुष्कर , चित्रबन्धमें विद्वानोंके लिये दुःखप्रद नहीं प्रतीत होता। 'ग्राम्यत्व' भी यदि लोक और शास्त्र दोनोंमें प्रसिद्ध हो तो उद्वेगकारक नहीं जान पड़ता। क्रियाभ्रंशमें यदि क्रियाका अध्याहार करके उसका सम्बन्ध जोड़ा जा सके तो वह दोष नहीं रह जाता। इसी तरह भ्रष्टकारकता दोष नहीं रह जाता, जब कि आक्षेपबलसे कारकका अध्याहार सम्भव हो जाय। जहाँ 'प्रगृह्य' संज्ञा होनेके कारण प्रकृतिभाव प्राप्त हो, वहाँ विसंधित्व दोष नहीं माना गया है। जहाँ संधि कर देनेपर उच्चवारणमें कठिनाई आ जाय, वैसे दुर्वाच्य स्थलोंमें विसंधित्व दोषकारक नहीं है॥ १६-२७॥ 

'अनुप्रास' अलंकारकी योजनामें पदोंकी आवृत्ति तथा व्यस्त सम्बन्धता शुभ है। अर्थात् दोष न होकर गुण है। अर्थसंग्रहमें अर्थावृत्ति दोषकारक नहीं होती। वह व्युत्क्रम (क्रमोल्लङ्घन) आदि दोषोंसे भी लिप्त नहीं होती। उपमान और उपमेयमें विभक्ति, संज्ञा, लिङ्ग और वचनका भेद होनेपर भी वह तबतक दोषकारक नहीं माना जाता, जबतक कि बुद्धिमान् पुरुषोंको उससे उद्वेगका अनुभव नहीं होता। (उद्वेगजनकता ही दूषकताका बीज है।) वह न हो तो माने गये दोष भी दोषकारक नहीं समझे जाते। अनेककी एकसे और बहुतोंकी बहुतोंसे दी गयी उपमा शुभ मानी गयी है। (अर्थात् यदि सहृदयोंको उद्वेग न हो तो लिङ्ग वचनादिके भेद होनेपर भी दोष नहीं मानना चाहिये।) कविजनोंका परम्परानुमोदित सदाचार 'समय' कहा जाता है। जिसके द्वारा समस्त सिद्धान्तवादी निर्बाध संचरण करते हैं तथा जिसके ऊपर कुछ ही सिद्धान्तवादी चल पाते हैं- इस पक्षद्वयके कारण सामान्य द्वयक्ष आदि पृथक् पृथक् मन्त्र हो सकते हैं। अब कुमार कार्तिकेयजीने कात्यायनको जिसका उपदेश किया था, वह व्याकरण बतलाऊँगा ॥ ११-२८ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'एकाक्षराधिधान' नामक तीन सी अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४८ ॥

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