अग्नि पुराण तीन सौ पैंतालीसवाँ अध्याय - Agni Purana 345 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ पैंतालीसवाँ अध्याय - Agni Purana 345 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ पैंतालीसवाँ अध्याय - शब्दार्थालङ्काराः


अग्निरुवाच

शब्दार्थयोरलङ्कारो द्वावलङ्कुरुते समं ।
एकत्र निहितो हारः स्तनं ग्रीवामिव त्रियाः ।। १ ।।

प्रशस्तिः कान्तिरौचित्यं संक्षेपो यावदर्थता ।
अबिव्यक्तिरिति व्यक्तं षड्‌भेदास्तस्य जाग्रति ।। २ ।।

प्रशस्तिः परवन्मर्म्मद्रवीकरणकर्म्मणः ।
वाचो युक्तिर्द्विधा सा च प्रेमोक्तिस्तुतिभेदतः ।। ३ ।।

प्रेमोक्तिस्तुतिपर्य्यायौ प्रियोक्तिगुणकीर्त्तने ।
कान्तिः सर्व्वमनोरुच्यवाच्यवाचकसङ्गतिः ।। ४ ।।

यथा वस्तु तथा रीतिर्यथा वृत्तिस्तथा रसः ।
उर्ज्जस्विमृदुसन्दर्भादौचित्यमुपजायते ।। ५ ।।

संक्षेणो वाचकैरस्पैर्वहोरर्थस्य संग्रहः ।
अन्यूनाधिकता शब्दवस्तुनोर्यावदर्थता ।। ६ ।।

प्रकटत्वमभिव्यक्तिः श्रुतिराक्षेप इत्यपि ।
तस्या भेदौ श्रुतिस्तत्र शब्दं स्वार्थसमर्पणम् ।। ७ ।।

भवेन्नैमित्तिकी पारिभाषिकी द्विविधैव सा ।
सङ्केतः परिभाषेति ततः स्यात् पारिभाषिकी ।। ८ ।।

मुख्यौपचारिकी चेति सा च सा च द्विधा द्विधा ।
स्वाभिधेयस्खलद्‌वृत्तिरमुख्यार्थस्य वाचकः ।। ९ ।।

यया शब्दो निमित्तेन केनचित्सौपचारिकी ।
सा च लाक्षणिकी गौणी लक्षणागुणयोगतः ।। १० ।।

अभिधेयाविनाभूता प्रतीतिर्ल्लक्षणोच्यते ।
अभिधेयेन सम्बन्धात्सामीप्यात्समवायतः ।। ११ ।।

वैपरीत्यात्‌क्रियायोगाल्लक्षणा पञ्चधा मता ।
गौणीगुणानामानन्त्यादनन्ता तद्विवक्षया ।। १२ ।।

अन्यधर्म्मस्ततोऽन्यत्र लोकसीमानुरोधिना ।
सम्यगाधीयते यत्र स समाधिरिह स्मृतः ।। १३ ।।

श्रुतेरलभ्यमानोऽर्थो यस्माद्भाति सचेतनः ।
स आक्षएपो ध्वनिः स्याच्च ध्वनिना व्यज्यते यतः ।। १४ ।।

शब्देनार्थेन यत्रार्थः कृत्वा स्वयमुपार्जनम् ।
प्रतिषेध इवेष्टस्य यो विशेषोऽभिधित्सया ।। १५ ।।

तमाक्षेपं ब्रुवन्त्यत्र स्तुतं स्तोत्रमिदं पुनः ।
अधिकारादपेतस्य वस्तुनोऽन्यस्य या स्तुतिः ।। १६ ।।

यत्रोक्तं गम्यते नार्थस्तत्‌समानविशेषणं ।
सा समासोक्तिरुदिता सङ्‌क्षेपार्थतया बुधैः ।। १७ ।।

अपह्नुतिरपह्नुत्य किञ्चिदन्यार्थसूचनम् ।
पर्य्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते ।। १८ ।।

एषामेकंतमस्येव समाख्या ध्वनिरित्यतः ।। १९ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अलङ्कारे शब्दार्थालङ्कारनिरूपणं नाम पञ्चचत्वारिशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ पैंतालीसवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 345 Chapter In Hindi

तीन सौ पैंतालीसवाँ अध्याय - शब्दार्थोभयालंकार

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! 'शब्दार्थालंकार शब्द और अर्थ दोनोंको समानरूपसे अलंकृत करता है; जैसे एक ही अङ्गमें धारण किया हुआ हार कामिनीके कण्ठ एवं कुचमण्डलकी कान्तिको बढ़ा देता है। 'शब्दार्थालंकार' के छः भेद काव्यमें उपलब्ध होते हैं- प्रशस्ति, कान्ति, औचित्य, संक्षेप, यावदर्थता तथा अभिव्यक्ति। दूसरोंके मर्मस्थलको द्रवीभूत करनेवाले वाक् कौशलको 'प्रशस्ति' कहते हैं। वह प्रशस्ति 'प्रेमोक्ति' एवं 'स्तुति' के भेदसे दो प्रकारकी मानी गयी है। प्रेमोक्ति और स्तुतिके पर्यायवाचक शब्द क्रमशः 'प्रियोक्ति' एवं 'गुण-कीर्तन' हैं। वाच्य वाचक की सर्वसम्मत एवं रुचिकर संगतिको 'कान्ति' कहते हैं। यदि ओज एवं माधुर्ययुक्त संदर्भमें - वस्तुके अनुसार रीति एवं वृत्तिके अनुसार रसका प्रयोग हो तो औचित्यका प्रादुर्भाव होता है। 

अल्पसंख्यक शब्दोंसे अर्थ-बाहुल्यका संग्रह 'संक्षेप' तथा शब्द एवं वस्तुका अन्यूनाधिक्य 'यावदर्थता' कहा जाता है। अर्थ-प्राकट्यको 'अभिव्यक्ति' कहते हैं। उसके दो भेद हैं' श्रुति' और 'आक्षेप'। शब्दके द्वारा अपने अर्थका उ‌द्घाटन 'श्रुति' कहा जाता है। श्रुतिके दो भेद हैं- 'नैमित्तिकी' और 'पारिभाषिकी'। 'संकेत' को परिभाषा कहते हैं। परिभाषाके सम्बन्धसे ही वह पारिभाषिकी है। पारिभाषिकीको 'मुख्या' और नैमित्तिकीको 'औपचारिकी' कहते हैं। [ये ही क्रमशः 'अभिधा' और 'लक्षणा' हैं।] उस औपचारिकीके भी दो भेद हैं। जिसके द्वारा अभिधेय अर्थसे स्खलित हुआ शब्द किसी निमित्तवश अमुख्य अर्थका बोधक होता है, वह वृत्ति 'औपचारिकी' है। ये ही दोनों भेद नैमित्तिकोके भी होते हैं। वह लक्षणायोगसे 'लाक्षणिकी' और गुणयोगसे 'गौणी' कहलाती है। अभिधेय अर्थके साथ सम्बद्ध रहकर जो अन्यार्थकी प्रतीति होती है, उसको 'लक्षणा' कहते हैं। अभिधेयके साथ सम्बन्ध, सामीप्य, समवाय, वैपरीत्य एवं क्रियायोगसे लक्षणा पाँच प्रकारको मानी जाती है। गुणोंकी अनन्तता होनेसे उनकी विवक्षाके कारण गौणीके अनन्त भेद हो जाते हैं। 

लोकसीमाके पालनमें तत्पर कविद्वारा जब अप्रस्तुत वस्तुके धर्म प्रस्तुत वस्तुपर सम्यग्रूपसे आहित आरोपित किये जाते हैं, तब उसे 'समाधि" कहते हैं। जिसके द्वारा श्रुतिसे अनुपलब्ध अर्थ चैतन्ययुक्त होकर भासित होता है, वह 'आक्षेप कहा जाता है। इसको 'ध्वनि' भी माना गया है; क्योंकि वह ध्वनिसे ही व्यक्त होता है। इसमें ध्वनिके आश्रयसे शब्द और अर्थके द्वारा स्वतः संकलित अर्थ ही व्यञ्जित होता है। अभीष्ट कचनका विशेष विवक्षासे अर्थात् उसमें और भी उत्कर्षकी प्रतीति करानेके लिये जो प्रतिषेध-सा होता है, उसको 'आक्षेप" कहते हैं। अधिकार (प्रकरण) से पृथक्, अर्थात् अप्रकृत या अप्रस्तुत अन्य वस्तुकी जो स्तुति की जाती है, उसे 'अस्तुतस्तोत्र (अप्रस्तुतप्रशंसा) कहते हैं। जहाँ किसी एक वस्तुके कहनेपर उसके समान विशेषणवाले दूसरे अर्थकी प्रतीति हो, उसे विद्वान् पुरुष अर्थको संक्षिप्तताके कारण 'समासोक्ति कहते हैं। वास्तविक पदार्थका अपलाप या निषेध करके किसी अन्य पदार्थको सूचित करना 'अपनुति" है। जो अभिधेय दूसरे प्रकारसे कहा जाता है अर्थात् सीधे न कहकर प्रकारान्तरसे घुमा-फिराकर प्रस्तुत किया जाता है, उसको 'पर्यायोक्ति कहते हैं। इनमेंसे किसी भी एकका नाम 'ध्वनि" है ॥ १-१८ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'शब्दार्थोभयालंकारोंका कथन' नामक तीन सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४५ ॥

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