अग्नि पुराण तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 333 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 333 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय - अर्द्धसमनिरूपणम्

अग्निरुवाच

उपचित्रकं ससमनामथभोजभगामय ।
द्रूतमध्या ततभगागथोननजयाः स्मृताः ।। १ ।।

वेगवती ससमगा भभभगोगथो स्मृता ।
रुद्रविस्तारस्तोसभगासमजागोगथा स्मृता ।। २ ।।

रजसागोगथोद्रोणौ गोगौ वै केतुमत्यपि ।
आख्यानिकी ततजगागथोततजगागथ ।। ३ ।।

विपरीताख्यानिकी त्तौ जयगातौ जगोगथ ।
सौमलौ गथलभभावौ भवेद्धरिणवल्लभा ।। ४ ।।

लौवनौगाथनजजा यः स्यादपरक्रमं ।
पुष्पिता ननवयानजजावोगथो रजौ ।। ५ ।।

वोजथो जवजवागौ मूले पनमती शिखा ।
अष्टाविंशतिनागाभा त्रिशन्नागन्ततो युजि ।
खञ्जा तद्विपरीता स्यात् समवृत्तं प्रदर्श्यते ।। ६ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अर्द्धसमनिरूपणं नाम त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 333 Chapter!-In Hindi

तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय - अर्धसम वृत्तों का वर्णन

अग्निदेव कहते हैं- जिसके प्रथम चरणमें तीन सगण, एक लघु और एक गुरु (कुल ग्यारह अक्षर) हों, दूसरे चरणमें तीन भगण एवं दो गुरु हों तथा पूर्वार्धके समान ही उत्तरार्ध भी हो, वह 'उपचित्रक" नामक छन्द है। जिसके प्रथम पादमें तीन भगण एवं दो गुरु हों और द्वितीय पादमें एक नगण (।।।), दो जगण (151) एवं एक जगण हो, वह 'द्रुतमध्या नामक छन्द होता है। [यहाँ भी प्रथम पादके समान तृतीय पाद और द्वितीय पादके समान चतुर्थ पाद जानना चाहिये। यही बात आगेके छन्दोंमें भी स्मरण रखनेयोग्य है। जिसके प्रथम चरणमें तीन सगण और एक गुरु तथा द्वितीय चरणमें तीन भगण एवं दो गुरु हों, उस छन्दका नाम 'वेगवती है। 

जिसके पहले पादमें तगण (551), जगण (151), रगण (515) और एक गुरु तथा दूसरे चरणमें मगण (555), सगण (115), जगण (151) एवं दो गुरु हों, वह 'भद्रविराट् नामक छन्द है। जिसके प्रथम पादमें सगण, जगण, सगण और एक गुरु तथा द्वितीय पादमें भगण, रगण, नगण और दो गुरु हों, उसका नाम 'केतुमती" है। जिसके पहले चरणमें दो तगण, एक जगण और दो गुरु हों तथा दूसरे चरणमें जगण, तगण, जगण एवं दो गुरु हों, उसे 'आख्यानिकी कहते हैं। इसके विपरीत यदि प्रथम चरणमें जगण, तगण, जगण एवं दो गुरु हों और द्वितीय चरणमें दो तगण, एक जगण तथा दो गुरु हों तो उसकी 'विपरीताख्यानकी संज्ञा होती है। जिसके पहले पादमें तीन सगण, एक लघु और एक गुरु हों तथा दूसरेमें नगण, भगण, भगण एवं रगण मौजूद हों, उस छन्दका नाम 'हरिणप्लुता" है। 

जिसके प्रथम चरणमें दो नगण, एक रगण, एक लघु और एक गुरु हो तथा दूसरे चरणमें एक नगण, दो जगण और एक रगण हो, वह 'अपरवक्त्र" नामक छन्द है। जिसके प्रथम पादमें दो नगण, एक रगण और एक यगण हो तथा दूसरेमें एक नगण, दो जगण, एक रगण और एक गुरु हो, उसका नाम 'पुष्पिताग्रा है। जिसके पहले चरणमें रगण, जगण, रगण, जगण हो तथा दूसरेमें जगण, रगण, जगण, रगण और एक गुरु हो उसे 'यवमती कहते हैं। जिसके प्रथम और तृतीय चरणोंमें अट्ठाईस लघु और अन्तमें एक गुरु हो तथा दूसरे एवं चौथे चरणोंमें तीस लघु एवं एक गुरु हो तो उसका नाम 'शिखा होता है। इसके विपरीत यदि प्रथम और तृतीय चरणोंमें तीस लघु और एक गुरु हो तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरणोंमें अट्ठाईस लघुके साथ एक गुरु हो तो उसे 'खञ्जा कहते हैं। अब 'समवृत्त 'का दिग्दर्शन कराया जाता है॥ १-६॥ 

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'अर्थसमवृत्तका वर्णन' नामक तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३३३॥

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