अग्नि पुराण तीन सौ सत्ताईसवाँ अध्याय ! Agni Purana 327 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ सत्ताईसवाँ अध्याय ! Agni Purana 327 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ सत्ताईसवाँ अध्याय - देवालयमाहात्म्यम्

ईश्वर उवाच

व्रतेश्वरांश्च सत्यादीनिष्ट्वा व्रतसम्र्पणम्।
अरिष्टशमने शस्तमरिष्टं सूत्रनायकम् ।। १ ।।

हेमरत्नमयं भूत्यै महाशङ्खञ्च मारणे ।
आप्यायने शङ्खसूत्रं मौक्तिकं पूत्रवर्द्धनम् ।। २ ।।

स्फाटिकं भूतिदं कौशं मुक्तिदं रुद्रनेत्रजं ।
धात्रीफलप्रमाणेन रुद्राक्षँ चोत्तमन्ततः ।। ३ ।।

समेरुं मेरुहीनं वा सूत्रं जप्यन्तु मानसम् ।
अनामाङ्गुष्ठमाक्रम्य जपं भाष्यन्तु कारयेत् ।। ४ ।।

तर्ज्जन्यङ्गुष्ठमाक्रम्य न मेरुं लङ्घयेज्जपे ।
प्रमादात् पतिते सूत्रे जप्तव्यन्तु शतद्वयम् ।। ५ ।।

सर्ववाद्यमयी घण्टा तस्या वादनमर्थकृत् ।
गोशकृन्मूत्रवल्मीकमृत्तिकाभस्मवारिभिः ।। ६ ।।

वेस्मायतनलिङ्गादेः कार्य्यमेवं विशोधनम् ।
स्कन्दो नमः शिवायेति मन्त्रः सर्व्वार्थसाधकः ।। ७ ।।

गीतः पञ्चाक्षरो वेदे लोके गीतः षड़क्षरः ।
ओमित्यन्ते स्थितः शम्भुर्म्मुद्रार्थं वटवीजवत् ।। ८ ।।

क्रमान्नमः शिवायेति ईशानाद्यानि वै विदुः ।
षड़क्षरस्य सूत्रस्य भाष्यद्विद्याकदम्बकं ।। ९ ।।

यदोँनमः शिवायेति एतावत् परमं पदम् ।
अनेन पूजयेल्लिङ्गं लिङ्गे यस्मात् स्थितः शिवः ।। १० ।।

अनुग्रहाय लोकानां धर्म्मकामार्थमुक्तिदः ।
यो न पूजयते लिङ्गन्न स धर्म्मादिभाजनं ।। ११ ।।

लिङ्गार्च्चनाद्भुक्तिमुक्तिर्यावज्जीवमतो यजेत् ।
वरं प्राणपरित्यागो भुञ्जीतापूज्य नैव तं ।। १२ ।।

रुद्रस्य पूजनाद्रुद्रो विष्णुः स्याद्विष्णुपूजनात् ।
सूर्य्यः स्यात् सूर्य्यपूजातः शक्त्यादिः शक्तिपूजनात् ।। १३ ।।

सर्वयज्ञतपोदाने तीर्थे वेदेषु यत् फलं ।
तत् फलं कोटिगुणितं स्थाप्य लिङ्गं लभेन्नरः ।। १४ ।।

त्रिसन्ध्यं योर्च्चयेल्लिङ्गं कृत्वा विल्वेन पार्थिवम् ।
शतैकादशिकं यावत् कुलमुद्‌धृत्य नाकभाक् ।। १५ ।।

भक्त्या वित्तानुसारेण कुर्य्यात् प्रासादसञ्चयम् ।
अल्पे महति वा तुल्यफलमाढ्यदरिद्रयोः ।। १६ ।।

भागद्वयञ्च धर्मार्थं कल्पयेज्जीवनाय च ।
धनस्य भागमेकन्तु अनित्यं जीवितं यतः ।। १७ ।।

त्रिसप्तकुलमुद्‌धृत्य देवागारकृदर्थंभाक् ।
मृत्कष्ठेष्टकशैलाद्यैः क्रमात् कोटिगुणं फलम् ।। १८ ।।

अष्टेष्टकसुरागारकारी स्वर्गमवाप्नुयात् ।
पांशुना क्रीडमानोपि देवागारकृदर्थभाक् ।। १९ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये देवालयमाहात्म्यादिर्नाम सप्तविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ सत्ताईसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 327 Chapter In Hindi

तीन सौ सत्ताईसवाँ अध्याय विभिन्न कर्मोंमें उपयुक्त माला, अनेकानेक मन्त्र, लिङ्ग-पूजा तथा देवालयकी महत्ताका विचार

भगवान् महेश्वर कहते हैं- कार्तिकेय ! व्रतेश्वर और सत्य आदि देवताओं का पूजन करके उन को व्रत का समर्पण करना चाहिये। अरिष्ट शान्ति के लिये अरिष्टमूल की माला उत्तम है। कल्याणप्राप्ति के लिये सुवर्ण एवं रत्नमयी, मारणकर्ममें महाशङ्खमयी, शान्तिकर्ममें शङ्खमयी और पुत्रप्राप्ति के लिये मौक्तिकमयी मालासे जप करे। स्फटिकमणिकी माला कोष-सम्पत्ति देनेवाली और रुद्राक्षकी माला मुक्तिदायिनी है। उसमें आँवलेके बराबर रुद्राक्ष उत्तम माना गया है। मेरुसहित या मेरुहीन माला भी जपमें ग्राह्य हैं। मानसिक जप करते समय मालाके मणियोंको अनामिका और अङ्गुष्ठसे सरकाना चाहिये। उपांशु जपमें तर्जनी और अङ्गुष्ठके संयोगसे मणियोंकी गणना करे; किंतु जपमें मेरुका कभी उल्लङ्घन न करे। यदि प्रमादवश माला गिर जाय, तो दो सौ बार मन्त्रजप करे। घण्टा सर्ववाद्यमय है। उसका वादन अर्थ-सिद्धि करनेवाला है। गृह और मन्दिरमें शिवलिङ्गकी, गोमय, गोमूत्र, वल्मीक मृत्तिका, भस्म और जलसे शुद्धि करनी चाहिये ॥ १-६ ॥

कार्तिकेय ! 'ॐ नमः शिवाय' यह मन्त्र सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थोंको सिद्ध करनेवाला है। वेदमें 'पञ्चाक्षर' और लोकमें 'षडक्षर' माना गया है। परम अक्षर ओंकारमें शिव सूक्ष्म वटबीजमें वटवृक्षके समान स्थित हैं। शिवके क्रमशः 'ॐ नमः शिवाय' 'ईशानः सर्वविद्यानाम्' आदि मन्त्र समस्त विद्याओंक समुदाय इस षडक्षर मन्त्रके भाष्य हैं। 'ॐ नमः शिवाय' यह मन्त्र ही परमपद है। इसी मन्त्रसे शिवलिङ्गका पूजन करना चाहिये; क्योंकि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले भगवान् शिव सम्पूर्ण लोकॉपर अनुग्रह करनेके लिये लिङ्गमें प्रतिष्ठित हैं। जो मनुष्य शिवलिङ्गका पूजन नहीं करता है, वह धर्मको प्राप्तिसे वचित रह जाता है। लिङ्गपूजनसे भोग और मोक्ष दोनोंकी प्राप्ति होती है, इसलिये जीवनपर्यन्त शिवलिङ्गका पूजन करे। भले ही प्राण चले जायें, किंतु उसका पूजन किये बिना भोजन न करे। मनुष्य रुद्रके पूजनसे रुद्र, श्रीविष्णुके यजनसे विष्णु, सूर्यको पूजा करनेसे सूर्य सूर्य और शक्तिको अर्चनासे शक्तिका सारूप्य प्राप्त करता है। उसे सम्पूर्ण यज्ञ, तप, दानकी प्राप्ति होती है। 

मनुष्य लिङ्गकी स्थापना करके उससे करोड़‌गुना फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य प्रतिदिन तीनों समय पार्थिव-लिङ्गका निर्माण करके बिल्वपत्रोंसे उसका पूजन करता है, वह अपनी एक सौ ग्यारह पीढ़ियोंका उद्धार करके स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। अपने धनसंचयके अनुसार भक्तिपूर्वक देवमन्दिर निर्माण कराना चाहिये। दरिद्र और धनिकको मन्दिर निर्माणमें यथाशक्ति अल्प या अधिक व्यय करनेके समान फल मिलता है। संचित धनके दो भाग धर्मकार्यमें व्यय करके जीवन-निर्वाहके लिये समभाग रखें; क्योंकि जीवन अनित्य है। देवमन्दिर बनवानेवाला अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति करता है। मिट्टी, लकड़ी, ईंट और पत्थरसे मन्दिर निर्माणका क्रमशः करोड़गुना फल है। आठ ईंटोंसे भी मन्दिरका निर्माण करने वाला स्वर्गलोकको प्राप्त हो जाता है। क्रीडामें धूलिका मन्दिर बनानेवाला भी अभीष्ट मनोरथको प्राप्त करता है॥ ७-११॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'देवालय माहात्म्य-वर्णन' नामक तीन सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३२७

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