अग्नि पुराण तीन सौ तेईसवाँ अध्याय ! Agni Purana 323 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ तेईसवाँ अध्याय ! Agni Purana 323 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ तेईसवाँ अध्याय - षडङ्गान्यघोरास्त्राणि

ईश्वर उवाच

ओं ह्रूँ हंसइति मन्त्रेण मृत्युरोगादि शाम्यति ।
लक्षाहुतिभिर्दूर्व्वाभिः शान्ति पुष्टि प्रसाधयेत् ।। १ ।।

अथ वा प्रणवेनैव मायया वा षड़ानन ।
दिव्यान्तरीक्षभौमानां शान्तिरुत्पातवृक्षके ।। २ ।।

ओं नमो भगवति गङ्गे कालि महाकालि मांसशोणितभोजने रक्तकृष्णमुखि
वशमानय मानुषान् स्वाहा ।।
ओं लक्षं जप्त्वा दशांशेन हुत्वा स्यात् सर्वकर्म्मकृत् ।
वशं नयति शक्रादीन्मानुषेष्वेषु का कथा ।। ३ ।।

अन्तर्द्धानकरी विद्या मोहनी जृम्भनी तथा ।
वशन्नयति शत्रूणां शत्रुबुद्धिप्रमोहिनी ।। ४ ।।

कामधेनुरियं विद्या सप्तधा परिकीर्त्तिता ।
मन्त्रराजं प्रवक्ष्यामि शत्रुचौरादिमोहनम् ।। ५ ।।

महाभयेषु सर्व्वषु स्मर्त्तव्यं हरपूजितं ।
लक्षं जप्त्तवा तिलैर्हो मः सिद्ध्येदुद्धरारकं श्रृणु ।। ६ ।।

ओं हले शूले एहि ब्रह्मसत्येन विष्णुसत्येन रुद्रसत्येन रक्ष मां वाचेश्वराय स्वाहा ।।
दुर्गात्तारयते यस्मात्तेन दुर्गा शिवा मता ।
ओं चण्डकपालिनि दन्तान् किटि क्षिटि गुह्ये फट् ह्रीँ ।
अनेन मन्त्रराजेन क्षालयित्वा तु तण्डुलान् ।। ७ ।।

त्रिशद्वारानि जप्तानि तच्चौरेषु प्रदापयेत् ।
दन्तैशचूर्णानि शुक्लानि पतितानि हि शुद्धये ।। ८ ।।

ओं ज्वलल्लोचन कपिलजटाभारभास्वर विद्रावण त्रैलोक्यडामर दर भ्रम
आकट्ट तोटय मोटय दह पट एवं सिद्धिरुद्रो ज्ञापयति यदि
ग्रहोपगतः स्वर्गल्लोकं देवलोकं वा आरामविहाराचलं तथापि तमावर्त्तयिष्यामि बलिं
गृह्ण ददामि ते स्वाहेत् ।
क्षेत्रपालबलिं दत्वा ग्र्हो न्यासाद्‌ह्रदं व्रजेत् ।
शत्रवो नाशमायान्ति रणे वैरगणक्षयः ।। ९ ।।

हंसबीजन्तु विन्यस्य विषन्तु त्रिविधं हरेत् ।
अगुरुञ्चन्दनं कुष्ठं कुङ्कुमं नागकेशरम् ।। १० ।।

नखं वै देवदारुञ्च समं कृत्वाथ धूपकः ।
माक्षइकेन समायुक्तो देहवस्त्रादिधूपनात् ।। ११ ।।

विवादे मोहने स्त्रीणं मण्डने कलहे शुभः ।
कन्याया वरणे भाग्ये मायामन्त्रेण मन्त्रितः ।। १२ ।।

ह्रीँ रोचनानागपुष्पाणि कुङ्कुमञ्च मनःशिला ।
ललाटे तिलकं कृत्वा यं पश्येत्स वशी भवेत् ।। १३ ।।

शतावर्य्यास्तु चूर्णन्तु दुग्धपीतञ्च पुत्रकृत् ।
नागकेशरचूर्णन्तु घृतपक्कन्तु पुत्र्कृत् ।। १४ ।।

पालाशवीजपानेन लभेत पुत्रकन्तथा ।
ओं उत्तिष्ठ चामुण्डे जम्भय मोहय अमुकं वशमानय स्वाहा ।
षड्‌विंशा सिद्धविद्या सा नदीतीरमृता श्रियम् ।। १५ ।।

कृत्वोन्मत्तरसेनैव नामालिख्मार्कपत्रके ।
मूत्रोत्सर्गन्ततः कृत्वा जपेत्तामानेयेत्तस्त्रियम् ।। १६ ।।

ओं क्षुंसः वषट् ।
मद्वामृत्युञ्जयो मन्त्रो जप्याद्धोमाच्च पुष्टिकृत् ।
ओं हंसः ह्रूँ हूं स ह्नः सौः ।
मृतसञ्जीवनी विद्या अष्टार्णा जयकृद्रणे ।। १७ ।।

मन्त्रा ईशानमुख्याश्च धर्म्मकामादिदायकाः ।
ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ।। १८ ।।

ब्रह्माणश्चाधिपतिर्ब्रह्म शिवो मेऽस्तु सदाशिवः ।
ओं तत्पुरुषाय शिद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।
ओं अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरहरेभ्यस्तु सर्वतः ।। १९ ।।

सर्व्वेभ्यो नमस्ते रुद्ररूपेभ्यः । ओं वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः रुद्राय नमः ।
कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलप्रमथनाय नमः ।
सर्व्वभूतदमनाय नमो मनोन्मानाय नमः ।
ओं सद्योजातं प्रवक्ष्यामि सद्योजाताय वै नमः ।
भवे भवेऽनादिभवे भजस्व मां भवोद्‌भव ।। २० ।।

पञ्चब्रह्माङ्गष्ट्‌कञ्च२ वक्ष्येऽहं भुक्तिमुक्तिदं ।
ओं नमः परमात्मने पराय कामदाय परमेश्वराय योगाय वोगसम्भिवाय सर्व्वकराय
कुरु सत्य भव भवोद्भव वामदेव सर्व्वकार्य्यकर पापप्रशमन सदाशिव
प्रसन्न नमोऽस्तु ते स्वाहा ।।

हृदयं सर्व्वार्थदन्तु सप्तत्यक्षरसंयुतं ।
ओं शिवः शिवाय नमः शिवः । ओं हृदये ज्वालिनि स्वाहा शिखा । ओं शिवात्मक
महातेजः सर्व्वज्ञ प्रभुरावर्त्तय महाघोर कवच पिङ्गल नमः । महाकवच शिवाज्ञया
हृदयं बन्ध घूर्णय चूर्णय सूक्ष्मवज्रवर वज्रपाश धनुर्वज्राशनिवज्रशरीर मम
शरीरमनुप्रविश्य सर्व्वदुष्टान् स्तम्भय हूँ ।
अक्षराणान्तु कवचं शतं पञ्चाक्षराधिकम् ।। २१ ।।

ओं ओजसे नेत्रं ओं प्रस्फुर तनुरूप चट प्रचट कट वम घातय हुँ फट् अघोरास्त्रम् ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये षडङ्गन्यघोरास्त्राणि नाम त्रयोविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ तेईसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 323 Chapter!-In Hindi

तीन सौ तेईसवाँ अध्याय गङ्गा-मन्त्र, शिवमन्त्रराज, चण्डकपालिनी-मन्त्र, क्षेत्रपाल-बीजमन्त्र, सिद्धविद्या, महामृत्युंजय, मृतसंजीवनी, ईशानादि मन्त्र तथा इनके छः अङ्ग एवं अघोरास्त्रका कथन

महादेवजी कहते हैं- स्कन्द ! 'ॐ हूं हं सः' इस मन्त्रसे मृत्युरोग आदि शान्त हो जाते हैं। इस मन्त्रद्वारा दूर्वाकी एक लाख आहुतियाँ दी जायें तो उससे साधक शान्ति तथा पुष्टिका भी साधन कर सकता है। षडानन! अथवा केवल प्रणव (ॐ) अथवा माया (हीं) के जपसे ही दिव्य, अन्तरिक्षगत तथा भूमिगत उत्पातोंकी शान्ति होती है। उत्पातवृक्षके शमनका भी यही उपाय है॥ १-२॥

(गङ्गा-सम्बन्धी वशीकरणमन्त्र) 'ॐ नमो भगवति गङ्गे कालि कालि महाकालि महाकालि मांसशोणितभोजने रक्तकृष्णमुखि वशमानय मानुषान् स्वाहा।'-

इस मन्त्रका एक लाख जप करके दशांश आहुति देकर मनुष्य सम्पूर्ण कर्मोंमें सिद्धि पा सकता है। इन्द्र आदि देवताओंको भी वशमें ला सकता है, फिर इन साधारण मनुष्योंको वशमें लाना कौन बड़ी बात है? यह विद्या अन्तर्धानकरी, मोहनी, जुम्भनी, शत्रुओंको वशमें लानेवाली तथा शत्रुकी बुद्धिको मोहमें डाल देनेवाली है। यह कामधेनुविद्या सात प्रकारको कही गयी है॥३-५॥

अब मैं 'मन्त्रराज'का वर्णन करूँगा, जो शत्रुओं तथा चोर आदिको मोह लेनेवाला है। यह साक्षात् शिव (मेरे) द्वारा पूजित है। इसका सभी महान् भयके अवसरोंपर स्मरण करना चाहिये। एक लाख जप करके तिलोंद्वारा हवन करनेसे यह मन्त्र सिद्ध होता है। अब इसका उद्धार सुनो ॥ ६-७॥

'ॐ हले शूले एहि ब्रहासत्येन विष्णुसत्येन रुद्रसत्येन रक्ष मां वाचेश्वराय स्वाहा' ॥ ८॥

भगवती शिवा दुर्गम संकटसे तारती - उद्धार करती है, इसलिये 'दुर्गा' मानी गयी है॥ ९॥ 'ॐ ह्रीं चण्डकपालिनि दन्तान् किट किट झिट क्षिट गुह्ये फट् हीम् ॥ १०॥

- इस मन्त्रराजके जपपूर्वक चावल धोकर उसको इस मन्त्रके तीस बार जपद्वारा अभिमन्त्रित करे। फिर वह चावल चोरोंमें बँटवा दे। उस चावलको दाँतोंसे चबानेपर उनके श्वेत दन्त गिर जाते हैं तथा वे मनुष्य चोरीके पापसे मुक्त एवं शुद्ध हो जाते हैं॥ ११-१२॥

(क्षेत्रपालबलि-मन्त्र)

'ॐ ज्वलल्लोचन कपिलजटाभारभास्वर विद्रावण त्रैलोक्यडामर डामर दर दर भ्रम भ्रम आकड्डू आकड्डू तोटय तोटय मोटय मोटय दह दह पच पच एवं सिद्धिरुद्रो ज्ञापयति यदि ग्रहोऽपगतः स्वर्गलोकं देवलोकं वाऽऽरामविहाराचलं तथापि तमावर्तयिष्यामि बलिं गृह्न गृह ददामि ते स्वाहा। इति ॥ १३॥

- इस मन्त्रसे क्षेत्रपालको बलि देकर न्यास करनेसे अनिष्ट ग्रह रोता हुआ चला जाता है। साधकके शत्रु नष्ट हो जाते हैं तथा रणभूमिमें शत्रु समुदायका विनाश हो जाता है॥ १४॥

'हंस' बीजका न्यास करके साधक तीन प्रकारके विष अथवा विघ्नका निवारण कर देता है। अगुरु, चन्दन, कुष्ठ (कूट), कुङ्कुम, नागकेसर, नख तथा देवदारु इन सबको सममात्रामें कूट- पीसकर धूप बना ले। फिर इसमें मधुमक्खीके शहदका योग कर दे। उसकी सुगन्धसे शरीर तथा वस्त्र आदिको धूपित या वासित करनेसे मनुष्य विवाद, स्त्रीमोहन, श्रृंगार तथा कलह आदिके अवसरपर शुभ फलका भागी होता है। कन्यावरण तथा भाग्योदय सम्बन्धी कार्यमें भी उसे सफलता प्राप्त होती है। मायामन्त्र (ह्रीं)- से मन्त्रित हो, रोचना, नागकेसर, कु‌कुम तथा मैनसिलका तिलक ललाटमें लगाकर मनुष्य जिसकी ओर देखता है, वही उसके वशमें हो जाता है। शतावरीके चूर्णको दूधके साथ पोया जाय तो वह पुत्रकी उत्पत्ति करानेवाला होता है। नागकेसरके चूर्णको घीमें पकाकर खाया जाय तो वह भी पुत्रकारक होता है। पलाशके बीजको पीसकर पीनेसे भी पुत्रकी प्राप्ति होती है ॥ १५-२० ॥

(वशीकरणके लिये सिद्ध-विद्या)

ॐ उत्तिष्ठ चामुण्डे जम्भय जम्भय मोहय मोहय (अमुकं) वशमानय स्वाहा' ।॥ २१ ॥

- यह छब्बीस अक्षरोंवाली 'सिद्ध-विद्या' है। (यदि किसी स्त्रीको वशमें करना हो तो) नदीके तीरकी मिट्टीसे लक्ष्मीजीकी मूर्ति बनाकर धतूरके रससे मदारके पत्तेपर उस अभीष्ट स्त्रीका नाम लिखे। इसके बाद मूत्रोत्सर्ग करनेके पश्चात् शुद्ध हो उक्त मन्त्रका जप करे। यह प्रयोग अभीष्ट स्त्रीको अवश्य वशमें ला सकता है ॥ २२-२३॥

(महामृत्युंजय)

'ॐ जूं सः वषट्' ।॥ २४॥ 

- यह 'महामृत्युंजय मन्त्र' है, जो जप तथा होमसे पुष्टिकारक होता है ॥ २५॥

(मृतसंजीवनी)

'ॐ हं सः हूं हूं सः, हः सौः ॥ २६ ॥ - यह आठ अक्षरवाली 'मृतसंजीवनी-विद्या'

है, जो रणभूमिमें विजय दिलानेवाली है। 'ईशान' आदि मन्त्र भी धर्म-काम आदिको देनेवाले हैं॥ २७ ॥

(ईशान आदि मन्त्र)

(ॐ) ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ॥ २८ ॥

(ॐ) तत्पुरुषाय विद्यहे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ २९ ॥

(ॐ) अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वतः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ३० ॥

(ॐ) वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥ ३१ ॥

(ॐ) सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमो भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥ ३२॥

अब मैं 'पञ्चब्रह्म' के छः अङ्गङ्गेका वर्णन करूँगा, जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है॥ ३३ ॥

(ॐ) नमः परमात्मने पराय कामदाय परमेश्वराय योगाय योगसम्भवाय सर्वकराय कुरु कुरु सद्य सद्य भव भव भवोद्भव वामदेव सर्वकार्यकर पापप्रशमन सदाशिव प्रसन्न नमोऽस्तु ते (स्वाहा) ॥ ३४ ॥

- यह सतहत्तर अक्षरोंका हृदय मन्त्र है, जो सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है। [कोष्ठकमें दिये गये अक्षरोंको छोड़कर गिननेपर सतहत्तर अक्षर होते हैं।] ॥ ३५ ॥

(इस मन्त्रको पढ़कर 'हृदयाय नमः' बोलकर हृदयका स्पर्श करना चाहिये।)

'ॐ शिव शिवाय नमः।' यह शिरोमन्त्र है, अर्थात् इसे पढ़कर 'शिरसे स्वाहा' बोलकर दाहिने हाथसे सिरका स्पर्श करना चाहिये। 'ॐ शिवहृदये ज्वालिनी स्वाहा, शिखायै वषट्' बोलकर शिखाका स्पर्श करे। 'ॐ शिवात्मक महातेजः सर्वज्ञ प्रभो संवर्तय महाघोरकवच पिङ्गल आयाहि पिङ्गल नमो महाकवच शिवाज्ञया हृदयं बन्ध बन्ध पूर्णय घूर्णय चूर्णय चूर्णय सूक्ष्मासूक्ष्म वज्रधर वज्रपाशधनुर्वग्राशनिवज्रशरीर मच्छरीरमनुप्रविश्य सर्वदुष्टान् स्तम्भय स्तम्भय हुम् ॥ ३६ ॥

- यह एक सौ पाँच अक्षरोंका कवच-मन्त्र है। अर्थात् इसे पढ़कर 'कवचाय हुम्' बोलते हुए दोनों हाथोंसे एक साथ दोनों भुजाओंका स्पर्श करे ॥ ३७॥

'ॐ ओजसे नेत्रत्रयाय वौषट्' ऐसा बोलकर दोनों नेत्रोंका स्पर्श करे। इसके बाद निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर अस्त्रन्यास करे 'ॐ ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोरघोरतरतनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बन्ध बन्ध घातय घातय हुं फट्।' यह (प्रणवसहित बावन अक्षरोंका) 'अघोरास्त्र मन्त्र' है ॥ ३८ ॥ 

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'अनेकविध मन्त्रोंके साथ ईशान आदि मन्त्र तथा छः अङ्गॉसहित अघोरास्त्रका कथन' नामक तीन सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२३॥

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