अग्नि पुराण तीन सौ पचीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 325 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ पचीसवाँ अध्याय - अंशकादिः
ईश्वर उवाच
रुद्राक्षकटकं धार्य्यं विषमं सुसमं दृढम् ।
एकत्रिपञ्चवदनं यथालाभन्तु धारयेत् ।। १ ।।
द्विचतुःषण्मुखं शस्तमव्रणं तीव्रकण्ठकं ।
दक्षवाहौ शिखादौ च धारयेच्चतुराननं ।। २ ।।
अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी अस्नातः स्नातको भवेत् ।
हैमी वा मुद्रिका धार्य्या शिवमन्त्रेण चार्च्च्य तु ।। ३ ।।
शिवः शिखा तथा ज्योतिः सवित्रश्चेतिगोचराः ।
गोचरन्तु कुलं ज्ञेयं तेन लक्षअयस्तु दीक्षइतः ।। ४ ।।
प्राजापत्यो महीपालः कपोतो ग्रन्थिकः शिवे ।
कुटिलाश्चैव वेतालाः पद्महंसाः शिखाकुले ।। ५ ।।
धृताराष्ट्रा बकाः काका गोपाला ज्योतिसंज्ञके ।
कुटिका सारठाश्चैव गुटिका दण्डिनोऽपरे ।। ६ ।।
सावित्री गोचरे चैवमेकैकस्तु चतुर्विधः ।
सिद्धाद्यंशकमाख्यास्ये येन मन्त्रः सुसिद्धिदः ।। ७ ।।
भूमौ तु मातृका लेख्याः कूटषण्डविवर्ज्जिताः ।
मन्त्राक्षराणि विश्लिष्य अनुस्वारं नयेत् पृथक् ।। ८ ।।
साधकस्य तु या संज्ञा तस्या विश्लेषणं चरेत् ।
मन्त्रस्यादौ तथा चान्ते साधकार्णानि योजयेत् ।। ९ ।।
सिद्धः साध्यः सुसिद्धोऽरिः संज्ञातो गणयेत् क्रमात् ।
मन्त्रस्यादौ तथा चान्ते सिद्धिदः स्याच्छतांशतः ।। १० ।।
सिद्धादिश्चान्तसिद्धिश्च तत्क्षणादेव सिध्यति ।
सुसुद्धादिः सुसिद्धान्तः सिद्धवत् परिकल्पयेत् ।। ११ ।।
अरिमादौ तथान्ते च दूरतः परिवर्ज्जयेत् ।
सिद्धः सुसिद्धश्चैकार्थे अरिः साध्यस्तथैव च ।। १२ ।।
आदौ सिद्धः स्थितो मन्त्रे तदन्ते तद्वदेव हि ।
मध्ये रिपुसहस्राणि न दोषाय भवन्ति हि ।। १३ ।।
मायाप्रसादप्रणवेनांशकः ख्यातमन्त्रके ।
ब्रह्मांशको ब्र्ह्मविद्या विष्ण्वङ्गो वैष्णवः स्मृतः ।। १४ ।।
रुद्रांशको भवेद्वीर इन्द्रांशश्चेश्वरप्रियः ।
नागांशो नागस्तब्धाक्षो यक्षांशो भूषणप्रियः ।। १५ ।।
गन्धर्व्वाशोऽतिगीतादि भीमांशो राक्षसांशकः ।
दैत्यांशः स्याद् युद्धकार्य्यो मानी विद्याधरांशकः ।। १६ ।।
पिशाचांशो मलाक्रान्तो मन्त्रं दद्यान्निरीक्ष्य च ।
मन्त्र एकात् फड़न्तः स्यात् विद्यापञ्चाशतावधि ।। १७ ।।
बाला विंशाक्षरान्ता च रुद्रा द्वाविंशगायुधा ।
तत ऊर्द्ध्वन्तु ये मन्त्रा वृद्वा यावच्छतत्रयं ।। १८ ।।
अकारादिहकारान्ताः क्रमात् पक्षौ सितासितौ ।
अनुस्वारविसर्गेण विना चैव स्वरा दश ।। १९ ।।
ह्रस्वाः शुक्ला दीर्घाः श्यामांस्तिथयः प्रतिपन्मुखाः ।
उदिते शान्तिकादीनि भ्रमिते वश्यकादिकम् ।। २० ।।
भ्रामिते सन्धयो द्वेषोच्चाटने स्तम्भनेऽस्तकम् ।
इहावाहे शान्तिकाद्यं पिङ्गले कर्षणादिकम् ।। २१ ।।
मारणोच्चाटनादीनि विषुवे पञ्चधा पृथक् ।
अधरस्य गृहे पृथ्वी ऊर्द्ध्वे तेजोऽन्तरा द्रवः ।। २२ ।।
रन्ध्रपार्श्वे बहिर्वायुः सर्वं व्याप्य महेश्वरः ।
स्तम्भनं पार्थिवे शान्तिर्ज्जले वश्यादि तेजसे ।। २३ ।।
वायौ स्याद् भ्रमणं शून्ये पुण्यं कालं समभ्यसेत् ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अंशकादिर्नांम पञ्चविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ पचीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 325 Chapter!-In Hindi
तीन सौ पचीसवाँ अध्याय - रुद्राक्ष-धारण, मन्त्रोंकी सिद्धादि संज्ञा तथा अंश आदिका विचार
महादेवजी कहते हैं- स्कन्द! शैव साधकको रुद्राक्षका कड़ा धारण करना चाहिये। रुद्राक्षोंकी संख्या विषम हो। उसका प्रत्येक मनका सब ओरसे सम और दृढ़ हो। रुद्राक्ष एकमुख, त्रिमुख या पञ्चमुख-जैसा भी मिल जाय, धारण करे। द्विमुख, चतुर्मुख तथा षण्मुख रुद्राक्ष भी प्रशस्त माना गया है। उसमें कोई क्षति या आघात न हो-वह फूटा या घुना न होना चाहिये। उसमें तीखे कण्टक होने चाहिये। दाहिनी बाँह तथा शिखा आदिमें चतुर्मुख रुद्राक्ष धारण करे। इससे अब्रह्मचारी भी ब्रह्मचारी तथा अस्नातक पुरुष भी स्नातक हो जाता है। अथवा शिव-मन्त्र की पूजा करके सोने की अँगूठी को दाहिने हाथ में धारण करे ॥ १-३॥
शिव, शिखा, ज्योति तथा सावित्र- ये चार 'गोचर' है। 'गोचर' का अर्थ 'कुल' समझना चाहिये। उसीसे दीक्षित पुरुषको लक्ष्य करना चाहिये। शिवकुलमें प्राजापत्य, महीपाल, कापोत तथा ग्रन्थिक ये चार गिने जाते हैं। कुटिल, वेताल, पद्म और हंस- ये चार 'शिखाकुल' में परिगणित होते हैं। धृतराष्ट्र, वक, काक और गोपाल- ये चार 'ज्योति' नामक कुलमें समझे जाते हैं। कुटिका, साठर, गुटिका तथा दण्डी- ये चार 'सावित्री-कुल' में गिने जाते हैं। इस प्रकार एक-एक कुलके चार-चार भेद हैं॥ ४-६ ॥
अब मैं 'सिद्ध' आदि अंशोंकी व्याख्या करता हूँ, जिससे मन्त्र उत्तम सिद्धिको देने वाला होता है। पृथ्वीपर कूटयन्त्ररहित मातृ का (अक्षर) लिखे। मन्त्राक्षरों को विलग विलग करके अनुस्वार को पृथक् ले जाय। साधकका भी जो नाम हो, उसके अक्षरोंको अलग-अलग करे। मन्त्रके आदि और अन्तमें साधक के नामाक्षर जोड़े। फिर सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध तथा अरि- इस संज्ञाके अनुसार अक्षरोंको क्रमशः गिने। मन्त्रके आदि तथा अन्तमें 'सिद्ध' हो तो वह शत-प्रतिशत सिद्धिदायक होता है। यदि आदि और अन्त दोनोंमें 'सिद्ध' (अक्षर) हों तो उस मन्त्रकी तत्काल सिद्धि होती है। यदि आदि और अन्तमें भी 'सुसिद्ध' हो तो उस मन्त्रको सिद्धवत् मान ले वह मन्त्र अनायास ही सिद्ध हो गया- ऐसा समझ ले। यदि आदि और अन्त दोनोंमें 'अरि' हो तो उस मन्त्रको दूरसे ही त्याग दे। 'सिद्ध' और 'सुसिद्ध'- एकार्थक हैं। 'अरि' और 'साध्य' भी एकसे ही हैं। यदि मन्त्रके आदि और अन्त अक्षरमें भी मन्त्र 'सिद्ध' हो और बीचमें सहस्रों 'रिपु' अक्षर हों तो भी वे दोषकारक नहीं होते हैं। मायाबीज, प्रसादबीज और प्रणवके योगसे विख्यात मन्त्रमें अंशक होते हैं। वे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्रके अंश हैं। ब्रह्माका अंश 'ब्रह्मविद्या' कहलाता है। विष्णुका अंश 'वैष्णव' कहा गया है। रुद्रांशक मन्त्र 'वीर' कहलाता है। इन्द्रांशक मन्त्र 'ईश्वरप्रिय' होता है। नागांश-मन्त्र नागोंकी भाँति स्तब्ध नेत्रवाला माना गया है। यक्षके अंशका मन्त्र 'भूषणप्रिय' होता है। गन्धर्वोके अंशका मन्त्र अत्यन्त गीत आदि चाहता है। भीमांश, राक्षसांश तथा दैत्यांश मन्त्र युद्ध करानेवाला होता है। विद्याधरोंके अंशका मन्त्र अभिमानी होता है। पिशाचर्चाश मन्त्र मलाक्रान्त होता है। मन्त्रका पूर्णतः निरीक्षण करके उपदेश देना चाहिये। एकाक्षरसे लेकर अनेक अक्षरोंतकके मन्त्रके अन्तमें यदि 'फट्'- यह पल्लव जुड़ा हो तो उसे 'मन्त्र' कहना चाहिये। पचास अक्षरोंतकके (फट्काररहित) मन्त्रकी 'विद्या' संज्ञा है।
बीस अक्षरोंतककी विद्याको 'बाला विद्या' कहते हैं। बीस अक्षरोंतक के 'अस्त्रान्त' मन्त्र को 'रुद्रा' कहा गया है। इस से ऊपर तीन सौ अक्षरोंतक के मन्त्र 'वृद्ध' कहे जाते हैं। अकारसे लेकर हकारतकके अक्षर मन्त्रमें होते हैं। मन्त्र में क्रमशः शुक्ल और कृष्ण- दो पक्ष होते हैं। अनुस्वार और विसर्गको छोड़कर दस स्वर होते हैं। ह्रस्वस्वर शुक्ल पक्ष तथा दीर्घस्वर कृष्णपक्ष हैं। ये ही प्रतिपदा आदि तिथियाँ हैं। उदयकाल में शान्ति क आदि कर्म करावे तथा भ्रमितकालमें वशीकरण आदि। भ्रमितकाल एवं दोनों संध्याओं में द्वेषण तथा उच्चाटन सम्बन्धी कर्म करे। स्तम्भनकर्मके लिये सूर्यास्त काल प्रशस्त है। इडा नाड़ी चलती हो तो शान्तिक आदि कर्म करे। पिङ्गला नाड़ी चलती हो तो आकर्षण सम्बन्धी कार्य करे। विषुवकालमें जब दोनों नाड़ियाँ समान भावसे स्थित हों, तब मारण, उच्चाटन आदि पाँच कर्म पृथक् पृथक् सिद्ध करे। तीन ताले गृहमें नीचेके तल्लेको 'पृथ्वी', बीचवालेको 'जल' तथा ऊपरवालेको 'तेज' कहते हैं। जहाँ-जहाँ रन्ध्र (छिद्र या गवाक्ष) है, वहाँ बाह्यपार्श्व में वायु और भीतरी पार्श्वमें आकाश है। पार्थिव अंशमें स्तम्भन, जलीय अंश में शान्ति कर्म तथा तैजस अंश में वशी करण आदि कर्म करे। वायु में भ्रमण तथा शून्य (आकाश) में पुण्यकर्म या पुण्यकाल का अभ्यास करे ॥ ७-२३॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अंशक आदिका कथन' नामक तीन सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२५ ॥
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