अग्नि पुराण तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 336 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 336 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय  - शिक्षानिरूपणम्

अग्निरुवाच

वक्ष्ये शिक्षान्त्रिषष्टिः स्युर्वर्णा वा चतुराधिकाः ।
स्वरा विंशतिरेकश्च स्पर्शानां पञ्चविंशतिः ।। १ ।।

यादयश्च स्मृता ह्यष्टौ चत्वारश्च समाः स्मृताः ।
अनुस्वारो विसर्गश्च ᳲ क ᳲ पौ चापि परान्वितौ ।। २ ।।

दुष्पृष्ठश्चेति विज्ञेया लृकारः प्लुत एव च ।
रङ्गश्च खे अरं प्रोक्तं हकारः पञ्चमैर्युतः ।। ३ ।।

अन्तस्थाभिः समायुक्त औरस्यः कण्ठ्य एव सः ।
आत्मबुद्ध्या समेसार्थं मनो युंक्ते विवक्षया ।। ४ ।।

मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ।
मारुतस्तूरसि चरन् मन्त्रं जनयति स्वरं ।। ५ ।।

प्रातः सवनयोगस्तु छन्दो गायत्रमाश्रितम् ।
कण्ठे माध्यन्दिनयुतं मध्यमन्त्रेषु भानुगम् ।। ६ ।।

तारन्तार्त्तीयसवनं शीर्षण्यं जागतानुगम् ।
सोदीर्णो मूर्ध्न्यभिहितो वक्रमापद्य मारुतः ।। ७ ।।

वर्णान् जनयते तेषां विभागः पञ्चधा स्मृतः ।
स्वरतः कालतः स्थानात् प्रयत्नार्थप्रदानतः ।। ८ ।।

अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा ।
जिह्वामूलञ्च दन्ताश्च नासिकौष्ठौ च तालु च ।। ९ ।।

स्वभावश्च विवृत्तिश्च शषसा रेफ एव च ।
जिह्वामूलमुपध्मा च गतिरष्टविधोष्मणः ।। १० ।।

पद्यो भावप्रसन्धानमुकारादि परम्पदं ।
स्वरान्तं तादृशं विद्याद्यादन्यद्व्यक्तमूष्मणः ।। ११ ।।

ऊतीर्थादागतं दग्धमप्रवर्णञ्च भक्षितं ।
एवमुच्चारणं पापमेवमुच्चारणं शुभम् ।। १२ ।।

अतीर्थादागतं द्रव्यं साम्नायं सुव्यवस्थितं ।
सुस्वरेण सुवक्त्रेण प्रयुक्तं ब्रह्मराजनि ।। १३ ।।

न करालो न लम्वोष्ठो नाव्यक्ता नानुनासिकः ।
गद्गदो बहुजिह्वश्च न वर्णान् वक्तुमर्हति ।। १४ ।।

एवं वर्णाः प्रयोक्तव्या नाव्यक्ता न च पीड़िताः ।
सम्यग्वर्णप्र्योगेण ब्रह्मलोके महीयते ।। १५ ।।

उदात्तश्चानुदात्तश्च स्वरितश्च स्वरास्त्रयः ।
ह्रस्वो दीर्घः प्लुत इति कालतो नियमावधि ।। १६ ।।

कण्ठ्या वहाविचुयशास्तालव्या ओष्ठजा वुपु ।
स्युर्मूर्द्धन्या ऋटुरसाः दन्त्याः लृतुलसाः स्मृताः ।। १७ ।।

जिह्वामूले तु कुः प्रोक्तो दन्त्योष्ठो वः स्मृतो बुधैः ।
एदैतौ कण्ठतालव्यौ ओ औ कण्ठ्यौष्ठजौ स्मृतौ ।। १८ ।।

अर्द्धमात्रा तु कण्ठस्य एकारैकारयोर्भवेत् ।
अयोगवाहा विज्ञेया आश्रयस्थानभागिनः ।। १९ ।।

अचोऽस्पृष्टापणस्त्वीषन्नोमाः स्पृष्टा हलः स्मृताः ।
शेषाः स्पृष्टा हलः प्रोक्ता निबोधात्र प्रधानतः ।। २० ।।

अमोऽनुनासिकानक्रौ नादिमौ हसपः स्मृता ।
ईषन्नादोपणयशः स्वासिनश्च थकादयः ।। २१ ।।

ईषच्छासं स्वरं विद्याद्दीर्घमेतत् प्रचक्षते ।। २२ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये शिक्षानिरूपणं नाम षट्‌त्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 336 Chapter!-In Hindi

तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय शिक्षानिरूपण

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ। अब मैं 'शिक्षा'का वर्णन करता हूँ। वर्णोंकी संख्या तिरसठ अथवा चौंसठ भी मानी गयी है। इनमें इक्कीस स्वर, पचीस स्पर्श, आठ यादि एवं चार यम' माने गये हैं। अनुस्वार, विसर्ग, दो पराश्रितः वर्ण-जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय ( : क और प) और दुःस्पृष्ट लकार- ये तिरसठ वर्ण हैं। इनमें प्लुत लुकारको और गिन लिया जाय तो वर्षोंकी संख्या चौंसठ हो जाती है। रङ्ग (अनुनासिक) का उच्चारण 'खे अराँ'की तरह बताया गया है। हकार 'ङ' आदि पश्चमाक्षरों और य, र, ल, व-इन अन्तःस्थ वर्षोंसे संयुक्त होनेपर 'उरस्य' हो जाता है। इनसे संयुक्त न होनेपर वह 'कण्ठस्थानीय' ही रहता है। आत्मा (अन्तः करणावच्छिन्न चैतन्य) संस्काररूपसे अपने भीतर विद्यमान घट-पटादि पदार्थोंको अपनी बुद्धिवृत्तिसे संयुक्त करके अर्थात् उन्हें एक बुद्धिका विषय बनाकर बोलने या दूसरोंपर प्रकट करनेकी इच्छासे मनको उनसे संयुक्त करता है। संयुक्त हुआ मन कायाग्नि-जठराग्निको आहत करता है। फिर वह जठरानल प्राणवायुको प्रेरित करता है। 

वह प्राणवायु हृदयदेशमें विचरता हुआ धीमी ध्वनिमें उस प्रसिद्ध स्वरको उत्पन्न करता है, जो प्रातः सवनकर्मके साधनभूत मन्त्रके लिये उपयोगी है तथा जो 'गायत्री' नामक छन्दके आश्रित है। तदनन्तर वह प्राणवायु कण्ठदेशमें भ्रमण करता हुआ 'त्रिष्टुप् छन्दसे युक्त माध्यंदिन सवन कर्मसाधन मन्त्रोपयोगी मध्यम स्वरको उत्पन्न करता है। इसके बाद उक्त प्राणवायु शिरोदेशमें पहुँचकर उच्चध्वनिसे युक्त एवं 'जगती' छन्दके आश्रित सायं-सवन-कर्मसाधन मन्त्रोपयोगी स्वरको प्रकट करता है। इस प्रकार ऊपरकी ओर प्रेरित वह प्राण, मूर्धामें टकराकर अभिघात नामक संयोगका आश्रय बनकर, मुखवर्ती कण्ठादि स्थानोंमें पहुँचकर वर्णोंको उत्पन्न करता है। उन वर्षोंके पाँच प्रकारसे विभाग माने गये हैं। स्वरसे, कालसे, स्थानसे, आभ्यन्तर प्रयत्नसे तथा वाह्य प्रयत्नसे उन वर्षोंमें भेद होता है। वर्णांके उच्चारण-स्थान आठ हैं-हृदय, कण्ठ, मूर्धा, जिह्वामूल, दन्त, नासिका, ओष्ठद्वय तथा तालु। 

विसर्गका अभाव, विवर्तन', संधिका अभाव, शकारादेश, षकारादेश, सकारादेश, रेफादेश, जिह्वामूलीयत्व और उपध्मानीयत्व - ये 'ऊष्मा' वर्षोंकी आठ प्रकारकी गतियाँ हैं। जिस उत्तरवर्ती पदमें आदि अक्षर 'उकार' हो, वहाँ गुण आदिके द्वारा यदि 'ओ' भावका प्रसंधान (परिज्ञान) हो रहा हो, तो उस 'ओकार' को स्वरान्त अर्थात् स्वर-स्थानीय जानना चाहिये। जैसे- 'गङ्गोदकम्'। इस पदमें जो 'ओ' भावका प्रसंधान है, वह स्वरस्थानीय है। इससे भिन्न संधिस्थलमें जो 'ओभाव'का परिज्ञान होता है, वह 'ओ' भाव ऊष्माका ही गतिविशेष है, यह बात स्पष्टरूपसे जान लेनी चाहिये। जैसे- 'शिवो वन्द्यः' इसमें जो ओकारका श्रवण होता है, वह ऊष्मस्थानीय ही है। (यह निर्णय किसी अन्य व्याकरणकी रीतिसे किया गया है, ऐसा जान पड़ता है।) जो वेदाध्ययन कुतीर्थसे प्राप्त हुआ है, अर्थात् आचारहीन गुरुसे ग्रहण किया गया है, वह दग्ध नीरस-सा होता है। उसमें अक्षरोंको खींच तानकर हठात् किसी अर्थतक पहुँचाया गया है। वह भक्षित-सा हो गया है, अर्थात् सम्प्रदाय-सिद्ध गुरुसे अध्ययन न करनेके कारण वह अभक्ष्य-भक्षणके समान निस्तेज है। इस तरहका उच्चारण या पठन पाप माना गया है। इसके विपरीत जो सम्प्रदायसिद्ध गुरुसे अध्ययन किया जाता है, तदनुसार पठन- पाठन शुभ होता है। 

जो उत्तम तीर्थ- सदाचारी गुरुसे पढ़ा गया है, सुस्पष्ट उच्चारणसे युक्त है, सम्प्रदायशुद्ध है, सुव्यवस्थित है, उदात्त आदि शुद्ध स्वरसे तथा कण्ठ ताल्वादि शुद्ध स्थानसे प्रयुक्त हुआ है, वह वेदाध्ययन शोभित होता है। न तो विकराल आकृतिवाला, न लंबे ओठोंवाला, न अव्यक्त उच्चारण करनेवाला, न नाकसे बोलनेवाला एवं न गद्गद कण्ठ या जिह्वाबन्धसे युक्त मनुष्य ही वर्णोच्चारणमें समर्थ होता है। जैसे व्याघ्री अपने बच्चोंको दाढ़ोंसे पकड़कर एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाती है, किंतु उन्हें पीड़ा नहीं देती, वर्षोंका ठीक इसी तरह प्रयोग करे, जिससे वे वर्णं न तो अव्यक्त (अस्पष्ट) हों और न पीड़ित ही हों। वर्षोंके सम्यक् प्रयोगसे मानव ब्रह्मलोकमें पूजित होता है। 'स्वर' तीन प्रकारके माने गये हैं-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। इनके उच्चारणकालके भी तीन नियम हैं- ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत। अकार एवं हकार कण्ठस्थानीय हैं। इकार, चवर्ग, यकार एवं शकार- ये तालुस्थानसे उच्चरित होते हैं। उकार और पवर्ग- ये दोनों ओष्ठस्थानसे उच्चरित होनेवाले हैं। ऋकार, टवर्ग, रेफ एवं षकार-ये मूर्धन्य तथा लुकार, तवर्ग, लकार और सकार ये दन्तस्थानीय होते हैं। कवर्गका स्थान जिह्वामूल है। 

वकारको विद्वज्जन दन्त और ओष्ठसे उच्चरित होनेवाला बताते हैं। एकार और ऐकार कण्ठ-तालव्य तथा ओकार एवं औकार कण्ठोष्ठज माने गये हैं। एकार, ऐकार तथा ओकार और औकारमें कण्ठस्थानीय वर्ण अकारकी आधी मात्रा या एक मात्रा होती है। 'अयोगवाह आश्रयस्थानके भागी होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। अच् (अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ओ, ऐ, औं) ये स्वर स्पर्शाभावरूप 'विवृत' प्रयत्नवाले हैं। यण् (य, व, र, ल) 'ईषत्स्पृष्ट' एवं शल् (श, ष, स, ह) 'अर्धस्पृष्ट' अर्थात् 'ईषद्विवृत' प्रयत्नवाले हैं। शेष 'हल्' अर्थात् क से लेकर म तकके अक्षर 'स्पृष्ट प्रयत्नवाले' माने गये हैं। इनमें बाह्य प्रयत्नके कारण वर्णभेद जानना चाहिये 'जम्' प्रत्याहारमें स्थित वर्ण (ज, म, ङ, ण, न) अनुनासिक होते हैं। हकार और रेफ अनुनासिक नहीं होते। 'हकार, झकार तथा चकार 'के 'संवार', 'घोष' और 'नाद' प्रयत्न हैं। 'यण' और 'जश्' इनके 'ईषत्राद' अर्थात् 'अल्पप्राण' प्रयत्न हैं। ख, फ आदिका 'विवार', 'अघोष' और 'श्वास' प्रयत्न हैं। चर् (च, ट, त, क, प, श, ष, स) का 'ईषच्छ्‌वास' प्रयत्न जानना चाहिये। यह व्याकरणशास्त्र वाणीका धाम कहा जाता है॥ १-२२॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'शिक्षानिरूपण' नामक तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३६ ॥

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